जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...
कड़ा कटा।कर्ज अदा हुआ। पर मेरे लिए यह बात असह्य हो गयी। मैंने निश्चय किया कि आगे कभी चोरी करुँगा ही नहीं। मुझे लगा कि पिताजी के सम्मुख अपना दोष स्वीकारभी कर लेना चाहिये। पर जीभ न खुली। पिताजी स्वयं मुझे पीटेंगे, इसका डर तो था ही नहीं। मुझे याद नहीं पड़ता कभी हममें से किसी भाई को पीटा हो। परखुद दुःखी होगे, शायद सिर फोड़ लें। मैंने सोचा कि यह जोखिम उठाकर भी दोष कबूल कर लेना चाहिये, उसके बिना शुद्धि नहीं होगी।
आखिर मैंने तय किया कि चिट्ठी लिख कर दोष स्वीकार किया जाये और क्षमा माँग ली जाये।मैंने चिट्ठी लिखकर हाथोहाथ दी। चिट्ठी में सारा दोष स्वीकार किया और सजा चाही। आग्रहपूर्वक बिनती की कि वे अपने को दुःख में न डाले और भविष्य मेंफिर ऐसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा की।
मैंने काँपते हाथों चिट्ठी पिताजी के हाथ में दी। मैं उनके तखत के सामने बैठ गया। उन दिनों वेभगन्दर की बीमारी से पीड़ित थे, इस कारण बिस्तर पर ही पड़े रहते थे। खटिया के बदले लकड़ी का तख्त काम में लाते थे।
उन्होंने चिट्ठी पढ़ी। आँखों से मोती की बूँदे टपकी। चिट्ठी भीग गयी। उन्होंने क्षण भर के आँखेंमूंदी, चिट्ठी फाड़ डाली और स्वयं पढ़ने के लिए उठ बैठे थे, सो वापस लौट गये।
मैं भी रोया। पिताजी का दुःख समझ सका। अगर मैं चित्रकारहोता, तो वह चित्र आज भी सम्पूर्णता से खींच सकता। आज भी वह मेरी आँखो केसामने इतना स्पष्ट हैं।
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