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वैनिटी बैग

अभिषेक आनन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15644
आईएसबीएन :978-1-61301-690-9

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वर्तमान सामाजिक स्थितियों की ऩई कहानियाँ

 

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आमुख

अब, जब ये किताब आपके हाथों में है और आप इसके आमुख को पढ़कर ये समझने की कोशिश कर रहे हैं कि आखिर पूरी किताब होगी कैसी, तो मेरी मानिये और इसके सारांश को पढ़कर अपना समय ज़ाया मत कीजिये। इस भाग-दौड़ की ज़िन्दगी और मोबाइल के जमाने में बड़ी मुश्किल से अगर एक किताब हाथ लग ही गयी है तो उसे पूरी पढ़ डालिये ना।

हाँ, मगर आप जल्दबाजी में हैं, आपके सामने दो तीन और किताबों के ऑप्शन हैं, आपके पास बस एक किताब खरीदने का बजट है और आप ये डिसायड नहीं कर पा रहे हैं कि कौन सी किताब खरीदूं, तो फिर ये वाला पन्ना आपके काम का है। काम से मेरा मतलब आपके पढ़ने के काम का है। बारिश के मौसम में किसी लड़की को इम्प्रेस करने के चक्कर में इन पन्नों को फाड़ कर इनमें पकौड़ियाँ मत ले जाइएगा।

अच्छा, लड़कियों से याद आया.... कहते हैं लड़कियों और औरतों का बड़ा प्यारा होता है "वैनिटी बैग"।

(वैनिटी बैग .... याद है ना !! इस किताब का टाइटल)।

बड़ा संभाल के रखती हैं वो इसे और जब कभी भी फुर्सत मिले तो एक बार उसे खोलकर इतना जरूर देख लेती हैं, कि कोई सामान घट तो नहीं रहा या खत्म तो नहीं हो गया। सोचिये न, कैसे न हो ये वैनिटी बैग उनका सच्चा साथी !!

कहीं जो बाहर बहुत धूल या धूप भरे सफर से लौट कर आना हुआ तो झट से निकाला फेस वाश और कर लिया चेहरा साफ, मूड और ओकेजन के हिसाब से चूड़ियाँ और कंगन; उनको रिझाना हो वो वाली परफ्यूम, उससे मिलने जाना हो तो ये वाली एअरिंग, इस साड़ी के साथ वो वाली लिपस्टिक और वो वाले दुपट्टे से मैच खाती ये वाली नेल पोलिश।

आँखों को थोड़ा और खूबसूरत बनाना हो तो काजल, बड़ी छोटी अलग-अलग रंग और आकार की बिंदिया और एक कोने में सहेज कर रखी हुई सिन्दूर कि वो डिबिया। एक छोटे से पिटारे में न जाने क्या क्या खजाना छिपाए रखे हुए है ये वैनिटी बैग।

वैसे और भी बहुत कुछ चीजें होती हैं इसके अंदर। जब कभी किसी बात पे बहुत रो लेने से फ़ैल जाए ये आँखों का काजल तो उसे साफ करने के लिए कॉटन भी है इसमें और वो जो नानी या दादी बाहर जाते वक़्त हाथों में पकड़ा दिया करती हैं 10-20 रुपये, वो भी तो जमा हो रहे हैं इसी वैनिटी बैग में।

अरे हाँ, एक सबसे जरूरी चीज तो मैं भूल ही गया। मेकअप करने के बाद कैसी दिखती है वो ये कौन बताएगा सबसे पहले : आइना, हाँ हर वैनिटी बैग में और कोई चीज भले कम पड़ जाए पर हमेशा एक आइना जरूर रहता है, जिसे पता रहता है कि आज मैडम का मूड कैसा है !!

मेरी ये किताब भी तो एक वैनिटी बैग ही है। इसकी किसी कहानी को पढ़कर वैसी ही गुदगुदी महसूस होती है जैसा फेस ब्रश को गालों में फेरते वक़्त होती है। दो तीन कहानियाँ उस पक्के नेल पोलिश की तरह हैं, जिनका रंग एक-दो महीने तक नहीं जाता और एक आध कहानियाँ उन स्पेशल झुमकों की तरह हैं जिन्हें बड़ा सहेज के रखने का मन करे और बड़े ख़ास मौकों पर फिर से पहनने का मन हो।

कोई कहानी थोड़ी लम्बी खिंच गयी है काजल के धार की तरह तो कोई कहानी थोड़ी छोटी रह गयी है ब्रेस्लेट के चैन की तरह। पर हाँ, सब ऐसी कि किसी को बाहर निकालने का मन न करे। एक कहानी तो इतनी प्यारी कि सिन्दूर की डिबिया की तरह और दो कहानी परफ्यूम के फ्लेवर की तरह, जिन्हें बदल-बदल कर पढ़ने का मन करे और भले 6 महीने बाद लगा लो पर वही स्मेल...

