जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...
विलायत में सार्वजनिक रुप से बोलनेका अंतिम प्रयत्न करना पड़ा था। विलायत छोड़ने से पहले मैंने अन्नाहारी मित्रों को हॉबर्न भोजन-गृह में भोज के लिए निमंत्रित किया था। मैंने सोचाकि अन्नाहारी भोजन-गृहों में तो अन्नाहार मिलता ही हैं, पर जिस भोजन-गृह में माँसाहार बनता हो वहाँ अन्नाहार का प्रवेश हो तो अच्छा। यह विचार करकेमैंने इस गृह के व्यवस्थापक के साथ विशेष प्रबन्ध करके वहाँ भोज दिया। यह नया प्रयोग अन्नाहारियों में प्रसिद्धि पा गया। पर मेरी तो फजीहत ही हुई।भोजमात्र भोग के लिए ही होते हैं। पर पश्चिम में इनका विकास एक कला के रुप में किया गया हैं। भोज के समय विशेष आडम्बर की व्यवस्था रहती है। बाजेबजते हैं, भाषण किये जाते हैं। इस छोटे से भोज में भी यह सारा आडम्बर था ही। मेरे भाषण का समय आया। मैं खड़ा हुआ। खूब सोचकर बोलने की तैयारी कीथी। मैंने कुछ ही वाक्यो की रचना की थी, पर पहले वाक्य से आगे न बढ़ सका। एडीसन के विषय में पढ़ते हुए मैंने उसके लज्जाशील स्वभाव के बारे में पढ़ाथा। लोकसभा हाइस ऑफ कॉमन्स) के उसके पहले भाषण के बारे में यह कहा जाता है कि उसने 'मेरी धारणा है', 'मेरी धारणा है', 'मेरी धारणा है', यो तीन वारकहां, पर बाद में आगे न बढ़ सका। जिस अंग्रेजी शब्द का अर्थ 'धारणा हैं', उसका अर्थ 'गर्भ धारण करना' भी हैं। इसलिए जब एडीसन आगे न बढ़ सका तोलोकसभा का एक मखसरा सदस्य कह बैठा कि 'इन सज्जन ने तीन बार गर्भ धारण किया, पर ये कुछ पैदा तो कर ही सके !' मैंने यह कहानी सोच रखी थी और एकछोटा-सा विनोदपूर्ण भाषण करने का मेरा इरादा था। इसलिए मैंने अपने भाषण का आरंभ इस कहानी से किया, पर गाड़ी वही अटक गयी। सोचा हुआ सब भूल गया औरविनोदपूर्ण तथा गूढ़ार्थभरा भाषण करने की कोशिश में मैं स्वयं विनोद का पात्र बन गया। अन्त में 'सज्जनो, आपने मेरा निमंत्रण स्वीकार किया, इसकेलिए मैं आपका आभार मानता हूँ,' इतना कहकर मुझे बैठ जाना पड़ा !
मैं कह सकता हूँ मेरा यह शरमीला स्वभाव दक्षिण अफ्रीका पहुँचने पर ही दूर हुआ।बिल्कुल दूर हो गया, ऐसा तो आज भी नहीं कहा जा सकता। बोलते समय सोचना तो पड़ता ही हैं। नये समाज के सामने बोलते हुए मैं सकुचाता हूँ। बोलने से बचाजा सके, तो जरुर बच जाता हूँ। और यह स्थिति तो आज नहीं हैं कि मित्र-मण्डली के बीच बैठा होने पर कोई खास बात कर ही सकूँ अथवा बात करनेकी इच्छा होती हो। अपने इस शरमीले स्वभाव के कारण मेरी फजीहत तो हुई पर मेरा कोई नुकसान नहीं हुआ; बल्कि अब तो मैं देख सकता हूँ कि मुझे फायदाहुआ है। पहले बोलने का यह संकोच मेरे लिए दुःखकर था, अब वह सुखकर हो गया हैं। एक बड़ा फायदा तो यह हुआ कि मैं शब्दों का मितव्यय करना सीखा।
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