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सुहबतें फ़क़ीरों की

सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15685
आईएसबीएन :978-1-61301-701-2

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रक़ीब की ग़ज़लें

वर्ष 1977 में कुछ दिन चित्रकूट के सती अनसुइया आश्रम में रहने का संयोग हुआ जहाँ भक्ति रस में डूब कर अत्यधिक आनंद प्राप्त होने लगा था. साधू-संतों की सामान्य, सरल दिनचर्या देखकर मन में वैराग्य की भावना प्रबल होने लगी थी किन्तु यह क्रम बीच ही में टूट गया और जब तक़रीबन 32 वर्षों बाद 2009 में कुछ बदले हुए रूप के साथ मुंबई के जुहू स्थित इस्कॉन मंदिर में सेवा का अवसर मिला तो वह सिलसिला फिर चल पड़ा. मेरी प्रारम्भिक शिक्षा सरस्वती शिशु मंदिर में हिन्दी और संस्कृत के माहौल में हुयी, 6वीं कक्षा से ए बी सी डी तथा अलिफ़ बे पे ते से पहचान हुई 10वीं कक्षा के बाद यानि कि 1979 में. 1980-1981 में कुछ अर्सा अलीगढ़ क़याम का इत्तिफ़ाक़ हुआ तभी से उर्दू और शायरी ज़िंदगी का एक अहम् हिस्सा बन गए, मगर शायरी की तमाम अस्नाफ़ में से सिन्फ़े नाज़ुक "ग़ज़ल" ही रास आयी और एक अरसे से इसी में क़ाफ़िया पैमाई करता आ रहा हूँ.

मुंबई और पुणे की अदबी नशिस्तों में मुसलसल शिरकत की वज्ह से अदबी दायरा भी वसीह हुआ और मिसरा तरह पर ग़ज़लें कहने के कारण मश्क़-ए-सुख़न भी खूब हुआ. एक अरसे तक ये सिलसिला चलता रहा और मेरी काविशों में इज़ाफ़ा होता गया. इस सन्दर्भ में मुंबई के गोवंडी उपनगर में 'मुज़्तर' लखनवी साहिब द्वारा संचालित 'बज़्म ए सुख़न' और विले पार्ले (पश्चिम) में सादिक़ रिज़वी साहिब द्वारा संचालित 'बज़्म ए सरोश' प्रमुख हैं.

माया नगरी मुंबई में मेहनत मज़दूरी करके जीवन यापन करने वाले मुझ जैसे व्यक्ति के लिए किसी उस्ताद का गंडाबंद शागिर्द बन कर रह पाना तो मुमकिन नहीं हुआ, सिर्फ़ कुछ बुज़ुर्ग मित्रों की रहनुमाई हासिल हुई जिनमें सर्वप्रथम गणेश बिहारी 'तर्ज़' साहिब, 'क़मर' जलालाबादी साहिब, कृष्ण बिहारी 'नूर' साहिब, 'नक़्श' लायलपुरी साहिब, 'आरिफ़' अहमद साहिब, संगीतकार रवींद्र जैन साहिब, ग़ज़ल गायक एवं संगीतकार डॉ जगजीत सिंह धीमान साहिब, कुमार शैलेन्द्र जी और भाई 'मूनिस' मुरादाबादी प्रमुख हैं, जो इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कहकर रुख़सत हो चुके हैं, के प्रति आदर सहित मैं श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ. इनके साथ बिताया गया एक-एक पल जीवन की अमूल्य धरोहर है. 'तर्ज़' साहिब के अलावा भाई 'ओबैद' आज़म आज़मी और 'सादिक़' रिज़वी साहिब वो नाम हैं जो न सिर्फ़ ख़याल और अरूज़ के ऐतबार से मेरी काविशों पर नज़र बनाये रहे बल्कि बेशुमार लोगों से बड़ी आत्मीयता से परिचय भी कराया. आप सभी के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ और तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ.

मूलतः हरदोई निवासी बाजपेई परिवार के स्मृतिशेष दामोदर और स्मृतिशेष सविता की पुत्री अनुराधा से 17.06.1994 को विवाह हुआ. प्रभु की असीम अनुकम्पा से 03.06.1997 को पुत्री सागरिका का जन्म हुआ. इन दोनों का मैं बेहद शुक्रगुज़ार हूँ कि अति विषम परिस्थितियों में भी इन्होंने धैर्य और संयम बनाए रखा जिससे मैं अदबी गतिविधियों के लिए वक़्त निकाल सका. कुछ बेहद अज़ीज़ रहे लोगों में आर एस अवस्थी (जीजा जी) जिन्होंने पचास से अधिक वर्षों तक (अपवाद स्वरूप कुछ वर्षों को छोड़कर) इस नाज़ुक रिश्ते के साथ-साथ बड़े भाई और एक अच्छे दोस्त का किरदार भी बख़ूबी निभाया है, साथ ही डॉ. आर एन शुक्ला भाई साहिब और स्मृतिशेष मुकेश दीक्षित (राजन भाई), मैं इन सभी को हृदयतल की गहराइयों से सादर नमन करता हूँ.

किशोरावस्था से साथ रहे अनुज बी एस बोरा, नवीन सुयाल, आशुतोष उपाध्याय और के सी पांडेय ऐसे नाम हैं जिनसे एक परिवार की तरह चार दशकों से भी अधिक समय का साथ रहा है. इस संयुक्त परिवार के सभी सदस्यों के नाम का उल्लेख न करते हुए सिर्फ़ उषा राजेश शर्मा और कमला राजेंद्र उपाध्याय जिनका मेरे जीवन में अति विशिष्ट योगदान रहा है, मैं इन सभी के प्रति कृतज्ञ हूँ.

कई बरस पहले मालेगांव, नासिक (महाराष्ट्र) के मशहूर उस्ताद शायर अतीक़ अहमद 'अतीक़' साहिब की याद में उन्हीं के मिसरा तरह पर ग़ज़ल कहते हुए मक़्ता हुआ था कि .....

"अब तो मजमूए कि तू शक्ल इन्हें दे दे 'रक़ीब'
तेरी ग़ज़लों को संभालेंगे रिसाले कितने"

शायद ग़ैब का हुक्म था, और अरसे बाद वह वक़्त अब आया जब कानपुर के प्रसिद्ध विद्वान शायर और घनिष्ठ मित्र भाई राजेंद्र तिवारी जी ने अपने परम मित्र श्री गोपाल शुक्ला जी (जो प्रकाशक होने के साथ-साथ पुस्तक.आर्ग नाम से भारतीय साहित्य की वेबसाइट भी संचालित हैं) से मिलकर बयाज़ को मजमूए की शक्ल देने का बीड़ा उठाया और उसे अंजाम दिया जिसके लिए मैं आप दोनों का आभार व्यक्त करता हूँ. मेरी एक कोशिश "सुहबतें फ़क़ीरों की" आप अहले नज़र की अदालत में पेश है. फ़ैसले का मुंतज़िर रहूँगा.

सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

अगस्त 15, 2021
मुंबई

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