लोगों की राय

कहानी संग्रह >> क्षमा

क्षमा

सुकुल लोमश

प्रकाशक : ज्ञान गंगा प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1564
आईएसबीएन :81-88139-19-x

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

191 पाठक हैं

प्रस्तुत है मनुष्य के छुये-अनछुये प्रसंगों पर आधारित कहानियाँ..

Kshama

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत कहानी संग्रह में लेखक ने मनुष्य-जीवन के अनेक छुए-अनछुए प्रसंगों का जीवंत वर्णन किया है, साथ ही उन वास्तविकताओं का भी जो हमारे दैनंदिन जीवन में दृष्टिगत तो होती हैं, किन्तु जिन्हें हम यो ही ओझल हो जाने देते हैं।

अपनी बात


कहानी लिखने की प्रेरणा मुझे कहानी सुनने से मिली। संयुक्त परिवार बिखर रहे हैं, अतः बच्चे दादी-बाबा के पास बस छुट्टियों में ही जा पाते हैं। अगर उसी शहर में रहते हों तो यह भी नसीब नहीं होता। अतः कहानियाँ उनको कौन सुनाएगा। और भी कारण हैं। आजकल सबके पास समय की बड़ी कमी है। दादा-बाबा सेवानिवृति के बाद भी काम में लगे हैं। सच कहा जाए तो अब सेवानिवृत्ति जैसा कुछ भी नहीं है। महानगरों का हाल तो पूछिए ही मत। बाकी जगह भी दूरदर्शन के दृश्य एवं श्रव्य माध्यम के आगे लिखना-पढ़ना वैसे अब भी कम हो रहा है। साथ में समय मिला तो नाती-पोतों के साथ दादी-दादा भी दूरदर्शन देखना अधिक पसंद करते हैं।

इतना सब होने के बावजूद मुझे यह विश्वास है कि कहानियाँ पढ़ने का सुख एक बिलकुल अलग तरह का होता है। उसमें चरित्रों के साथ लेखक की अपनी कल्पना, संवेदना और उसके अनुभव कहानियों में समाए रहते हैं, जिससे प्रबुद्ध पाठक वर्ग को भी नया दृष्टिकोण जानने और खोजने का मौका मिलता है। कहा भी गया है कि पुस्तकों से अच्छा कोई साथी नहीं है। वह अगर कहानी की किताब हो तो कहने ही क्या हैं !

वैसे तो मैं पहले भी लिखता रहा हूँ। कुछ पत्रिकाओं में भी लिखा। अपने कॉलेज की पत्रिका में तो खूब लिखा। भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स, भोपाल से छपने वाली ‘मेल भारती’ ने भी मेरी रचनाओं को स्थान दिया परंतु कहानी संग्रह के नाम पर यह मेरा पहला प्रयास है। मेरी कहानियाँ समाज से उभरकर आई हैं। मुझे समाज में जीने लायक मेरे पिता श्री रमाकांत शुक्ल और माँ श्री कमला शुक्ल ने बनाया। यह कहानी-संग्रह लिखने की प्रेरणा मुझे मिली मेरे बच्चों से—यानी कुल्ली और मनाली से, ये दोनों अब भी कहानियाँ सुनते हैं, मुझसे, हालाँकि काफी बड़े हो गए हैं। सोते वक्त कहानी सुनना इन्हें बड़ा अच्छा लगता है।

मेरी पत्नी वीना शुक्ला के सहयोग के बिना तो इस कहानी-संग्रह का एक पन्ना भी नहीं लिखा जा सकता था, जिन्होंने सिर्फ अपने लिए सुनिश्चित मेरे समय से काफी समय मुझे देकर इसकी संरचना को संभव किया है। वह मेरी सबसे समीप बसी आलोचक हैं, जिसके लिए मैं अपने आपको अत्यंत भाग्यशाली समझता हूँ।

