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बक-अप चाचा

कृष्णानन्द चौबे

प्रकाशक : कविकुल प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15380
आईएसबीएन :0

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ग़ज़ल संग्रह

चाचा - एक दृष्टि...

कविकुल की दूसरी प्रस्तुति “बक-अप चाचा” आपके हाथों में हैं। "कविकुल के गज़लगो कवि” के बाद “कविकुल' द्वारा किया गया यह एक अनूठा प्रयोग है।

आर्थर कानन डायल के “शर्लक होम्स” या मुंशी प्रेमचन्द के होरी" अथवा जेम्स बाँड की तरह “चाचा” इस संग्रह के नायक हैं, यह तो आप समझ ही गये होंगे। लेकिन इस संकलन के नायक "चाचा' ही क्यों हैं? अगर इस पर गौर करें तो इसका कारण यह है कि चचा गालिब से लेकर चाचा नेहरू और चाचा नेहरू से लेकर चाचा चौधरी तक हिन्दुस्तान में चाचाओं की एक परम्परा चली आ रही है।

आखिर दादा, मामा, बाबा के बजाय “परम्परा” चाचा की ही क्यों चली आ रही है इसके पीछे चाचा की वे विशेषताएँ हैं जो किसी और में नहीं मिलतीं : मसलन-पुत्र को पिता जन्म देता है लेकिन "चाचा" को "भतीजे” पैदा करते हैं। यानी “भतीजों के बिना आदमी “पिता” ही क्या राष्ट्रपिता” तक बन सकता है लेकिन चाचा नहीं हो सकता। जिस प्रकार "पुत्र” पिता की वंश परम्परा को कायम रखकर ही पितृऋण से मुक्त होता है, उसी प्रकार "भतीजे” तब तक चाचा का कर्ज नहीं चुका सकते, जब तक वे स्वयं चाचा न हो जायें।

आप हर किसी को "पिताजी” या “पापा” नहीं कह सकते किन्तु "चाचा" सबको कह सकते हैं।

एक ज़माना वह भी था जब भतीजे चाचाओं को बड़ी श्रद्धा से चचा", "चच्चा" या "चाचा” कहकर बुलाते थे, लेकिन पाश्चात्य सभ्यता के बढ़ते प्रभाव ने धीरे-धीरे चाचा की भारतीयता ख़त्म करके उन्हें अंकल' बना दिया। चाचा की सांस्कृतिक-हत्या का प्रयास करती यह "अँग्रेज़ियत" "कविकुल" के कुछ साहित्यिक भतीजों को बहुत दिनों से अखर रही थी। अतः उन्होंने चाचा की पुनः भारतीयकरण करने के लिये "चाचा” को बक-अप करते हुए यह संग्रह प्रकाशित करने का निर्णय लिया।

चाचा के बारे में इतना सब जान लेने के बाद आपके मन में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि आख़िर चाचा हैं कौन?

तो आइये "चाचा” को आध्यात्मिक दृष्टि से देखें....
हमारे चाची ईश्वर नहीं हैं, मगर स्थूल में वायवीय हैं। गोचर होकर भी अगोचर हैं। साकार होते हुए भी निराकार हैं। वास्तव में चाचा तत्व भी हैं, तथ्य भी हैं। मिथ्या भी हैं, सत्य भी हैं। आदि भी हैं, अंत भी हैं। सांख्य भी हैं, अनन्त भी हैं। संत भी हैं, असन्त भी हैं। विसर्ग भी हैं हलन्तु भी हैं। धारणा भी हैं, ध्यान भी हैं। साधन भी हैं, साध्य भी हैं। साध्य क्या "असाध्य” भी हैं। । चाचा के व्यक्तित्व और अस्तित्व पर चिन्तन करें तो....।

"चाचा नूतन भी हैं, पुरातन भी हैं। नश्वर हैं, सनातन भी हैं। योगी भी हैं, भोगी भी हैं। स्वस्थ हैं तो रोगी भी हैं। रिक्ति हैं तो प्रविष्टि भी हैं। सामान्य भी हैं, विशिष्ट भी हैं। धर्म भी हैं, अधर्म भी हैं। क्रिया भी हैं, कर्म भी हैं। ठण्डे हैं तो गर्म भी हैं। राग हैं, सुराग भी हैं। स्वार्थ हैं, त्याग भी हैं। आसक्ति हैं, वैराग्य भी हैं। सौभाग्य हैं, दुर्भाग्य भी हैं। यानी चाचा व्यष्टि हैं, समष्टि भी हैं। शून्य भी हैं, सृष्टि भी हैं।

अगर साहित्यिक मीमांसा करें तो ....

चाचा छायावाद" के केन्द्र में स्थित रहस्यवाद” हैं। दूसरे शब्दों में चाचा" हर्ष हैं, विषाद भी हैं। मूल हैं, अनुवाद भी हैं। प्रेम हैं, वासना भी हैं। आदेश हैं, प्रार्थना भी हैं। परोक्ष हैं, प्रत्यक्ष भी हैं। बीज भी हैं, वृक्ष भी हैं।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से.....।

चाचा जटिल हैं तो सरल भी हैं। ठोस भी हैं, तरल भी हैं। साधक भी हैं, सिद्धि भी हैं। क्षरण भी हैं, वृद्धि भी हैं। मृदुल हैं, कट भी हैं। मूढ़ हैं. पट भी हैं। भेद हैं, विभेद भी हैं। स्याह भी हें सफेद भी हैं।


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