श्रंगार-विलास >> केलिकुतूहलम् केलिकुतूहलम्मथुरा प्रसाद दीक्षित
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हिन्दी व संस्कृत भाषा में काम शास्त्र का अद्भुत
उपोद्घात
इस क्लेशबहुल जीवन में मानस जीवन की स्थिति अत्यन्त दयनीय होती यदि परम कारुणिक भगवान् ने उसके मनोविनोद के लिये, आनन्द की अनुभूति के लिये, मनसिज का सृजन न किया होता। मोहिनीमयी लक्ष्मीस्वरूपिणी नारी जाति का निर्माण कर एवं उसके प्रति उसे आकृष्ट कर, उस दयामय ने अपने त्रिवर्ग की उपादेयता सिद्ध कर दी, जिससे कि धर्म और अर्थ का साधनरूप में उपयोग होने लगा और काम का साध्यरूप में। विवेकशील विवेचकों ने इस त्रिवर्ग का-धर्म, अर्थ और काम का वैज्ञानिक पद्धति से परिशीलन कर उसकी उपयोगिता का कितना संवर्धन किया है, यह किसी से तिरोहित नहीं है।
विहङ्गम दृष्टि से इस कामशास्त्र के ऐतिहासिक उपक्रम का निरूपण करते हुए महर्षि वात्स्यायन प्रथम अध्याय, प्रथम अधिकरण, कामसूत्र में लिखते हैं कि :
प्रजापतिः हि प्रजाः सृष्ट्वा तासां स्थितिनिबन्धनं त्रिवर्गसाधनम् अध्यायानां शतसहस्रेण अग्रे प्रोवाच। तस्य एकदेशं स्वायंभुवः मनुः धर्माधिकारिकं पृथक् चकार। वृहस्पतिः अर्थाधिकारिकम्। महादेवानुचरश्च नन्दी सहस्त्रेण अध्यायानां पृथक् कामसूत्रं प्रोवाच। तदेव तु पञ्चभिः अध्यायशतैः औद्दालकिः श्वेतकेतुः संचिक्षेप। तदेव तु पुनः अध्यर्थेन अध्यायशतेन साधारण-सांप्रयोगिक-कन्यासंप्रयुक्तक-भार्याधिकारिकपारदारिक-वैशिकौप-निषदिकैः सप्तभिः अधिकरणैः वाभ्रव्यः पाञ्चालः संचिक्षेप। तस्य षष्ठं वैशिकम् अधिकरणम् पाटलिपुत्रिकाणां गणिकानां नियोगाद् दत्तकः पृथक् चकार। तत्प्रसङ्गात् चारायणः साधारणम् अधिकरणं पृथक् प्रोवाच। सुवर्णनाभः सांप्रयोगिकम् घोटकमुखः कन्यासंप्रयुक्तकम्। गोनर्दीयः भार्याऽधिकारिकम्। कुचुमार: औपनिषदिकम्। एवं बहुभिः आचार्यैः तच्छास्त्रं खण्डशः प्रणीतम् उत्सन्नकल्पम् अभूत्।
अर्थात् प्रजापति ने प्रजा की रचना के अन्तर १००००० अध्याय विशिष्टमहान् ग्रन्थ से शुभ तथा अशुभ एवं उपादेय और अनुपादेय त्रिवर्ग का-धर्म-अर्थ तथा काम का-निरूपण किया। उसके एक अंश धर्म को ले कर स्वायंभुव मनु ने धर्मशास्त्र का-एक स्मृति का-निर्माण किया, वृहस्पति ने उसके अर्थ-विषय को लक्ष्य कर अर्थशास्त्र की रचना की और महेश्वर के अनुचर नन्दिकेश्वर ने १००० अध्याय वाला ग्रन्थ लिखकर कामशास्त्र की विस्तृत विवेचना की। अतः यदि महेश्वर के शिष्य नन्दी को कामशास्त्र का आद्य आचार्य मानें तो कोई अत्युक्ति न होगी। उद्दालक के सुपुत्र श्वेतकेतु ने नन्दिकेश्वर के इस ग्रन्थ का एक संक्षिप्त रूप प्रस्तुत किया जिसमें ५०० अध्याय थे।
पाञ्चाल देश के निवासी वाभ्रव्य ने (१) साधारण, (२) साम्प्रयोगिक, (३) कन्यासंप्रयुक्तक, (४) भार्याधिकारिक, (५) पारदारिक, (६) वैशिक और (७) औपनिषदिक-इन सात अधिकरणों के द्वारा श्वेतकेतु के ग्रन्थ का अनुसरण करते हुए एक छोटासा ग्रन्थ लिखा, जिसका विस्तार १५० अध्यायों में था। इसके अनन्तर हमें उन आचार्यों के दर्शन होते हैं, जिन्होंने एक-एक अधिकरण के आधार पर एक-एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की है।
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