गजलें और शायरी >> आज के प्रसिद्ध शायर - बशीर बद्र आज के प्रसिद्ध शायर - बशीर बद्रकन्हैयालाल नंदन
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प्रस्तुत है चुनी हुई गजलें नज्में शेर और जीवन परिचय....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बशीर बद्र मुहब्बत के शायर हैं और उनकी शायरी का एक-एक लफ्ज इसका गवाह है।
मुहब्बत का हर रंग उनकी गजलों में मौजूद है। उनका पैगाम मुहब्बत है -जहाँ
तक पहुँचे। यह संकलन उनकी समूची शायरी का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी
लाजवाब भूमिका हिन्दी के प्रसिद्ध कवि सम्पादक कन्हैयालाल नंदन ने लिखी
है।
ग़ज़ल की दुनिया का एक ज़रूरी नाम : डॉ. बशीर बद्र
जनाब बशीर बद्र साहब को सौ फ़ीसदी ग़ज़ल का
शायर माना जाता है। उन्होंने खुद भी लिखा है कि ‘मैं ग़ज़ल का आदमी हूँ। ग़जल से मेरा जनम-जनम का साथ है। ग़ज़ल का फ़न मेरा फ़न है। मेरा तजुर्बा ग़ज़ल का
तजुर्बा है। मैं कौन हूँ ? मेरी तारीख़ हिन्दुस्तान की तारीख़ के आसपास
है।’’
उनके इस इक़बालिया बयान पर मैं कुछ आगे कहूँ, एक वाक़या बयान कर देना चाहता हूँ। हिन्दी के मशहूर अफ़सानानिगार हैं कमलेश्वर साहब। खुद बहुत बड़े सम्पादक रह चुके हैं, मीडिया की मानी हुई हस्ती हैं। उनसे एक इन्टरव्यू के दौरान किसी ने पूछ लिया कि हुजूर, आपकी बातचीत हमें इतना पीछे ले जाने को विवश करती है कि मन होता है, आपसे पूछूँ की आपकी उम्र क्या है ?
कमलेश्वर जी ने छूटते ही कहा: ‘मेरी उम्र है पाँच हज़ार पचपन साल।’
सवाल पूछने वाला चकरा गया: सो कैसे ?
‘‘वह ऐसे कि पाँच हज़ार साल की मेरी सभ्यता और पचपन साल का उसमें मेरा ज़ाती तजुर्बा जुड़ गया, और इस तरह मेरी सच्ची उम्र हो गई पाँच हज़ार पचपन साल।’’ उन्होंने कहा।
बशीर बद्र अपने आपको उसी तरह ग़ज़ल की लम्बी परम्परा से जोड़कर चलने में यक़ीन करते हैं। इस एतबार से वे अपने आपको आर्य, द्रविड़, अरबी, ईरानी और मंगोली रवायतों का नुमाइन्दा मानते हैं।
...और आज वे जहाँ अपने को देखते हैं वहाँ अदब, कल्चर और तहज़ीब को पूरब और पश्चिम में भले बँटा हुआ देखा जाता है लेकिन उनके हिसाब से वे एक दूसरे से अलग नहीं हैं। उनमें यक्सानियत है। उनकी ग़ज़लों का जब समग्र संकलन छपा तो उसका नाम उन्होंने रखा ‘कल्चर यक्सां’। उनके लिए ‘‘आज की दुनिया इंसानियत का एक तनावर दरख़्त है, जिसमें हज़ारों छोटी-बड़ी शाखें हैं। हर शाख़ गोया एक मुल्क है। मेरा वतन भी उस तनावर दरख़्त (दुनिया) की एक सरसब्ज़ और दिलकशतरीन झूमती शाख़ है जो मुझे अज़ीज़तर है। लेकिन मुझे और शाखों और पत्ते-पत्ते से मुहब्बत है।...और जो मेरे वतन और मेरी दुनिया का दुश्मन है, वह मेरा और इंसानियत का दुश्मन है।’’ ‘मैं, मेरा फ़न, मेरा तजर्बा: बशीर बद्र 1962)
इस हिसाब से वे इन्सानियत के लम्बे सफ़र में ग़ज़ल के साथ सारे जहान की खूबसूरती, सारी दुनिया के सुख और दुख और सोच की बुलन्दियाँ पिरोई हुई देखने के आदी हैं। अगर ग़ज़लों में सारी दुनिया के ग़मों को साथ लेकर चलने की सलाहियत नहीं है, तो वे कहते हैं : ‘‘मैं पहला आदमी हूँ, इन्हें ग़ज़ल मानने से इन्कार करता हूँ।’’
ग़ज़ल से अपना जनम-जनम का रिश्ता बताने वाला शायर ग़ज़ल की रूह में किस हद तक इन्सानियत का दर्द, उसकी मुहब्बत, उसकी जद्दोजहद, उसकी ख़्वाहिशात और उसकी हासिलत या नाकामियों की बुलन्दियों को पिरोया हुआ देखना चाहता है, यह बताने की ज़रूरत नहीं रह जाती। ग़ज़ल के एक-एक शेर से उनकी यह चाहत जुड़ी हुई है कि उसे दुनिया के किसी भी हिस्से में पढ़ा जाए, पढ़ने वाले को वह अपनी दास्तान मालूम हो। इस लिहाज़ से डॉ. बशीर बद्र की ग़ज़लें और उनके अशआर कोलकाता और केलीफोर्निया से हज़ारों-हज़ारों मील के फ़ासले के बावजूद एक तरह से अपनाए गए मिलते हैं।
उनके इस इक़बालिया बयान पर मैं कुछ आगे कहूँ, एक वाक़या बयान कर देना चाहता हूँ। हिन्दी के मशहूर अफ़सानानिगार हैं कमलेश्वर साहब। खुद बहुत बड़े सम्पादक रह चुके हैं, मीडिया की मानी हुई हस्ती हैं। उनसे एक इन्टरव्यू के दौरान किसी ने पूछ लिया कि हुजूर, आपकी बातचीत हमें इतना पीछे ले जाने को विवश करती है कि मन होता है, आपसे पूछूँ की आपकी उम्र क्या है ?
