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श्रंगार-विलास >> रतिरत्नप्रदीपिका

रतिरत्नप्रदीपिका

शंकरदत्त शास्त्री

प्रकाशक : चौखम्बा कृष्णदास अकादमी प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15332
आईएसबीएन :0

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इस ग्रन्थ में दुरूह कामशास्त्र विषयक प्रश्न को सर्वसाधारण के लिए बोधगम्य कर दिया गया है...

भूमिका

विद्वद्वृन्द !
इस ग्रन्थ में दुरूह कामशास्त्र विषयक प्रश्न को सर्वसाधारण के लिए बोधगम्य कर दिया गया है।
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, में काम ही सकल पुरुषार्थ साधन होने से सर्वश्रेष्ठ है। कारण, काम, कामना से ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के लिए प्रवृत्ति होती है। और सर्वविधि प्रतिभा शाली, शक्तिशाली, सौभाग्यशाली, जगत् पावयिता, अन्तस्थलमलापनेता पुरुष विशेष भी कामजन्य ही है। अतः काम की प्रधानता स्वतः सिद्ध है। सर्वविधि मनःकामना पूर्ति हेतु सप्तशती अनुष्ठानादि से भी आसनके नीचे रतिमन्दिर “त्रिकोणयन्त्र स्थापन से ही सफलता मिलती है। अतः कामशास्त्र विषयक उपाङ्ग, अङ्ग सर्वाङ्ग, वर्णन सुस्पष्ट भाषा में हो। यह अश्लीलता नहीं है। कहा भी है-
अन्यदाभूषणं पुंसः क्षमा लज्जेव योषितः।
पराक्रमः परिभवे वैयात्ये सुरतेष्विव।।

अर्थात् पुरुषों के लिये क्षमा, सहनशीलता सप्त गुण है। किन्तु परिभव काल में नहीं, उस काल में पराक्रम ही गुण है। उपमा जैसे स्त्रियों के लिये लज्जा सदा भूषण है किन्तु रति काल में नहीं। उस काल में जितनी निर्लज्जता होगी उतनी अच्छी रति होती है।

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