अब जब आपसे इतना खुल गया हूँ तो लगे हाथों ये भी बताता चलूँ कि आखिर इस किताब (हाँ, हाँ वही, वैनिटी बैग) की नींव पड़ी कैसे!

मैं ये बोलने से हमेशा कतराता हूँ कि मैंने जो देखा वही लिखा। मेरा मानना है ऐसा कुछ होता ही नहीं है। ये पॉसिबल ही नहीं कि आप जैसा देखें, ठीक वैसा ही कागज पे उतार दें। और मेरा यकीन मानिये, कि अगर कुछ लोग ऐसा कर रहे हैं तो अब राम युग बहुत दूर नहीं। प्रैक्टिकल होइए। अगर आप पूरा का पूरा सच कागज पे उतार देंगे तो अपने अगले किताब की कहानी आप किसी जेल या कचहरी में बैठकर लिख रहे होंगे और जब आप अपनी उस किताब कि पहली कहानी का शीर्षक सोच रहे होंगे ठीक उसी वक़्त कचहरी में आपका नाम पुकारा जा रहा होगा। क्या करियेगा, सच हर जनरेशन और एज में कड़वा ही लगता है। इसे कोई भी आदमी या सोसाइटी डायरेक्टली नहीं घोंट सकता। ऐसे लोगों के सामने सच को थोड़ा फ्लेवर या मसाला लगाकर पेश करना चाहिए। जब पैकेजिंग और ब्रांडिंग अच्छी होगी ना, तो सच सुनने और बर्दास्त करने में भी लोगों को मज़ा आएगा। मेरी हर कहानी वैसे लोगों के लिए कस्टमाइज करके तैयार की गयी है। आप यूँ कह सकते हैं कि मेरी हर कहानी में सच वाले पार्ट को कल्पना और व्यंग्य के साथ कुछ देर के लिए मॅरिनेट किया गया है। जिन्होंने इन कहानियों को पढ़ा है, उनके मुताबिक़ इससे कहानी का ओवर आल बहुत अच्छा फ्लेवर निकलकर आया है।

मेरे साथ बहुत प्रॉब्लम है। मैं इस बात को बोलने में भी बिलकुल यकीन नहीं करता कि 'मैंने वही लिखा जो वक़्त और हालात ने मुझसे लिखवाया'।

मैं जिस कमरे में बैठकर कहानियाँ लिखता हूँ उन कमरों में डेढ़-डेढ़ टन के एसी लगे हुए हैं। अब सोचिये, ऐसे में अगर मैं हालात को देखकर लिखूँ तो हालात बड़े अच्छे हैं; मौसम ठंडा हुआ जा रहा है, किचन में पकौड़े तले जा रहे हैं, अमेजन वाले ने अभी-अभी घर पे एक पार्सल पहुँचाया है और नरम बिस्तर पे नींद बहुत अच्छी आ रही है। फिर, मेरी इन कहानियों में गाँव कि वो लड़की, दीपा और बेटी का वो गरीब बाप कहाँ से आ गया ! सोचने कि बात है ना !! मैं बताता हूँ। वो आया नहीं, उसे लेने जाना पड़ा। मुझे और शायद मुझ जैसे कई लेखकों को अपनी कहानियों के इन पात्रों को ढूंढ़ने के लिए कभी-कभी आसपास से दूर भी जाना पड़ता है। मैं भी जाता रहता हूँ। रिश्तेदारों के घर जाता हूँ, अखबारों और न्यूज चैनलों को पढ़ता और सुनता हूँ, नए-नए लोगों से मिलता हूँ, उन्हें सुनता हूँ और उनमें अपने नए किरदार को ढूँढ़ता हूँ, घटनाओं और दुर्घटनाओं को देखता हूँ, समझता हूँ, बालकनी पे खड़े होकर लड़कियों को, भाभियों को देखता हूँ... ये सब कुछ देखता हूँ और उन्हें देखकर जब घर लौटता हूँ तो उन सारे पात्रों, घटनाओं और घटना क्रमों को सजाने कि कोशिश करता हूँ। अब इसके बाद जो बनकर सामने आता है, उसे आप कहानी कह लें, या व्यंग, या टाइमपास।