कमलेश्वर जी ने छूटते ही कहा: ‘मेरी उम्र है पाँच हज़ार पचपन साल।’
सवाल पूछने वाला चकरा गया: सो कैसे ?
‘‘वह ऐसे कि पाँच हज़ार साल की मेरी सभ्यता और पचपन साल का उसमें मेरा ज़ाती तजुर्बा जुड़ गया, और इस तरह मेरी सच्ची उम्र हो गई पाँच हज़ार पचपन साल।’’ उन्होंने कहा।
बशीर बद्र अपने आपको उसी तरह ग़ज़ल की लम्बी परम्परा से जोड़कर चलने में यक़ीन करते हैं। इस एतबार से वे अपने आपको आर्य, द्रविड़, अरबी, ईरानी और मंगोली रवायतों का नुमाइन्दा मानते हैं।
...और आज वे जहाँ अपने को देखते हैं वहाँ अदब, कल्चर और तहज़ीब को पूरब और पश्चिम में भले बँटा हुआ देखा जाता है लेकिन उनके हिसाब से वे एक दूसरे से अलग नहीं हैं। उनमें यक्सानियत है। उनकी ग़ज़लों का जब समग्र संकलन छपा तो उसका नाम उन्होंने रखा ‘कल्चर यक्सां’। उनके लिए ‘‘आज की दुनिया इंसानियत का एक तनावर दरख़्त है, जिसमें हज़ारों छोटी-बड़ी शाखें हैं। हर शाख़ गोया एक मुल्क है। मेरा वतन भी उस तनावर दरख़्त (दुनिया) की एक सरसब्ज़ और दिलकशतरीन झूमती शाख़ है जो मुझे अज़ीज़तर है। लेकिन मुझे और शाखों और पत्ते-पत्ते से मुहब्बत है।...और जो मेरे वतन और मेरी दुनिया का दुश्मन है, वह मेरा और इंसानियत का दुश्मन है।’’ ‘मैं, मेरा फ़न, मेरा तजर्बा: बशीर बद्र 1962)
इस हिसाब से वे इन्सानियत के लम्बे सफ़र में ग़ज़ल के साथ सारे जहान की खूबसूरती, सारी दुनिया के सुख और दुख और सोच की बुलन्दियाँ पिरोई हुई देखने के आदी हैं। अगर ग़ज़लों में सारी दुनिया के ग़मों को साथ लेकर चलने की सलाहियत नहीं है, तो वे कहते हैं : ‘‘मैं पहला आदमी हूँ, इन्हें ग़ज़ल मानने से इन्कार करता हूँ।’’
ग़ज़ल से अपना जनम-जनम का रिश्ता बताने वाला शायर ग़ज़ल की रूह में किस हद तक इन्सानियत का दर्द, उसकी मुहब्बत, उसकी जद्दोजहद, उसकी ख़्वाहिशात और उसकी हासिलत या नाकामियों की बुलन्दियों को पिरोया हुआ देखना चाहता है, यह बताने की ज़रूरत नहीं रह जाती। ग़ज़ल के एक-एक शेर से उनकी यह चाहत जुड़ी हुई है कि उसे दुनिया के किसी भी हिस्से में पढ़ा जाए, पढ़ने वाले को वह अपनी दास्तान मालूम हो। इस लिहाज़ से डॉ. बशीर बद्र की ग़ज़लें और उनके अशआर कोलकाता और केलीफोर्निया से हज़ारों-हज़ारों मील के फ़ासले के बावजूद एक तरह से अपनाए गए मिलते हैं।
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो।
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए।
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए।
उनका यह शेर दुनिया के हर कोने में पहुँचा
हुआ है। कई बार तो लोगों को यह
नहीं मालूम होता कि यह शेर बशीर बद्र साहब का लिखा हुआ है मगर उसे लोग
उद्धत करते पाए जाते हैं। यही नहीं, उनके सैकड़ों अशआर इसी तरह लोगों की
ज़बान पर हैं। कुछ को यहाँ इसलिए पेश कर रहा हूँ ताकि आप साहिबान को खुद
उन्हें पहचानने का सुख मिल सके। इनमें तजुर्बे से निकली नसीहत भी है, एक
आत्मीय संवाद भी।
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक
से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो
. दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिन्दा न हों
. मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी
. दुश्मनी का सफ़र इक क़दम दो कद़म
तुम भी थक जाओगे हम भी थक जाएँगे
. कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यों कोई बेवफ़ा नहीं होता
. जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौंसला नहीं होता
. बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहाँ दरया समन्दर से मिला, दरया नहीं रहता
. हम तो दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
हम जहाँ से जाएँगे, वो रास्ता हो जाएगा
. ज़िन्दगी तूने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो
. दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिन्दा न हों
. मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी
. दुश्मनी का सफ़र इक क़दम दो कद़म
तुम भी थक जाओगे हम भी थक जाएँगे
. कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यों कोई बेवफ़ा नहीं होता
. जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौंसला नहीं होता
. बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहाँ दरया समन्दर से मिला, दरया नहीं रहता
. हम तो दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
हम जहाँ से जाएँगे, वो रास्ता हो जाएगा
. ज़िन्दगी तूने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है
किसी भी शेर को लोकप्रिय होने के लिए जिन
बातों की ज़रूरत होती है, वे सब
इन अशआर में हैं। ज़बान की सहजता, जिन्दगी में रचा-बसा मानी, दिल को छू
सकने वाली संवेदना, बन्दिश की चुस्ती, कहन की लयात्मकता—ये कुछ
तत्व हैं जो उद्धरणीयता और लोकप्रियता का रसायन माने जाते हैं। बोलचाल की
सुगम-सरल भाषा उनके अशआर की लोकप्रियता का सबसे बड़ा आधार है। वे मानते
हैं कि ग़ज़ल की भाषा उन्हीं शब्दों से बनती है जो शब्द हमारी ज़िन्दगी
में घुल-मिल जाते हैं। ‘बशीर बद्र समग्र’ के सम्पादक
बसन्त प्रतापसिंह ने इस बात को सिद्धान्त की सतह पर रखकर कहा कि
‘श्रेष्ठ साहित्य की इमारत समाज में अप्रचलित शब्दों की नींव पर
खड़ी नहीं की जा सकती। कविता की भाषा शब्दकोषों या पुस्तकों-पत्रिकाओं में
दफ़्न न होकर, करोड़ों लोगों की बोलचाल को संगठित करके और उनके साधारण
शब्दों को जीवित और स्पंदनशील रगों को स्पर्श करके ही बन पाती है। यही
कारण है कि आजकल बोलचाल और साहित्य दोनों में ही संस्कृत, अरबी और फ़ारसी
के क्लिष्ट और बोझिल शब्दों का चलन कम हो रहा है। बशीर बद्र ने ग़ज़ल को
पारम्परिक क्लिष्टता और अपरिचित अरबी-फ़ारसी के बोझ से मुक्त करके जनभाषा
में जन-जन तक पहुँचाने का कार्य किया है। बशीर बद्र इस ज़बान के जादूगर
हैं।’
’ ज़बान की यह जादूगरी भी उन्होंने तजर्बे से हासिल की है। जब वे अरबी-फ़ारसी के घर से निकल कर आए तब उन्हें यह हासिलत हुई की ग़ज़ल को जन-जन तक पहुँचाने के लिए उसे अरबी-फ़ारसी के बोझ से अगर बचाया न गया तो ग़ज़ल किताबों में दबकर रह जाएगी। ‘इकाई’ उनका पहला संकलन था जिसमें बोझिल शब्दों से लदी-फँदी ग़ज़लों की मात्रा खासी थी :
’ ज़बान की यह जादूगरी भी उन्होंने तजर्बे से हासिल की है। जब वे अरबी-फ़ारसी के घर से निकल कर आए तब उन्हें यह हासिलत हुई की ग़ज़ल को जन-जन तक पहुँचाने के लिए उसे अरबी-फ़ारसी के बोझ से अगर बचाया न गया तो ग़ज़ल किताबों में दबकर रह जाएगी। ‘इकाई’ उनका पहला संकलन था जिसमें बोझिल शब्दों से लदी-फँदी ग़ज़लों की मात्रा खासी थी :
वारिसे मुल्के ग़ज़ल रोए तो रो लेने दो
गुस्ले अस्कीं से हुआ करती है तहरीरे-सुख़न।
. ज़ेफ़र्क ताब क़दम एक मौज ए मैनाव
तकल्लुमश कि बजे चाँदनी में सितार।
. जमी है देर से कमरे में ग़ीबतों की नशिस्त
फ़जा में गर्द है माहौल में कदूरत है।
. क्या हुआ आज क्यों खैम-ए-जख़्म से
कज़-कुलाहाने-ग़म क्यों निकलने लगे।
गुस्ले अस्कीं से हुआ करती है तहरीरे-सुख़न।
. ज़ेफ़र्क ताब क़दम एक मौज ए मैनाव
तकल्लुमश कि बजे चाँदनी में सितार।
. जमी है देर से कमरे में ग़ीबतों की नशिस्त
फ़जा में गर्द है माहौल में कदूरत है।
. क्या हुआ आज क्यों खैम-ए-जख़्म से
कज़-कुलाहाने-ग़म क्यों निकलने लगे।
यानी बिना लुग़त के पन्ने पलटे किसी मिसरे का
मानी पकड़ पाने में अहम
परेशानी खड़ी हो जाए। लेकिन वे आगे चलकर कौन-सी ज़बान अपनाएँगे, इसके
संकेत ‘इकाई’ से ही मिलने लगे थे जो
‘आमद’ तक आते-आते निखार पा गए। इस सिलसिले में डॉ.
