जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...
'तब आप अमेरीका तो जरुर ही जायेंगे?'
'जरूर। उस नयी दुनिया को देखे बिना मैं बापस कैसे लौट सकता हूँ।'
'पर आपके पास इतने पैसे कहाँ हैं?'
'मुझे पैसों से क्या मतलब? मुझे कौन तुम्हारी तरह टीमटाम से रहना हैं? मेरा खानाकितना हैं और पहनना कितना हैं? पुस्तको से मुझे जो थोड़ा मिलता हैं और मित्र जो थोड़ा देते हैं, वह सब काफी हो जाता हैं। मैं तो सब कहीं तीसरेदर्जें में ही जाता हूँ। अमरीका डेक में जाऊँगा।'
कार्डिनल मैंनिंग की सादगी तो उनकी अपनी ही चीज थी। उनकी निखालिसता भी वैसी ही थी।अभिमान उन्हें छू तक नहीं गया था। लेकिन लेखक के रुप में अपनी शक्ति पर उन्हे आवश्यकता से अधिक विश्वास था।
हम रोज मिला करते थे। हममे विचार और आचार की पर्याप्त समानता थी। दोनो अन्नाहारी थे। दुपहर का भोजनअकसर साथ ही करते थे। यह मेरा वह समय था, जब मैं हफ्ते के सत्रह शिलिंग में अपना निर्वाह करता था और हाथ से भोजन बनाता था। कभी मैं उनके मुकाम परजाता, तो किसी दिन वे मेरे घर आते थे। मैं अग्रेजी ढंग की रसोई बनता था। उन्हे देशी ढंग के बिना संतोष ही न होता। दाल तो होनी ही चाहिये। मैं गाजरवगैरा का सूप बनाता तो इसके लिए वे मुझ पर तरस खाते। वे कहीं से मूंग खोजकर ले आये थे। एक दिन मेरे लिए मूंग पकाकर लाये और मैंने उन्हें बड़ेचाव से खाया। फिर तो लेन-देन का हमारा यह व्यवहार बढ़ा। मैं अपने बनाये पदार्थ उन्हें चखाता और वे अपनी चीजे मुझे चखाते।
उन दिनों कार्डिनल मैंनिंग का नाम सबकी जबान पर था। डक के मजदूरों की हड़ताल थी।जॉन बर्न्स और कार्डिनल मैंनिंग के प्रयत्न से हड़ताल जल्दी ही खुल गयी। कार्डिनल मैंनिंग की सादगी के बारे में डिज़रायेली ने जो लिखा था, सोमैंने कार्डिनल मैंनिंग को सुनाया।
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