नई पुस्तकें >> काव्यगंधा (कुण्डलिया संग्रह) काव्यगंधा (कुण्डलिया संग्रह)त्रिलोक सिंह ठकुरेला
|
0 5 पाठक हैं |
कविवर गिरधर जी की कुण्डलिया परम्परा में...
गूगल बुक्स में प्रिव्यू के लिए क्लिक करें
त्रिलोक सिंह ठकुरेला कुण्डलिया छंद के सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। इन्होंने कुण्डलिया छंद की अनेक पुस्तकों का सम्पादन किया है। इस विधा को पुनर्स्थापित करने में इनका अप्रतिम योगदान रहा है। शाश्वत एवं नैतिक मूल्यों के साथ साथ समकालीन विषयों को रेखांकित करती इनकी कुण्डलियां पाठक को विशिष्ट रूप से प्रभावित करती हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह संग्रह साहित्य प्रेमियों एवं छंदानुरागी पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।
रत्नाकर सबके लिये, होता एक समान।
बुद्धिमान मोती चुने, सीप चुने नादान।।
सीप चुने नादान, अज्ञ मूंगे पर मरता।
जिसकी जैसी चाह, इकट्ठा वैसा करता।
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी खुश इच्छित पाकर।
हैं मनुष्य के भेद, एक सा है रत्नाकर।।
तिनका तिनका जोड़कर, बन जाता है नीड़।
अगर मिले नेतृत्व तो, ताकत बनती भीड़ ।।
ताकत बनती भीड़, नये इतिहास रचाती।
जग को दिया प्रकाश, मिले जब दीपक, बाती।
‘ठकुरेला’ कविराय, ध्येय सुन्दर हो जिनका।
रचते श्रेष्ठ विधान, मिले सोना या तिनका।
बोता खुद ही आदमी, सुख या दुख के बीज।
मान और अपमान का, लटकाता ताबीज ।।
लटकाता ताबीज, बहुत कुछ अपने कर में।
स्वर्ग नर्क निर्माण, स्वयं कर लेता घर में।
‘ठकुरेला’ कविराय, न सब कुछ यूं ही होता।
बोता स्वयं बबूल, आम भी खुद ही बोता।।
थोथी बातों से कभी, जीते गये न युद्ध।
कथनी पर कम ध्यान दे, करनी करते बुद्ध।।
करनी करते बुद्ध, नया इतिहास रचाते।
करते नित नव खोज, अमर जग में हो जाते।
‘ठकुरेला’ कविराय, सिखाती सारी पोथी।
ज्यों ऊसर में बीज, वृथा हैं बातें थोथी।।
|
- आत्म निवेदन
- जीवन की आस्तिकता को रेखायित करते
- भाव एवं शिल्प सौन्दर्य का अनूठा उपवन
- शाश्वत
- हिन्दी
- गंगा
- होली
- राखी
- सावन
- विविध