-सुकुल लोमश

इस्तीफा


कलकत्ता के बारे में तो सभी जानते हैं। यहाँ एक-से एक घूमने के अच्छे स्थल हैं। मैं जब वहाँ रहता था तो हमारा घर एमहर्स्ट स्ट्रीट पर था। बगल में ही चोर बागान था। शाम को वहाँ बहुत रौनक रहती थी। आज शायद इस स्थानों के नाम बदल गए हैं, पर उस समय शायद सन् ’60 के आस-पास, इन जगहों के यही नाम थे। पास ही कॉलेज स्ट्रीट थी। वहाँ पर लड़के-लड़कियों के ग्रुप सड़कों पर खड़े होकर बतियाते रहते थे। यहाँ कि सड़कें रोज धुलती थीं। सड़के के दोनों ओर हुगली नदी के पानी के पाइप लगे थे। उनमें लंबे-लंबे पाइप लगाकर सवेरे सड़क की धुलाई होती थी। मुझे उन धुली सड़कों पर चलने में बड़ा अच्छा लगता था और मैं अकसर एमहर्स्ट स्ट्रीट से स्यालदा तक पैदल ही जाता था। इसकी एक आदत सी बन गई थी। आदत क्या, मजबूरी कह लीजिए। एक तो पास में पैसे नहीं रहते थे, दूसरे, ट्राम में बैठने से चक्कर बहुत आता था। कलकत्ते में वैसे भी सड़कों पर धुआँ बहुत होता था। धुएँ गुबार उड़ाती गाड़ियाँ फर्र-फर्र यहाँ से वहाँ भागती थीं। ट्राम में बैठते ही मुझे लगता कि मानों सड़ों का सारा धुआँ ट्राम में भर आया हो। लिहाजा मजबूरी थी और पैदल ही चलना पड़ता था।

रिक्शे पर बैठना मुझे बहुत खराब लगता था। मन मे बड़ी कोफ्त होती थी। बड़ा अत्याचार लगता था कि आप रिक्शे पर बैठे हों और आप जैसा ही मजबूर कोई आदमी बैल की तरह जुता हुआ आपको रिक्शे पर बिठाकर खींच रहा हो। अंग्रेजों ने यहीं से अपना राज फैलाया था कि यह तो सभी को मालूम है कि वे इसे बड़ी हेय दृष्टि से देखते थे। मुझे लगता है इस तरह की कोई सजा वे शाद देते हों और बाद में यहाँ का हाथरिक्शा बन गया। विश्व में लोग इसके बारे में क्या सोचते होंगे, मुझे नहीं मालूम, पर मुझ बड़ा अमानुषिक कृत्य लगता था। मैं अकसर देखता था कि मोटे-मोटे मारवाड़ी सेठ और सेठानियाँ भी हाथरिक्शों पर बैठकर मजे से चलते थे। खैर, इस काम से वहाँ हजारों लोगों का परिवार पलता था। शायद अब भी वहाँ इस तरह के रिक्शे चलते हों।

मैं कह रहा था, स्यालदा तक पैदल चलने की बात। मैं अकसर सवेरे-शाम पैदल निकल जाता था। रास्ते में बहुत सारे बाजार पड़ते थे। वहाँ बहुत चहल-पहल रहती थी। मेरा एक दोस्त जतिन वहीं रहता था। वह बंगाली ब्राह्मण था बाजार का नाम तो मुझे याद नहीं है, पर मुझे इतना जरूर याद है कि वहाँ गमछे, तौलिए, गंजियाँ और कच्छे इत्यादि मिलते थे। जतिन से मेरी दोस्ती यों ही हो गई थी। मैं जब भी उधर से निकलता, वह मुझे मिल जाता था। हम लोग यहाँ-वहाँ की बात करते, फिर पान खाते, वहाँ एक पान की दूकानवाला बहुत बढ़िया बँगला पान लगाता था। हम लोग पान खाकर बस गपियाते रहते थे।

एक दिन जतिन ने मुझे एक आदमी से मिलवाया। जतिन बोला, ‘‘यह नसीर है। पास ही दूकान लगाता है।’’
मैंने नासिर को देखा। उसकी आँखों में मासूमियत थी। वह नीले रंग का एक तहमत लपेटे था और ऊपर जालीदार बनियान पहने था। वह काफी तगड़ा था। उसके घुँघराले बालों के गुच्छे उसकी गोल टोपी से झाँक रहे थे। वह कोई खास लंबा नहीं था—यही कोई पाँच फीट चार इंच लंबा होगा। उसके होंठ पान से रचे थे और होंठों पर शरारत भरी मुसकान खेल रही थी उसके माथे पर पसीने की बूँदें चमक रही थीं। दुआ-सलाम के बाद नासिर अपने काम से चला गया।
मैंने जतिन से कहा, ‘‘यार, तुम ठेठ बंगाली और यह बिहारी मुसलमान। बड़ी अजीब दोस्ती है।’’
तब जतिन ने मुझे उसका किस्सा बताया, जो कुछ इस तरह था। जतिन ने किस्सा सुनाना शुरू किया, ‘‘एक बार मैं बाजार गया था। वहाँ यह नासिर अपना ठेला लगाए था। मैंने देखा, यह अपने ठेले के पास ही फुटपाथ पर बैठा है। मैंने पास जाकर ठेले से लुंगी उठाई और पूछा, ‘इसके क्या दाम हैं ?’