एक बात आपको धीरे से बताऊँ, बस अपने तक रखियेगा, मैंने लिखने कि कोई ट्रेनिंग नहीं ली है और ना हीं मैंने किसी लेखक को अपना आदर्श बनाया है। इस मामले में भी मेरी सोच कुछ अलग है। मेरा मानना है कि जब 100 लड़के एक क्लास में बैठकर एक ही गुरु से लिखने की ट्रेनिंग लेंगे तो ये ज़ेरॉक्स मशीन वाली बात हो जायेगी। यानी कि सब के सब एक ही लय और शैली में लिखते और दिखते मिलेंगे।

मुझे ये कॉपी-पेस्ट वाला कांसेप्ट बिलकुल पसंद नहीं। मैं इसका विरोधी भी हूँ, तीखी आलोचना भी करता हूँ और अगर आप जोड़ देंगे तो कड़ी निंदा भी करता हूँ। तो ऐसा है कि मुझे जो समझ आया मैं उसे तोड़ मरोड़ कर लिखता गया। मेरे घर में वैसे सब लोग पढ़े लिखे हैं पर किताबें पढ़ने का शौक़ बस माँ को है। तो जो मैंने लिखा उसे माँ से भी पढ़वा लिया। अच्छा, ये जो माँ लोग होती हैं ना, वो बड़ी ज़िद्दी टाइप की होती हैं। उन्हें इस बात का हमेशा घमंड रहता है कि उनका बेटा दुनिया में सबसे खूबसूरत है, सबसे गुणवान है और लाखों में एक तो खैर है ही।

(वैसे आप पूरे देश की आबादी देखिये और फिर ये माँओं का लाखों में एक वाला डायलाग पढ़िए, तो आपको ये महसूस होगा कि देश की कितनी ऐसी माँयें होंगी जिनका दूसरी माँओं से बस इसी बात का झगड़ा रहता होगा कि तुमने मेरे बेटे की तुलना अपने बेटे से कैसे कर दी!)

मेरी माँ भी इनसे अछूती नहीं। सो थोड़ा घमंड उनमें भी है।

अब इस घमंड का मुझे बहुत फायदा पहुँचा। मैं जो भी लिख देता हूँ, माँ उसे कहानी समझ लेती है, और अब चूँकि मैंने लिखी है तो माँ उसे सबसे अच्छी कहानी समझ लेती है (कम से कम लाखों में एक कहानी तो जरूर)। तो बस बन गयी बात। माँ के इस घमंड और मेरे इस राइटर होने भ्रम ने बहुत कुछ लिखवा दिया। वैसे आप इस माँ बेटे के प्यार में धोखा ना खाएँ। आप इन कहानियों को निष्पक्ष होकर पढ़ियेगा और अपनी स्वतंत्र राय दीजियेगा।

चलते-चलते आपके सामान्य ज्ञान में थोड़ा इज़ाफ़ा करता चलूँ। क्या आपको पता है कि शादियों के बाद लड़कियाँ अपने साथ पौती ले जाया करती हैं। पता है ना, अंग्रेजी में इसे ही कहते हैं "वैनिटी बैग"। ये पौती उनका बड़ा अनमोल धरोहर होता है और इसे वो बड़ा संभाल के अपने पास रखती हैं।

मेरी ये किताब "वैनिटी बैग" भी मेरी एक बड़ी धरोहर है जिसे मैंने संभाल के अपने पास रखा है। आप भी इसे बड़े प्यार से संभाल के रखियेगा। और एक बात और, इसे किताब के अल्मीरो में रख कर बस सजाइयेगा मत, इसे कभी-कभी पढ़ियेगा भी।

- अभिषेक आनन्द

कथाक्रम
1. प्रतिष्ठा में ए.सी. लगवाना  13
2. झण्डोतोलन  20
3. दीपा  28
4. मेरा दूसरा प्यार  38
5. काम लायक आस्था  46
6. माँगलिक  54
7. अगले जनम मोहे जनरल न कीजो ..  64
8. नया बॉस  71
9. सबसे छोटा मुकदमा  80
10. डिग्री की मोह माया..  89
11. कार्यकर्ता  96
12. टीकाकरण  106
13. नयन सुख  113
14. नया टेबल   120

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