जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...
परमेश्वर की व्याख्यायें अनगिनत हैं, क्योंकिउसकी विभूतियाँ भी अनगिनत हैं। ये विभूतियाँ मुझे आश्चर्यचकित करती हैं। क्षणभर के लिए ये मुझे मुग्ध भी करती हैं। किन्तु मैं पुजारी तो सत्यरूपीपरमेश्वर का ही हूँ। वह एक ही सत्य है और दूसरा सब मिथ्या है। यह सत्य मुझे मिला नहीं है लेकिन मैं इसका शोधक हूँ। इस शोध के लिए मैं अपनी प्रियसे प्रिय वस्तु का त्याग करने को तैयार हूँ और मुझे यह विश्वास है कि इस शोधरूपी यज्ञ में इस शरीर को भी होम करने की मेरी तैयारी है और शक्ति है।लेकिन जब तक मैं इस सत्य का साक्षात्कार न कर लूँ, तब तक मेरी अन्तरात्मा जिसे सत्य समझती है उस काल्पनिक सत्य को आधार मानकर, अपना दीपस्तम्भ, उसकेसहारे अपना जीवन व्यतीत करता हूँ।
यद्यपि यह मार्ग तलवार की धार पर चलने जैसा है, तो भी मुझे यह सरल से सरल लगा है। इस मार्ग पर चलते हुएअपनी भयंकर भूलें भी मुझे नगण्य सी लगी हैं, क्योंकि वैसी भूलें करने पर भी मैं बच गया हूँ और अपनी समझ के अनुसार आगे बढ़ा हूँ। दूर-दूर सेविशुद्ध सत्य की - ईश्वर की - झाँकी भी मैं कर रहा हूँ। मेरा यह विश्वास दिन प्रतिदिन बढ़ता जाता है कि एक सत्य ही है, उसके अलावा दूसरा कुछ भी इसजगत् में नहीं है। यह विश्वास किस प्रकार बढ़ता गया है, इसे मेरा जगत् अर्थात् 'नवजीवन' इत्यादि के पाठक जानकर मेरे प्रयोगों के साझेदार बननाचाहें और उस सत्य की झाँकी भी मेरे साथ करना चाहें तो भले करें। साथ ही, मैं यह भी अधिकाधिक मानने लगा हूँ कि जितना कुछ मेरे लिए सम्भव है, उतनाएक बालक के लिए भी सम्भव है और इसके लिए मेरे पास सबल कारण हैं। सत्य की शोध के साधन जितने कठिन हैं उतने ही सरल हैं। वे अभिमानी को असम्भव मालूमहोंगे और एक निर्दोष बालक को बिल्कुल सम्भव लगेंगे। सत्य के शोधक को रजकण से भी नीचे रहना पड़ता है। सारा संसार रजकणों को कुचलता है पर सत्य कापुजारी तो जब तक इतना अल्प नहीं बनता कि रजकण भी उसे कुचल सके, तब तक उसके लिए स्वतंत्र सत्य की झाँकी भी दुर्लभ है। यह चीज वशिष्ठ-विश्वामित्र केआख्यान में स्वतंत्र रीति से बतायी गयी है। ईसाई धर्म और इस्लाम भी इसी वस्तु को सिद्ध करते हैं।
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