बशीर बद्र का कहा क़ाबिले-ग़ौर है : ‘किताब से ग़ज़ल की ज़बान
नहीं सीखी जा सकती। ग़जल की ज़बान से चुपके-चुपके किताब तकवीयत पाती
है।’’
उन्होंने अपनी बात को और आगे ले जाते हुए ग़जल के फ़न की खूबसूरती को नए बिम्ब दिए हैं। उनका कहना है : ‘‘ग़ज़ल चाँदनी की उँगलियों से फूल की पत्तियों पर शबनम की कहानियाँ लिखने का फ़न है। और ये धूप की आग बनकर पत्थरों पर वक्त की दास्तान लिखती रहती है। ग़ज़ल में कोई लफ़्ज ग़ज़ल का वकार पाए बगैर शामिल नहीं हो सकता। आजकल हिन्दुस्तान में अरबी-फ़ारसी के वही लफ़्ज चलन-बाहर हो रहे हैं जो हमारे नए मिज़ाज का साथ नहीं दे सके और जिसकी जगह दूसरी ज़बानों के अल्फ़ाज़ उर्दू बन रहे हैं।’’
डॉ. बशीर बद्र ने उर्दू ग़ज़ल को दूसरी ज़बानों के अल्फ़ाज़ लेकर सँवारने में अपने समय के तमाम समकालीन शायरों-अदीबों से ज़्यादा महारत हासिल की है। इससे उर्दू ग़ज़ल की लफ़्ज़ियात (शब्दावली) में खासा इज़ाफा हुआ। भले ही बाज़ मुकाम पर उनके इस हुनर ने ग़ज़ल को हुस्न को नुकसान भी पहुँचाया है लेकिन ऐसा कभी-कभी ही हुआ है और जब ऐसा हुआ भी तो वह मुहब्बत के किसी न किसी रंग में सराबोर होकर सामने आया और प्यार की नाज़ुकी और पाकीज़गी के एहसास के बीच ऐसा खो गया जैसे एक नए प्रयोग की काँकरी लहरों के कम्पन का हिस्सा बनकर नज़र की चुभन नहीं बनने पाती। बोलचाल में आमतौर पर प्रचलित अंग्रेज़ी शब्दों को उर्दू ग़ज़ल में लाने का बहुत बड़ा श्रेय डॉ. बशीर बद्र को दिया जाता है। अहतिशाम अख़्तर ने उनके बारे में लिखा है कि ‘बशीर बद्र का बड़ा कारनामा ये है कि उन्होंने अंग्रेज़ी के अल्फ़ाज़ को ग़ज़ल की ज़बान में समोने और ग़ज़ल के मिज़ाज से हमआहंग करने की कोशिश की है। ये बड़ा मुश्किल काम है। अंग्रेज़ी का लफ़्ज ग़ज़ल का शेर हज़ल बन जाता है।’’
डॉ. बशीर बद्र के ऐसे शब्द-प्रयोग ग़ज़ल को हज़ल तो नहीं बनने देते, ग़ज़ल के पूरे परिवेश में वे चाहे भारी भले पड़ जाएँ। कहीं-कहीं ये प्रयोग उन्होंने यथार्थ की ज़मीन को सही-सही पकड़ने के लिए किए हैं। उनका एक शेर है :
उन्होंने अपनी बात को और आगे ले जाते हुए ग़जल के फ़न की खूबसूरती को नए बिम्ब दिए हैं। उनका कहना है : ‘‘ग़ज़ल चाँदनी की उँगलियों से फूल की पत्तियों पर शबनम की कहानियाँ लिखने का फ़न है। और ये धूप की आग बनकर पत्थरों पर वक्त की दास्तान लिखती रहती है। ग़ज़ल में कोई लफ़्ज ग़ज़ल का वकार पाए बगैर शामिल नहीं हो सकता। आजकल हिन्दुस्तान में अरबी-फ़ारसी के वही लफ़्ज चलन-बाहर हो रहे हैं जो हमारे नए मिज़ाज का साथ नहीं दे सके और जिसकी जगह दूसरी ज़बानों के अल्फ़ाज़ उर्दू बन रहे हैं।’’
डॉ. बशीर बद्र ने उर्दू ग़ज़ल को दूसरी ज़बानों के अल्फ़ाज़ लेकर सँवारने में अपने समय के तमाम समकालीन शायरों-अदीबों से ज़्यादा महारत हासिल की है। इससे उर्दू ग़ज़ल की लफ़्ज़ियात (शब्दावली) में खासा इज़ाफा हुआ। भले ही बाज़ मुकाम पर उनके इस हुनर ने ग़ज़ल को हुस्न को नुकसान भी पहुँचाया है लेकिन ऐसा कभी-कभी ही हुआ है और जब ऐसा हुआ भी तो वह मुहब्बत के किसी न किसी रंग में सराबोर होकर सामने आया और प्यार की नाज़ुकी और पाकीज़गी के एहसास के बीच ऐसा खो गया जैसे एक नए प्रयोग की काँकरी लहरों के कम्पन का हिस्सा बनकर नज़र की चुभन नहीं बनने पाती। बोलचाल में आमतौर पर प्रचलित अंग्रेज़ी शब्दों को उर्दू ग़ज़ल में लाने का बहुत बड़ा श्रेय डॉ. बशीर बद्र को दिया जाता है। अहतिशाम अख़्तर ने उनके बारे में लिखा है कि ‘बशीर बद्र का बड़ा कारनामा ये है कि उन्होंने अंग्रेज़ी के अल्फ़ाज़ को ग़ज़ल की ज़बान में समोने और ग़ज़ल के मिज़ाज से हमआहंग करने की कोशिश की है। ये बड़ा मुश्किल काम है। अंग्रेज़ी का लफ़्ज ग़ज़ल का शेर हज़ल बन जाता है।’’
डॉ. बशीर बद्र के ऐसे शब्द-प्रयोग ग़ज़ल को हज़ल तो नहीं बनने देते, ग़ज़ल के पूरे परिवेश में वे चाहे भारी भले पड़ जाएँ। कहीं-कहीं ये प्रयोग उन्होंने यथार्थ की ज़मीन को सही-सही पकड़ने के लिए किए हैं। उनका एक शेर है :
