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पलायन

वैभव कुमार सक्सेना

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15418
आईएसबीएन :978-1-61301-662-6

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गुजरात में कार्यरत एक बिहारी

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आखिर माँ तो माँ होती है माँ की मात्रा में ही मालूम होता है जैसे कोई बच्चा किसी ममता की गोद में बैठा हो। अमरकांत ने दीवाली पर तो माँ को समझा लिया था अब और नहीं समझा सकता था।

माह था दिसंबर का। अमरकांत छुट्टी की बात करने साहब के पास पहुँचा।

अमरकांत ने हठ करते हुए कहा- "हमें तो दिसंबर के आखिरी सप्ताह में ही छुट्टियां चाहिए।"

साहब ने बोला- "नहीं भाई में तो छुट्टियां बिल्कुल नहीं दे सकता कंपनी में बहुत सारा काम है। कौन देखेगा?”

अमरकांत ने शांत स्वर में कहा- "सर मैं ही अकेला तो छुट्टी ले रहा हूँ बाकी सब साथी लोग तो हैं, देख लेंगे।"

साहब तुरंत बोले- "नहीं नहीं, विवेक और नवनीत भी तो छुट्टी पर हैं तुम्हें छुट्टी कैसे दे सकता हूँ. तुम जनवरी में ले लेना।"

अमरकांत का मन जहन उठा और बोला- "नहीं नहीं ! सर जब जरूरत होती है तभी तो लूंगा जनवरी में मुझे नहीं चाहिए। मुझे दिसंबर में ही चाहिये। आपने त्योहारों पर भी मुझे छुट्टियां नहीं दीं। यह दिवाली मैंने अहमदाबाद में ही मनाई और आपने नवनीत विवेक को दे दी थी।"

साहब इठलाते हुए बोले- "अरे उनका परिवार है, बीबी है, बच्चे हैं उनके साथ दिवाली मनाने दो। तुम्हारी तो अभी शादी भी नहीं हुई तुम्हारी शादी हो जायेगी तो तुम्हें भी दे देंगे।"

अमरकांत ने निर्मल शब्दों में कहा – "साहब! मेरी शादी नहीं हुई तो क्या हुआ, मैं भी तो किसी का बेटा हूँ, मेरे भी तो माँ-बाप हैं। पिछले तीन वर्षों से मैंने दिवाली घर पर नहीं मनाई। मेरी माँ हर बार इस बात का दुख करती है।"

साहब बोले- "ठीक है ! अभी तो मैं कोई छुट्टी नहीं दे सकता बाकी तुम्हारी मर्जी। मुझे बहुत काम है, तुम जा सकते हो।"

अमरकांत निराश मन लेकर गुस्से में साहब के दफ्तर से बाहर आया। एक पल मन में वापस मुड़ने का ख्याल आया क्यों न साहब को बोल दूँ ठीक है जनवरी में चला जाऊंगा। वहीं दूसरे पल ख्याल आता है कि मेरे पिताजी ठहरे सरकारी स्कूल के मास्टर उनको जब सरकार छुट्टी देगी तभी लेंगे वरना वो तो जनवरी को छुट्टी कतई न लेंगे और उनके आदर्शों के बीच में भला मैं कैसे आ सकता हूँ और सरकार तो ठहरी नहीं जो दिसंबर की छुट्टियों को जनवरी में कर दे।

अमरकांत छुट्टियां लेकर पिताजी के साथ घूमने जाना चाहता था। अमरकांत अच्छी तरह जानता था बिना पिताजी के घूमने में न माँ का मन लगेगा न भाई का और न मेरा।

अमरकांत के मन में कई तरह के विचार आ रहे थे। क्यों ना वह पिताजी की सलाह पर सरकारी नौकरी ही कर लेता? प्राइवेट सेक्टर में तो छुट्टियों को लेकर बड़ा रोना है। जैसे हम बंदी हों किसी सिस्टम के, विचार करते-करते अमरकांत नवनीत के पास पहुँचता है।

 

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