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श्रद्धा सुमन बराए-कर्बला

अंसार कम्बरी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1021
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15423
आईएसबीएन :9781613016961

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प्रस्तुत संकलन में नौहा, सलाम, नात, कत्आ, दोहा और नज्म के माध्यम से मौला को श्रद्धा-सुमन अर्पित किये हैं

Shraddha Suman Brae-Karbala - Gazals by Ansar Qumbari

श्रद्धा सुमन बराए-कर्बला

बिस्मिल्लाह से 'कम्बरी', करता शुरू कलाम।
पढ़ियेगा दिल थाम कर, नौहा और सलाम।।
- श्रद्धा सुमन बराए-कर्बला


अनुक्रम
1 अनुरोध
2. खुल्द में हम बतायें क्या होगा
3. किसे बतलायें क्या-क्या आँसुओं को हम समझते हैं
4. पलक पे करए-शबनम हुसैन तेरा है
5. दर्द की दास्ताँ सुनायेंगे
6. महफूज़ रहा दी का आईना नहीं दरका
7. अलम-ओ-ताजिये जिस-जिस के घर में रहते हैं
8. अगर दिल में अली का वास होगा
9. ताबे-नज़र न थी रुने-जेबा को देख कर
10. बज़्मे-आलम पुर जिया है और पुर अनवार है
11. शाह के गम में ज़रा अश्क बहा कर देखो
12. अली के लाल का मातम जो आज घर-घर है
13. सिब्ते-नबी की गोद में जाने-रबाब है
14. आज भी है गमे-शब्बीर का मेआर बुलन्द
15. अंसार' की है धारे-सना काट रही है
16. खंजर के तले होता है मसरूफे-दुआ कौन
17. ऐ मेहदिये दी तेरी आमद प ये सामाँ है
18. तेरा ज़िक्र हक का कलाम है
19. अज़ल से लेके अबद तक जो लाजवाब हुआ
20. शह की मज़लूमी पे जो अश्क बहा देते हैं
21. खुदाई है जहाँ तक और ये आलम जहाँ तक है
22. घर-घर में जो सजे हैं मश्को-अलम अज़ा के
23. हर एक दिल में तड़प है, हर आँख पुरनम है
24. बताओं दिल से कि फरमाने-मुस्तफा क्या है
25. ये जज्बे विला है मेरा ये उसका असर है
26. ये हसन की बज़्म है बैठो अदब से आन कर
27. महक रही है फिज़ा इसलिए ज़माने की
28. मुस्तफा को क्या बतायें क्या थे क्या देखा किए
29. है रेत का समन्दर, तश्नालों का लशकर
30. कासिम का गम मनाओं एक रात का दूल्हा है
31. किसी नबी के लिए है न अम्बिया के लिए
32. जो कुछ भी है 'अंसार' में सब है अताए मुस्तफा
33. खिली है गुलशने इस्लाम में कलियाँ जो वहदत की
34. दोस्तों कुआन समझो आल के किरदार से
35. आज होगी खूब बारिश बज़्म में अश्आर की
36. दुनिया में आज तक ये कहाँ फैसला हुआ
37. पुले-सिरात पे हम यूँ कदम जमा के चले
38. एक है दीवान, इक दीवान का उनवान है
39. है ज़ात तेरी मरकजे कुआन आज तक
40. काम ही ऐसा कर गया है हुसैन
41. खुलता हुआ इक इल्म का दर देख रहे हैं
42. ए कम नज़रो शक न करो इसमें ज़रा भी
43. जिक्र महफ़िल में करो अब शाह की हमशीर का
44. अस्सलाम ऐ सैयदा, ऐ फात्मा बिन्ते रसूल
45. मिसरे की है रदीफ़ जो इस बार ठहर कर
46. आज भी देख लो मेआरे-वफा है अब्बास
47. जो चाँद की ठंडक है सूरज की हरारत है
48. फात्मा की दुआ
49. काबे में इमामत है
50. ज़िन्दाबाद ऐ मेरे हुसैन
51. जहाँ में आए हसन हसन
52. मेरे मोहम्मद
53. अलविदा
54. कत्आत
55. दोहे
56. मुनाजात

अनुरोध

मुहिब्बाने-मोहम्मद व आले-मोहम्मद के इसरार पर मैं अहलेबैत की शान में कहे कलाम का दूसरा संस्करण कुछ इज़ाफे के साथ आप के सम्मुख प्रस्तुत करते हुये संतोष का अनुभव कर रहा हूँ। मैंने अपने कलाम में हिन्दी का प्रयोग फ़राग़दिली के साथ किया है तथा मैंने इसे हिन्दी भाषा लिपि में इसलिये प्रकाशित करवाया है ताकि हमारी नई पीढ़ी इससे फायदा उठा सके