मैं इतना बदमुआश नहीं यानि खुल के बैठ
चुभने लगी है धूप तो स्वेटर उतार दे।
चुभने लगी है धूप तो स्वेटर उतार दे।
आधुनिक नायिका के हावभाव, आचार-व्यवहार और
मनोवृत्ति को उसी के अनुरूप
शब्दावली में पेश किया गया है, भले वह ग़ज़ल का प्रचलित मुहावरा न हो। इसे
ही अहतिशाम अख़्तर ने बशीर बद्र का बड़ा कारनामा बताया है जिसे उर्दू के
मोतबर आलोचक और शायर शारिब रुदौलवी ने और आगे बढ़ाते हुए कहा है कि
‘‘उन्होंने उर्दू शायरी में ऐसे डिक्शन को जन्म दिया
है जो उनका अपना है। उनके छोटे-छोटे लफ़्जों के पीछे एक दुनिया आबाद है
जिसकी दिलकशी देखने से ताल्लुक़ रखती है।’’
डॉ. बशीर बद्र को आज मक़बूलियत का जो मयार हासिल है वह उन्हें बहुत आसानी से नहीं मिला। यह दर्जा आसानी से तो ख़ैर किसे हासिल होता है। मीर हों, ग़ालिब हों, फ़ैज़ हों, हर बड़े शायर को कड़ी आज़माइशों से गुजरना पड़ा है। बशीर बद्र ने भी बड़ी सख़्तियाँ झेली हैं, बड़े सर्दो-गरम मौसम उन पर ग़ुजरे हैं। आज वे अज़ीम शान और धूम से ग़ज़ल की दुनिया के आला मुकाम पर हैं तो इसलिए कि वे जिन्दगी के पेचीदा तजुर्बों को सादगी और पुरकारी के साथ शेर में उतारते हैं। और इस कमाल के साथ उतारते हैं कि दूसरी ज़बानों में ग़ज़ल के लिए जो नयी मुहब्बत और इज्ज़त पैदा हुई है, उसके लिए बशीर बद्र साहब के इस कमाल का श्रेय दिया जाता है। अबुल फ़ैज़ सहर ने तो यहाँ तक कहा है कि ‘‘आलमी सतह पर बशीर बद्र से पहले किसी भी ग़ज़ल को यह मक़बूलियत नहीं मिली। मीरो, ग़ालिब के शेर भी मशहूर हैं लेकिन मैं पूरे एतमाद से कह सकता हूँ कि आलमी पैमाने पर बशीर बद्र की ग़ज़लों के अश्आर से ज़्यादा किसी के शेर मशहूर नहीं हैं। इसकी वजह यह है कि आज के इन्सान की नज़िसयाती मिज़ाज़ की तर्जुमानी जिस आलमी उर्दू के गज़लिया असलूब में की है वह इससे पहले मुमकिन भी नहीं थी। वो इस वक़्त दुनिया में ग़ज़ल के सबसे मशहूर शायर हैं।’’
मुमकिन है कि डॉ. बशीर बद्र के लिए ऐसी तन्हाई तारीफ़ में कुछ ज़ाती झुकाव और ज़ज़्बाती लगाव काम कर रहा हो लेकिन इसमें तो कोई शक़ है ही नहीं कि आलमी ऐतबार से दुनिया के किसी भी कोने में मुशायरा आयोजित हो, उसमें हिन्दुस्तान के शायरों में डॉ. बशीर बद्र को ज़रूर याद किया जाता है। 1999 में जब बशीर बद्र को उर्दू अदब की ख़िदमत के लिए पद्मश्री से अलंकृत किया गया तो दोस्त के नाते मैं बेहद ख़ुश था। हिन्दी कविता के लिए मुझे भी उसी साल पद्मश्री दी गई थी। जब ‘पद्मश्री लेने का समय आया तो समारोह में जनाब बशीर बद्र के दर्शन नहीं हुए। पता चला, वे इस समय मिडिल ईस्ट के किसी मुल्क में मुशायरा पढ़ने गए हुए हैं।
जब मुम्बई के जलसे में मेरी अगली मुलाक़ात हुई तो मुझे देखते ही गले से लिपट गए यह कहते हुए कि अदबी दुनिया में कम से कम राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत होने के लिए हम दोनों एक साथ याद किए जाएँगे। मैंने कहा :‘‘प्यारे भाई, आप तो उस मुबारक़ मौक़े पर भी नदारद रहे। आख़िर क्यों ?’’
उनका जवाब मुख़्तसर मगर मानीख़ेज था: ‘‘क्या करता नन्दन भाई ! बड़ी मुहब्बत से उन लोगों ने महीनों पहले मेरे आने का वादा ले लिया था। उनकी मुहब्बत को कैसे नकारता ! सो राष्टपति भवन नहीं जा सका। लेकन पद्मश्री तो चलकर मेरे घर आ गई, वह मुहब्बत कहाँ से आती !’’
याद रखने की बात है कि डॉ. बशीर बद्र मुहब्बत के शायर माने जाते हैं।
वो मुहब्बत के शायर हैं और उनकी शायरी का एक-एक लफ़्ज इसका गवाह है। मुहब्बत का हर रंग उनकी ग़जलों में मौजूद है। दिखाई देने वाले रंगों में भी और न दिखाई देने वाले रंगों में भी। पक्के तौर पर उनका पैग़ाम-मुहब्बत है जहाँ तक पहुँचे। कुदरत का पत्ता-पत्ता. बूटा-बूटा, धूप का हर टुकड़ा, छाया की हर फाँक उनकी मुहब्बत की रंगतें बिखेरती है। उनकी इन रंगतों में आशिक़ी के बेपनाह ख़ूबसूरत तसव्वुरात हैं खुशबू की तरह महकते हुए, तितलियों की तरह चहकते हुए, बादलों की तरह घिरे हुए, फ़सलों की तरह लहकते हुए, एक से एक बारीक बिम्ब, एक से एक बढ़कर तैरते हुए-से ख़्वाब....!
डॉ. बशीर बद्र को आज मक़बूलियत का जो मयार हासिल है वह उन्हें बहुत आसानी से नहीं मिला। यह दर्जा आसानी से तो ख़ैर किसे हासिल होता है। मीर हों, ग़ालिब हों, फ़ैज़ हों, हर बड़े शायर को कड़ी आज़माइशों से गुजरना पड़ा है। बशीर बद्र ने भी बड़ी सख़्तियाँ झेली हैं, बड़े सर्दो-गरम मौसम उन पर ग़ुजरे हैं। आज वे अज़ीम शान और धूम से ग़ज़ल की दुनिया के आला मुकाम पर हैं तो इसलिए कि वे जिन्दगी के पेचीदा तजुर्बों को सादगी और पुरकारी के साथ शेर में उतारते हैं। और इस कमाल के साथ उतारते हैं कि दूसरी ज़बानों में ग़ज़ल के लिए जो नयी मुहब्बत और इज्ज़त पैदा हुई है, उसके लिए बशीर बद्र साहब के इस कमाल का श्रेय दिया जाता है। अबुल फ़ैज़ सहर ने तो यहाँ तक कहा है कि ‘‘आलमी सतह पर बशीर बद्र से पहले किसी भी ग़ज़ल को यह मक़बूलियत नहीं मिली। मीरो, ग़ालिब के शेर भी मशहूर हैं लेकिन मैं पूरे एतमाद से कह सकता हूँ कि आलमी पैमाने पर बशीर बद्र की ग़ज़लों के अश्आर से ज़्यादा किसी के शेर मशहूर नहीं हैं। इसकी वजह यह है कि आज के इन्सान की नज़िसयाती मिज़ाज़ की तर्जुमानी जिस आलमी उर्दू के गज़लिया असलूब में की है वह इससे पहले मुमकिन भी नहीं थी। वो इस वक़्त दुनिया में ग़ज़ल के सबसे मशहूर शायर हैं।’’
मुमकिन है कि डॉ. बशीर बद्र के लिए ऐसी तन्हाई तारीफ़ में कुछ ज़ाती झुकाव और ज़ज़्बाती लगाव काम कर रहा हो लेकिन इसमें तो कोई शक़ है ही नहीं कि आलमी ऐतबार से दुनिया के किसी भी कोने में मुशायरा आयोजित हो, उसमें हिन्दुस्तान के शायरों में डॉ. बशीर बद्र को ज़रूर याद किया जाता है। 1999 में जब बशीर बद्र को उर्दू अदब की ख़िदमत के लिए पद्मश्री से अलंकृत किया गया तो दोस्त के नाते मैं बेहद ख़ुश था। हिन्दी कविता के लिए मुझे भी उसी साल पद्मश्री दी गई थी। जब ‘पद्मश्री लेने का समय आया तो समारोह में जनाब बशीर बद्र के दर्शन नहीं हुए। पता चला, वे इस समय मिडिल ईस्ट के किसी मुल्क में मुशायरा पढ़ने गए हुए हैं।
जब मुम्बई के जलसे में मेरी अगली मुलाक़ात हुई तो मुझे देखते ही गले से लिपट गए यह कहते हुए कि अदबी दुनिया में कम से कम राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत होने के लिए हम दोनों एक साथ याद किए जाएँगे। मैंने कहा :‘‘प्यारे भाई, आप तो उस मुबारक़ मौक़े पर भी नदारद रहे। आख़िर क्यों ?’’
उनका जवाब मुख़्तसर मगर मानीख़ेज था: ‘‘क्या करता नन्दन भाई ! बड़ी मुहब्बत से उन लोगों ने महीनों पहले मेरे आने का वादा ले लिया था। उनकी मुहब्बत को कैसे नकारता ! सो राष्टपति भवन नहीं जा सका। लेकन पद्मश्री तो चलकर मेरे घर आ गई, वह मुहब्बत कहाँ से आती !’’
याद रखने की बात है कि डॉ. बशीर बद्र मुहब्बत के शायर माने जाते हैं।
वो मुहब्बत के शायर हैं और उनकी शायरी का एक-एक लफ़्ज इसका गवाह है। मुहब्बत का हर रंग उनकी ग़जलों में मौजूद है। दिखाई देने वाले रंगों में भी और न दिखाई देने वाले रंगों में भी। पक्के तौर पर उनका पैग़ाम-मुहब्बत है जहाँ तक पहुँचे। कुदरत का पत्ता-पत्ता. बूटा-बूटा, धूप का हर टुकड़ा, छाया की हर फाँक उनकी मुहब्बत की रंगतें बिखेरती है। उनकी इन रंगतों में आशिक़ी के बेपनाह ख़ूबसूरत तसव्वुरात हैं खुशबू की तरह महकते हुए, तितलियों की तरह चहकते हुए, बादलों की तरह घिरे हुए, फ़सलों की तरह लहकते हुए, एक से एक बारीक बिम्ब, एक से एक बढ़कर तैरते हुए-से ख़्वाब....!
