सामाजिक >> अजनबी अजनबीराजहंस
|
0 |
राजहंस का नवीन उपन्यास
ऐसे वातावरण में आकर लता को लगा जैसे उसके शरीर में, नई स्फूर्ति आ गई हो। विकास ने एक अच्छी सी जगह ढूंढी फिर लता के साथ हरी घास पर बैठ गया।
"अब बताओ...तुमने तो क्लब जाने के लिये कहा था...फिर इथर कैसे आ गये।”
"क्लब जाकर ही तो तुम्हारी तबीयत खराब हुई थी...मैंने सोचा...अभी तुम कमजोर हो...पार्क की ठण्डी हवा तुम्हें जल्दी स्वस्थ बनायेगी बनिस्पत क्लब के।" विकास ने कहा।
"ओह... हो... मुझे पार्क में घुमना अच्छा लगता है।" कहते-कहते लदा की आंखों में मुकेश का चित्र घूम गया। वह : अपने ख्यालों में खो गई। लता की आंखों में वो दिन चित्र की भांति घूमने लगे जय वह मुकेश के साथ रोज ही पार्क में बैठकर घण्टों बातें किया करती थी। उनकी बातें खत्म ही नहीं होती थीं।
"कहाँ खो गई ” लता.को चुप देखकर विकास ने पूछा वैसे वह जान गया था कि लता को मुकेश की यादों ने आ घेरा है।। मुकेश और लता जय पार्क में बैठते थे तो विकास संदा ही उनका पीछा करता हुआ पार्क में पहुंच जाता था।
"कहीं नहीं।” लता ने हड़बड़ाकर कहा।
"मुकेश की याद आ गई थी।" विकास का स्वर व्यंग भरा था।
विकास के वाक्य ने लता को तीर की तरह छेद दिया।
“विकास...जिस रास्ते को छोड़ दिया...अब उसकी याद क्यों दिलाते हो...क्या इसीलिये तुम मुझे यहाँ लाये थे।” लता के स्वर में दुनिया भर का दर्द सिमट आया।
“माफ करना लता...अनजाने में ही मैंने ऐसा किया...अब कभी ऐसा नहीं होगा।” विकास को अपने अपर क्रोध आया कि उसने दवे जख्मों को क्यों छेड़ दिया।
“विकास आज मैं तुमसे एक बात साफ कर लेना चाहती हूँ।"
"लता मैं भी यही चाहता हूँ...बात साफ रहनी चाहिये।"
विकास इस समय लता की गोद में लेटा था वह एकटक लता के
चेहरे पर आ रहे भावों को पढ़ने की कोशिश कर रहा था।
"विकास...मैं तुम्हें कुछ भी करने से नहीं रोकेंगी... रोकने का हक भी नहीं है...तुम मेरे बस हो...फिर तुम्हारे मुझ पर काफी अहसान हैं...पर मैं एक बात चाहती हूं तुम भी मुझे किसी बात के लिये मजबूर न करो।”
"मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा।”
“मतलब साफ है...मैं तुम्हारे साथ क्लब जाने को मना नहीं
करती...लेकिन वहाँ बैठकर तुम्हारे साथ शराब कभी नहीं पी सकेंगी...लेकिन तुम्हें रोकेंगी भी नहीं...अगर तुम्हें मंजूर है तो ठीक है...नहीं तो मैं नौकरी छोड़ने को तैयार हूं।” लता में दर्द भरे स्वर में कहीं।
"क्या तुम नौकरी छोड़ दोगी।” विकास चौंक उठा। उसे लगा चिड़िया उसके हाथ से निकलने वाली है पर विकास भी कच्चा खिलाड़ी नहीं था। इतनी आसानी से वह लता को नहीं छोड़ सकता था।
“हाँ विकास...मैं दिन-रात यही सोचती रही हूं...पर मेरी आत्मा शराब पीने को तैयार नहीं है।"
"अरे लता..मुझे क्या पता था...तुम इतनी भावुक हो...इतनी छोटी सी बात को इतना महत्व दोगी...अरे जरूरी तो नहीं है कि शराब पी ही जाये...मैने तो इसलिये कहा था कि धीरे-धीरे अगर आदत डालोगी तो पड़ जायेगी...क्या मैं सदी से थोड़े ही पीता हूं...दोस्तों के साथ ही सीख गया...तुम नहीं चाहती तो मैं नहीं कहूंगा।” विकास की आंखें पानी से भरी थीं।
"ओह विकास...मैंने तुम्हें कितना गलत समझा।” लता ने विकास का हाथ पकड़ लिया।
|