और इसको ज़्यादा-से-ज्यादा पढ़ा जा सके 'कौले-मौला भी है कि 'समय के साथ नहीं चलने वाला हलाक हो जाता है इसीलिये समय की माँग को देखते हुये मैंने ऐसा किया। आप जानते ही हैं कि दौरे-हाज़िर में हमारे नौजवान उर्दू से ज़्यादा हिन्दी जानते हैं बल्कि यूँ कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ज़्यादातर नौजवान उर्दू जानते ही नहीं। मैं कोई कोहनामश्क या उस्ताद शाइर नहीं हूँ। बुजुर्गों की सोहबत ने मुझे इसका सलीका सिखाया। यूँ तो बचपन से ही घर का माहौल शाइराना होने के कारण मैं मातमी अंजुमनों में नौहाखानी करता रहा और मेरे वालिदे-माजिद भी नौहा-सलाम आदि कहा करते थे और मजालिस भी पढ़ा करते थे। वालिदे-माजिद के अलावा मैं इन दो महानुभावों का नाम ज़रूर लेना चाहूँगा - पहले स्व अबरार लखनवी जिनको मैंने अपना उस्ताद माना और दूसरे स्व.मुजफ्फरूल इकराम 'शबाब कम्बरी' जो एक जूदगो शाइर थे और अपनी शाइरी में हिन्दी का खुलकर प्रयोग करते थे। अक्सर उनसे भी मैं मश्वरा ले लिया करता था। उन्होंने ही मेरा नाम 'अंसार रिज़वी' की जगह 'अंसार कम्बरी' रखते हुये कहा था कि हज़रते-कम्बर के नाम की बर्कत से तुम्हारा नाम भी रौशन हो जायेगा। मैंने ऐसा ही किया और नतीजा आपके सामने है। अनुरोध है कि आप इन दोनों महानुभावों के लिये एक सूर्य-फात्हा पढ़ कर बक्शने की कृपा करें। इन्हीं के साथ एक और मेरे दोस्त हैं वफ़ा रुदौलवी जिन्होंने मेरे इस संकलन के प्रकाशन में मेरी मदद की, उनका भी शुक्रगुजार हूँ। हिन्दी से लगाव का फायदा भी हुआ कि मुझे भाई राजेन्द्र तिवारी, सत्य प्रकाश शर्मा, रंजन अधीर और लालमन 'आज़ाद' कानपुरी ऐसे शाइरे-अहलेबैत मिले जो मजालिस और महाफिल में बराबर हिस्सा लेते हैं और मोहम्मद और आले मोहम्मद की शान में अश्आर पढ़ते हैं इन्हीं के साथ भाई विनोद दीक्षित जी भी मुझसे जुड़े जो पेशे से वकील हैं और नगर के प्रतिष्ठित कवि स्व. देहाती जी के पौत्र हैं। यह हिन्दी छंद विधा में महारत रखते हैं तथा अहलेबैत की शान में छंद कहते हैं और खूब सराहे जाते हैं। इन लोगों की सोहबत से मुझे भी हिन्दी शाइरी की बारीकियों की मालूमात में इज़ाफ़ा हुआ। इसके लिये मैं इनका आभारी हूँ। कर्बला की त्रासदी ने सभी को प्रभावित किया है और हर इंसानी दिल को अपनी ओर आकर्शित किया है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि जहाँ इंसान है वहाँ कर्बला है।

इसीलिये इन मित्रों की पंक्तियाँ उद्धृत करने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा हूँ -

आलिम न सही हम कोई जाहिल तो नहीं हैं
हाँ ! जंग से बचते हैं प बुज़दिल तो नहीं हैं
हिन्दू हैं मगर शह के अज़ादार हैं हम भी
हम कुछ भी हों शब्बीर के कातिल तो नहीं हैं
- राजेन्द्र तिवारी


ये आँसुओं के मोती हैं बेकार नहीं हैं
ये मेरा अक़ीदा है ये अश्आर नहीं हैं
जिसको 'प्रकाश' चाहिये ले जाये अली से
ये इल्म का दरवाज़ा हैं दीवार नहीं हैं
- सत्य प्रकाश शर्मा


कहती है दुनिया काफ़िर इंसान तो हूँ मैं भी
इंसानियत की कीमत मौला ही जानते हैं
हम चल रहे हैं उनके नक्शे-कदम पे 'रंजन'
दोज़क मिले या जन्नत मौला ही जानते हैं
- रंजन अधीर


हम क्या बताये तुमसे फजीलत हुसैन की
कुर्आन कर रहा है तिलावत हुसैन की
कर्बोबला में सब्र का वो इम्तेहाँ हुआ
अइयूब देखते रहे सूरत हुसैन की
- लालमन 'आज़ाद"