मैं घर से जब चला तो किवाड़ों की ओट में
नर्गिस के फूल चाँद की बाँहों में छुप गए।
नर्गिस के फूल चाँद की बाँहों में छुप गए।
इस शेर को पढ़िए तो लगता है, दाम्पत्य जीवन
के किसी बिम्ब को यथार्थ की
धरती से उठा कर उदात्तता की गोद में बैठा दिया गया है। डॉ. बशीर बद्र अपनी
मुहब्बत के इज़हार में परम्परागत प्रतीकों का इस्तेमाल कम, जिन्दगी के
अनुभवों, रूपकों और प्रतीकों का इस्तेमाल ज़्यादा करते हैं। लेकिन ये
अनुभव, ये बिम्ब समझ में आने वाले बिम्ब होते हैं। दर्द को अन्दर-अन्दर पी
जाने की कैफ़ियत बार-बार शायरों ने बयान की है। डॉ. बशीर बद्र दर्द को
अन्दर-अन्दर पी जाने का जो मंज़र सामने लाते हैं वह उनकी अनोखी सृष्टि है:
अब के आँसू आँखों से दिल में उतरे
रुख बदला दरिया ने कैसा बहने का
रुख बदला दरिया ने कैसा बहने का
अमूमन आँसू अन्दर से बाहर आँख में आता है,
यहाँ आँख से उतर कर दिल की तरफ़ बह जाता है। दिशा बदल गई बहने की।
मुहब्बत की रंगतें जीते हुए वे कभी-कभी उन रंगतों से खेलने भी लगते हैं:
मुहब्बत की रंगतें जीते हुए वे कभी-कभी उन रंगतों से खेलने भी लगते हैं:
बीच बाज़ार में गा रहा था कोई
आओ न मेरी जाँ, चाँदनी चौक में
आओ न मेरी जाँ, चाँदनी चौक में
जो शायर लिखता है :
मुझे देर तक अपनी पलकों पै रख
यहाँ आते-आते ज़माने लगे
यहाँ आते-आते ज़माने लगे
वह अपनी ‘जाँ’ को इस तरह
चाँदनी चौक में आने के लिए
भला आवाज़ देगा ! लेकिन बशीर बद्र अपनी मुहब्बत में चुहलभरी शरारत तक करते
नज़र आते हैं और फिर उसी क्षण इबादत का दर्जा देते नज़र आते हैं :
लोबान में चिंगारी जैसे कोई रख जाए
यों याद तेरी शब भर सीने में सुलगती है
यों याद तेरी शब भर सीने में सुलगती है
जैसे बशीर बद्र ने अपनी शायरी में चुहल से
गुरेज़ नहीं किया, उसी तरह उनके
हमसुख़न और समकालीन अदीबों ने भी उनके साथ चुहलबाज़ी की है। सभी जानते हैं
कि डॉ. बशीर बद्र ने अपनी तनहाई को बहलाने के लिए न सिगरेट का सहारा लिया,
न शराब का। वक़्तगुज़ारी के लिए दूसरे शायरों की बुराई करते भी उन्हें
नहीं पाया जाता। तब फिर वक़्तगुज़ारी करते कैसे हैं ? इस पर ज़वाब निदा
फ़ाजली की टिप्पणी सुन लीजिए: ‘‘वे जहाँ भी मिलते
हैं, अपने नए शेर सुनाते हैं। सुनाने से पहले यही कहते हैं कि भाई, नए शेर
हैं, कोई भूल-चूक हो गई हो तो बता दो, इस्लाह कर दो। लेकिन सुनाने का
अन्दाज़ ऐसा होता है जैसे कह रहे हों: क्यों झक मारते हो—ग़ज़ल
कहना हो तो इस तरह कहा करो।’’
इस तरह की चुटकियों में निदा ने उनके रुमानी अन्दाज़ पर भी दोस्ताना चिकोटी काटी है: ‘‘मिज़ाज से रुमानी हैं लेकिन उनके साथ अभी तक किसी इश्क़ की कहानी मंसूब नहीं हुई। जिस उम्र में इश्क के लिए शरीर ज्यादा जाग्रत होता है, वह शौहर बन कर घर-बार के हो जाते हैं। अब जो भी अच्छा लगता है, उसे बहन बना कर रिश्तों की तहज़ीब निभाते हैं।’’
कभी-कभी उनका श्रोता भी उनसे चुहल कर लेता है। मुम्बई में जब मुझे परिवार-पुरस्कार दिया गया तो कोशिश यह की गई कि किसी बड़े कवि या शायर के हाथों यह पुरस्कार नन्दन जी को अर्पित किया जाए। इसके लिए डॉ. बशीर बद्र को चुना गया। जब उनसे अपना कलाम पेश करने की गुज़ारिश की गई तो एक श्रोता ने शुरू में ही फ़रमाइश कर दी कि ‘‘जिन्दगी तूने मुझे...’’।
उन्होंने वही ग़ज़ल सुनाई, बेहद सराही गई। टूट के तालियाँ मिलीं। हासिले-ग़ज़ल शेर है :
इस तरह की चुटकियों में निदा ने उनके रुमानी अन्दाज़ पर भी दोस्ताना चिकोटी काटी है: ‘‘मिज़ाज से रुमानी हैं लेकिन उनके साथ अभी तक किसी इश्क़ की कहानी मंसूब नहीं हुई। जिस उम्र में इश्क के लिए शरीर ज्यादा जाग्रत होता है, वह शौहर बन कर घर-बार के हो जाते हैं। अब जो भी अच्छा लगता है, उसे बहन बना कर रिश्तों की तहज़ीब निभाते हैं।’’
