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प्रेस-विधि

डॉ. नन्द किशोर त्रिखा

प्रकाशक : विश्वविद्यालय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1986
पृष्ठ :368
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15359
आईएसबीएन :0

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भारतीय प्रेस एक्ट

प्राक्कथन

भारत के संविधान के अन्तर्गत देश के प्रत्येक नागरिक को 'वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' का मौलिक अधिकार प्राप्त है। इसी से प्रेस की स्वतंत्रता की प्रत्याभूति भी निःसृत होती है। लेकिन संविधान जहाँ यह स्वतंत्रता प्रदान करता है वहीं इस पर निर्बन्धन लगाने का अधिकार राज्य को देता है और, राज्य ने अनेक कानून बनाकर कई निर्बन्धन लगा दिए हैं।

किन्तु, निर्बन्धन मनमाने नहीं हो सकते हैं। वे न युक्तिहीन, न आत्यन्तिक होने चाहिए। उनको संविधान-सम्मत और विधिमान्य होना तो अनिवार्य है ही, यह भी देखा जाना चाहिए कि वे ऐसे न हों जिससे प्रेस की स्वतंत्रता में निहित लोकहित अनावश्यक रूप से प्रभावित हो। एक जीवन्त लोकतंत्र के लिए जनमत के सुशिक्षित और जागरूक होने की आवश्यकता को देखते हुए वांछनीय है कि अभिव्यक्ति के प्रवाह को परिसीमित करने के नकारात्मक कानूनों के बजाए सूचनाओं का अधिक मुक्त प्रवाह सुनिश्चित करनेवाली सकारात्मक विधि विकसित की जाए। कई लोकतांत्रिक देशों ने सूचना के जनाधिकार की संधारण को अधिनियम बनाकर मूर्त रूप दिया है। कोई कारण नहीं कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत भी इस दिशा में कदम न बढ़ाए।

ऐसी सकारात्मक नई विधि के सर्जन के साथ-साथ विद्यमान विधि में ऐसे अनेक उपबन्धों को संशोधित करने की आवश्यकता है जो पत्रकारों और समाचारपत्र जगत् द्वारा उतनी ओजस्विता से कार्य करने में अवरोधक है जिसकी अपेक्षा उनसे की जाती है। शासकीय गुप्त बात अधिनियम, न्यायालय अवमान अधिनियम, अपरिभाषित संसदीय विशेषाधिकार, मानहानि जैसे कई क्षेत्रों में सुधार की पर्याप्त गुंजाइश है।

विश्वभर में आज की पत्रकारिता का स्वरूप 'कहाँ', 'कब', 'कौन', 'क्या' की अपेक्षा ‘क्यों और कैसे' की जिज्ञासा को शांत करने तथा अपने लोकदायित्व को निभाने की अन्तःप्रेरणा के (और, दुर्भाग्य से, कभी-कभी सनसनी की खोज के) फलस्वरूप बदल रहा है। इससे अन्वेषणात्मक पत्रकारिता की विधा ने निखार पाया है। यह विधा कठिन, श्रमसाध्य और जोखिम भरी है। जोखिम का कारण जहाँ रहस्य के आवरण के नीचे दबे पड़े तथ्यों के प्रकट होने से प्रभावित व्यक्तियों, सरकारों और सरकारी गैर-सरकारी संगठनों का कोप होता है वहां पत्रकारों को उनके कार्यों से सम्बद्ध कानूनों का समुचित ज्ञान न होना भी है। कानूनों की जानकारी रहने पर पत्रकार जहाँ इनके शिकंजे से बच सकता है वहाँ वह इन्हीं का लाभ उठाकर अपना कार्य अधिक प्रभावी ढंग से कर सकता है।

यह देखा गया है कि सम्पादक और संवाददाता कानून की जानकारी के अभाव के कारण ऐसे प्रतिबन्धों और निर्बन्धनों को मौन स्वीकार कर लेते हैं जो कार्यपालिका में कतिपय तत्त्व उन्हें दबाने या निष्प्रभावी बनाने के लिए लगाने की चेष्टा करते हैं। दूसरी ओर पत्रकारिता के उच्च व्यावसायिक स्तर को बनाए रखने के अनुकूल मर्यादाओं का पता न रहने के कारण उनसे कई बार अनजाने में व्यावसायिक आचार का उल्लंघन हो जाता है।

अतः आज के हर पत्रकार और प्रेस-उद्योग के संचालकों एवं प्रबन्धकों को अपने व्यवसाय से सम्बद्ध विधि के बारे में पर्याप्त मात्रा में जानना चाहिए। परन्तु, कठिनाई यह है कि इस विषय पर उपयुक्त पुस्तकों का आवश्यक सृजन अभी नहीं हुआ है। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में तो इनका नितान्त अभाव है।

प्रस्तुत पुस्तक हिन्दी में ऐसी प्रथम कृति है जिसमें उन सभी संवैधानिक और विधिक संधारणाओं, मान्यताओं, अधिनियमों और उनकी व्याख्याओं को एक स्थान पर और एकीकृत रूप में लिपिबद्ध किया गया है जो प्रेस पर लागू होती हैं।

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