छन्द

 

सब्र से शहादत से दी शिकस्त ज़ालिम को,
ऐसे शूरवीर श्री हुसैन को प्रणाम है।
घर परिवार जान, दीन पर निछावर की,
ऐसे दानवीर श्री हुसैन को प्रणाम है।।
आदर सनेह श्रद्धा स्वयं ही जुड़ी जहाँ,
ऐसे कर्मवीर श्री हुसैन को प्रणाम है।
त्याग बलिदान था लासानी, नहीं सानी कोई,
ऐसे श्री शब्बीर श्री हुसैन को प्रणाम है।।

कर्बला में दीन की बचाली नाव डूबने से,
दीं के नाखुदा हैं पतवार हैं हुसैन जी।
मुस्कुरा के नन्हें से शहीद ने बता दिया कि,
प्यासे हैं परन्तु पानीदार हैं हुसैन जी।।
सर को कटाके बोटी-बोटी काटी बैयत की,
जुल्फिकार जैसी तेज़ धार हैं हुसैन जी।
हश्र की अदालत में छंद ये गवाही देंगे,
हम भी तुम्हारे पैरोकार हैं हुसैन जी।।
- विनोद दीक्षित

मेरी ज़िन्दगी का सबसे काला दिन 26 सितम्बर, 2006 रहा। जिसमें मेरी 18 वर्षीय फूल सी प्यारी बेटी जैनब फात्मा का आकस्मिक निधन हुआ और मेरी दुनिया अंधेरी हो गई। दिल के साथ-साथ मैं भी टूट सा गया, साथ ही मेरी अहलिया माहबानो व बेटे मो. अली हैदर रिज़वी का भी यही हाल हुआ। लेकिन गमे-हुसैने-मज़लूमे-कर्बला से सहारा मिला और मेरी अंधेरी ज़िन्दगी को उजाला मिला। यह पुस्तक उसी मरहूमा के ईसाल के लिये है और वालिदे-माजिद मरहूम ज़व्वार हुसैन रिज़वी व मादरे-गिरामी मरहूमा अनवर आरा बेगम एवं छोटे भाई मरहूम रहमान हुसैन रिज़वी को पेशे-ख़िदमत है। उसी दौरान एक और दुखद घटना हुई कि मेरे बहुत अज़ीज़ दोस्त या यूँ कहूँ कि छोटे भाई डॉ. सैयद अहमद मेहदी जाफ़री का भी मेरी बेटी के निधन के दो दिन बाद इन्तेकाल हो गया। मेहदी प्रत्येक वर्ष मेरे घर मजलिस पढ़ते थे जिसका एहत्माम मेरी बेटी किया करती थी। इस सिलसिले में मैंने चार मिसरे कहे थे जो हाज़िरे-खिदमत हैं -

बेटी हमारी करती थी मजलिस का एहत्माम
जिक्रे हुसैन करते थे मेहदी-ए-खुश कलाम
बेटी को फात्मा ने कनीज़ी में ले लिया
मेहदी को ज़ाकिरी के लिये ले गये इमाम

बेटी के चालीसवें की मजलिस में हमारे अजीज दोस्त उस्ताद शायर जनाब ताहिर नज़ीर कानपुरी साहब ने कुछ इस तरह ईसाल के लिये इज़हारे ख़याल किया :

तेरी जाने-अंसार रेहलत हुई है
दिले कम्बरी पर कयामत हुई है
इलाही ये कैसी मुसीबत हुई है
पिदर से जुदा जाने-राहत हुई है
पहनना था जिसको लिबासे उरूसी
कफ़न में लिपट कर वह रुख़सत हुई है
अचानक वह मरना तेरा कमसिनी में
सुना जिसने उसको अज़ीयत हुई है
वह मासूम चेहरा, वह मासूम सूरत
ग़ज़ब है ग़ज़ब ज़ेरे-तुर्बत हुई है
कनीज़े-सकीना बनी खुल्द में वह
यही सोच कर दिल को राहत हुई है
सकीना की रेहलत को हम याद कर लें
यही सब्र की एक सूरत हुई है
खुदा सब्र दे तेरी माँ और पिदर को
सुपुर्दे-ज़मीं उनकी मेहनत हुई है
फकत घर ही बदला है 'जैनब' ने 'ताहिर'
वह रहमत थी मंसूब-रहमत हुई है

प्रस्तुत संकलन में नौहा, सलाम, नात, कत्आ, दोहा और नज्म के माध्यम से मौला को श्रद्धा-सुमन अर्पित किये हैं। दुआ करें कि मौला इस हकीर से नज़राने को कुबूलियत का शरफ़ बक्शें और आख़िरत में मेरी बशिश का सहारा बनें। आमीन !


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