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कविशेखर ज्योतिरीश्वराचार्य प्रणीत पञ्चसायकः की सरल हिन्दी व्याख्या
भूमिका
श्रोत्रत्वक्चक्षुजिह्वाघ्राणानामात्मसंयुक्तेन मनसाधिष्ठितानां स्वेषु स्वेषु विषयेप्वानुकूल्यतः प्रवृत्तिः कामः।
आत्मा से संयुक्त मन से अधिष्ठित कान, त्वचा, आँख, जिह्वा, नाक - इन पाँच इन्द्रियों के इच्छानुसार अपने-अपने विषयों - शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध, इन पाँच विषयों में क्रमशः अनुकूल प्रवृत्ति ही काम है। अथवा इन पाँच इन्द्रियों की अपने-अपने विषयों में अनुकूल प्रवृत्ति से आत्मा जो आनन्दानुभव करता है, उसे काम कहते हैं।
काम का शब्दार्थं है इच्छा। इच्छा कब होती है? जब किसी के प्रति कुछ आकर्षण हो। आकर्षण कब होता है? जब उसके विषय में कुछ ज्ञात हो। ज्ञात कब होता है? जब उपर्युक्त वात्सायनसूत्र के अनुसार इन पाँच इन्द्रियों की अपने-अपने विषय के प्रति आत्मसंयुक्त मन से अधिष्ठित होकर अनुकूल प्रवृत्ति हो। इसीलिए इस प्रवृत्ति का नाम काम कहा गया है।
इस काम के कारण ही एक वस्तु दूसरी वस्तु पर आकृष्ट होकर संयोग करती है। और संयोग के अनन्तर कुछ नवीन सृजन होता है। अर्थात् दो वस्तुओं के सम्मिलन से नयी वस्तु की उत्पत्ति। इसलिए काम को ही सृष्टि को कारण माना गया है।
शिवपुराण में काम का विस्तृत विवेचन मिलता है। आध्यात्मिक पक्ष में भी काम का महत्त्व प्रतिपादित है
"शिवशक्तिसमायोगाज्जायते सृष्टिकल्पना'
अखिल ब्रह्माण्ड का मूल शिवशक्ति-संयोगात्मक माना गया है।
भौतिकपक्ष में वही स्त्रीपुरुषात्मक है। पुरुष शिवस्वरूप एवं स्त्री शक्तिस्वरूपा मानी गयी है। काम के कारण ही इनकी परस्पर प्रवृत्ति होती है
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