कभी-कभी उनका श्रोता भी उनसे चुहल कर लेता है। मुम्बई में जब मुझे परिवार-पुरस्कार दिया गया तो कोशिश यह की गई कि किसी बड़े कवि या शायर के हाथों यह पुरस्कार नन्दन जी को अर्पित किया जाए। इसके लिए डॉ. बशीर बद्र को चुना गया। जब उनसे अपना कलाम पेश करने की गुज़ारिश की गई तो एक श्रोता ने शुरू में ही फ़रमाइश कर दी कि ‘‘जिन्दगी तूने मुझे...’’।
उन्होंने वही ग़ज़ल सुनाई, बेहद सराही गई। टूट के तालियाँ मिलीं। हासिले-ग़ज़ल शेर है :
ज़िन्दगी तूने मुझे कब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है
पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है
एक श्रोता ने पीछे से आवाज़ लगाई:
‘‘अपने क़द की
लम्बाई भी तो देखो मियाँ ! माला पहनाने के लिए सीढ़ी लगाने की ज़रूरत
पड़ती है, तब फिर पाँव फैलाने पर सर तो टकराएगा ही।’’
श्रोता की इस फ़ब्ती पर दुबारा बशीर बद्र साहब ने जमकर तालियाँ लूटीं।
इसके बाद उन्होंने इश्क़ के रंग में डूबी अपनी मशबूर ग़ज़ल सुनाई :
यूँ ही बेसबब न फिरा करो,
कोई शाम घर भी रहा करो
कोई शाम घर भी रहा करो
असल में इश्क की बारीकियों के हज़ारहा मंज़र
बशीर बद्र की शायरी में हैं :
कभी पा के तुझको खोना कभी खो के तुझको पाना
ये जनम जनम का रिश्ता तेरे मेरे दरमियाँ हैं
उन्हीं रास्तों ने जिन पर कभी तुम थे साथ मेरे
मुझे रोक-रोक पूछा तेरा हमसफ़र कहाँ है
ये जनम जनम का रिश्ता तेरे मेरे दरमियाँ हैं
उन्हीं रास्तों ने जिन पर कभी तुम थे साथ मेरे
मुझे रोक-रोक पूछा तेरा हमसफ़र कहाँ है
कहीं विसाल की तस्वीरें हैं, कहीं जुदाई के
गिले शिकवे हैं और इनके बीच
कहीं न होने के समय भी होने का अहसास रोशनी बन कर उभरता है जिन्हें कहीं
उन्होंने यादों के उजाले कहा है, कहीं जलती हुई कंदील। शेर
देखें—
तमाम रात चराग़ों में मुस्कुराती थी
वो अब नहीं है मगर उसकी रोशनी हूँ मैं
वो अब नहीं है मगर उसकी रोशनी हूँ मैं
रोशनी के लिए जलने की अनिवार्यता भी उनकी
मुहब्बत की पहचान का रंग
है—
मेरी छत से रात की सेज तक कोई आँसुओं की
लक़ीर है
ज़रा बढ़ के चाँद से पूछना वो उसी तरफ़ से गया न हो
वो फ़िराक़ हो कि विसाल हो तेरी आग महकेगी एक दिन
वो गुलाब बन के खिलेगा क्या जो चराग़ बन के जला न हो
ज़रा बढ़ के चाँद से पूछना वो उसी तरफ़ से गया न हो
वो फ़िराक़ हो कि विसाल हो तेरी आग महकेगी एक दिन
वो गुलाब बन के खिलेगा क्या जो चराग़ बन के जला न हो
इश्क और वफ़ा के ऐसे ही अशआर के बीच वे
जिन्दगी की सही तस्वीर भी दिखाते
चलते हैं। और यह दिखाना जब रूपकों और प्रतीकों के ज़रिए सामने आता है तो
और खूबसूरत हो जाता है—
यही अन्दाज़ है मेरा समन्दर फतह करने का
मेरी काग़ज़ की कश्ती में कई जुगनू भी होते हैं
मेरी काग़ज़ की कश्ती में कई जुगनू भी होते हैं
ज़ाहिर है, तारीकियों के तलातुम में जुगनुओं
से फतहयाबी हासिल नहीं हुआ
करती लेकिन समन्दर जैसी अज़ीम हस्ती को जुगनू से नकारने का हौसला रखना
फतहयाबी की दिशा में बढ़ाया हुआ कदम है।
सांसारिक संघर्षों में ज़िन्दगी के अनुभवों की तल्ख़ी को जब उनके शेर अपनी आँच देते हैं तो तस्वीर यों बनती है—
सांसारिक संघर्षों में ज़िन्दगी के अनुभवों की तल्ख़ी को जब उनके शेर अपनी आँच देते हैं तो तस्वीर यों बनती है—
मेरी निगाह जिधर गई ख़िजाँ ही मिली
न जाने कितने बरस हो गए न देखी बहार
न जाने कितने बरस हो गए न देखी बहार
यहाँ बहार का न देखना मायूसी और हताशा का
पर्याय नहीं है, एक कैफ़ियत भर
है क्योंकि ख़िजाँ से लड़ने का और बहार को वापस ले आने का हौसला नहीं
टूटा। इस हौसले में यह विश्वास जुड़ा हुआ है कि एक दिन वह इबारत लिखूँगा
ज़रूर, जिसे परिस्थितियों ने मिटा दिया है—
एक दिन तुझसे मिलने ज़रूर आऊँगा
जिन्दगी मुझको तेरा पता चाहिए
जिन्दगी मुझको तेरा पता चाहिए
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