‘‘उसने तल्खी से मेरी ओर देखा और कहा, ‘माल बिकाऊ नहीं है।’ मुझे बड़ा गुस्सा आया। मुझे लगा, यह आदमी मेरा अपमान कर रहा है। वाहियात आदमी है। मुझे भी जिद हो गई और मैंने फिर पूछा, अरे यार, माल बेचने बैठे हो और कहते हो माल बिकाऊ नहीं है। क्या प्रदर्शनी लगाई है ? एक लुंगी तो मुझे लेनी है।’

‘वह उठा और उसने दोनों हाथ ऊपर बाँधकर अँगड़ाई ली और ठेले पर दोनों हाथ टिकाकर बोला, ‘कौन सी तहमत चाहिए ? ये वाली चालीस रुपये की है।’

‘‘मैं मुसकरा उठा, ‘‘वाह भाई, मेरी गरज है तो दाम दो गुने !’ वह फिर उकड़ू बैठ गया और बोला, ‘अरे, जाइए बाबू ! लेना-वेना कुछ नहीं है, फालतू का मोल-भाव करते है। लेना हो तो एक दाम बीस रुपए। इसके आगे कुछ न कहिएगा। इसमें बस पाँच रुपये मेरे हैं।’ मैंने तहमत उठा लिया और बीस रुपये उसकी ओर बढ़ा दिए। उसने उचककर रुपये ले लिए और अचानक पता नहीं क्या हो गया कि वह आगे की ओर लुढ़का और बेहोश हो गया। मैं एकदम से घबरा गया। उसको उठाने की मैं असफल कोशिश करने लगा। तुमने तो देखा ही है कि वह कितना तगड़ा है। मुझसे तो वह हिल भी नहीं रहा था। बगल के ठेलेवाला तबकरू जोर से चिल्लाया, ‘अरे आजाद ! नासिर को फिर गश आ गया है। लुढ़क गया है। जल्दी से पानी ला।’

‘‘मैंने देखा, करीब पंद्रह वर्ष का एक लड़का दौड़ता हुआ आया। उसके हाथ में एक जग पानी था। उसने आते ही नासिर के सिर पर पूरा पानी उड़ेल दिया। फिर वह नासिर के पैरों की ओर गया और मुझसे बोला, ‘‘जरा हाथ लगाइए। किनारे लिटा दें, नहीं तो यों ही रास्ते में पड़ा रहेगा, और लोगों के पैर लगेंगे।’ हम दोनों ने बड़ी मुश्किल से उसे किनारे किया। मैंने देखा कि वह लड़का आजाद उसके तहमत के फेटे से रुपये निकाल रहा था। उसने लिपटी हुई गड्डी से बीस रुपये निकाल और  बाकी निकालकर उसके खीसे में बिलकुल वैसे ही उसने गड्डी खोंस दी। मैं यह सब चुपचाप देखता रहा। थोड़ी देर बाद मैं आगे बढ़ गया। आजाद भी अपनी दुकान पर चला गया।

‘‘अगले दिन नासिर फिर मुझे वहीं मिला। वह वैसे ही ठेले के पास बैठा था। मैं वहीं जाकर उसके ठेले के पास खड़ा हो गया। उसने धीरे से मेरी ओर आँख उठाकर देखा, फिर एक ओर खिसकता हुआ बोला, ‘‘क्यों बाबू, ! रंग पसंद नहीं आया ?’ मैंने कहा, ‘नहीं भाई, रंग तो खूप पसंद आया, पर तुम कल गश खाकर गिर गए थे, सो हाल-चाल पूछने चला आया।’ वह इशारा करके बड़ी आत्मीयता से बोला, ‘आइए बैठिए।’ मैं वहाँ बैठ गया और मैंने उससे पूछा, ‘‘क्या बात हो गई थी ? तुम तो बिलकुल नीम बेहोश हो गए थे !’

‘‘क्या बताऊँ साहब ! बस सिर में जोर से दर्द उठता है और फिर आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है।’
‘‘यह कब से है तुम्हें ?’
‘‘पहले कम था, पर इधर गरमियों में बढ़ गया है।’
‘‘तुम्हें पता है कि तुम्हारे बेहोश होने पर लोग तुम्हारे पैसे निकाल लेते हैं ?’
उसने आश्चर्य से मेरी ओर देखा, ‘फिर बोला ‘क्या वाकई ? आपने कल देखा था ?’
‘‘मैंने हामी में सिर हिलाकर आजाद की ओर देखा, जो एक ग्रहक पटाने में लगा था। वह समझ गया और बोला, ‘यह आजाद ही सबसे लुच्चा है। आपने न बताकर भी बता दिया है। पर आपके सामने कुछ बोलूँगा तो बात आप पर आएगी।

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai