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धर्म एवं दर्शन >> श्रीरामचरित मानस (अयोध्याकाण्ड)

श्रीरामचरित मानस (अयोध्याकाण्ड)

योगेन्द्र प्रताप सिंह

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :411
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15697
आईएसबीएन :9788180318961

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श्रीरामचरितमानस द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड

भूमिका

श्रीरामचरितमानस तुलसीदास कृत अद्भुत काव्य है-जिसमें धर्म, नीति, दर्शन, पौराणिक वृत्ति, भक्ति आदि सभी आस्वाद्य हैं। काव्य की आस्वादुता के रूप में ग्राह्म उपर्युक्त तत्व पाठक-मानस में इतनी सरलता और शीघ्रता से घुल-मिल जाते हैं उन्हें इनका पता ही नहीं लग पाता। भारतीय काव्यशास्त्र में आचार्यों ने आस्वाद- धर्मिता को ही रचना धर्म का अन्तिम परिणाम माना है। अतः मानस की रचना-धर्मिता धर्म, नीति, दर्शन, पौराणिक वृत्ति, भक्ति आदि के ऊपर है। मानस में राम-कथा विषय है, धर्मादि मन्तव्य हैं। ये मन्‍तव्य रामकथा के सृजन एवं कवि कल्पना तथा शिल्प संचेतना तन्‍त्नों से जुड़ कर काव्य पर्यवसायी हो उठते हैं, अतः रामचरित मानस काव्य है, धर्मग्रंथ, पुराण, भक्तिग्रंथ, दर्शनग्रंथ, नीतिग्रंथ आदि नहीं। यह रचना हिन्दी साहित्य की विलक्षण धरोहर तथा सृजन तन्‍त्रों के बहुविध आयामों से बुनी हुई-व्यापक लोक सम्बन्धोंत बहुविध अनुभवों के बीच निर्मित एक आस्थावान कवि की प्रतिभा का प्रमाण है। मम्मट ने मानस के रचनाकार तुलसी जैसे कवियों के ही लिए कहा है-

सकल प्रयोजनमौलिभूतं समन्‍तरमेव रसास्वादनसमुद्भूतं विगलितवेद्यान्तर-मानन्दं प्रभु सम्मिलित शब्दप्रधानं वेदादि-शारत्रेभ्यः सुहृत सम्मितार्थ तात्पर्यवत्पुराणा-दीतिहासेभ्यश्च शब्दार्थयोर्गुणभावेन रसाङ्गभूतव्यापार प्रवणतया विलक्षणं यत्कार्य लोकोत्तरवर्णनानिपुणकविकर्म तत्‌ कान्तेव सरसतापादेने अभिमुखीकृत्य रामादिव-इतितव्यं न रावणादिवदित्युपदेशं च यथायोगं कवेः सहृदयस्य च करोतीति सर्वथा तत्न पतनीयम्-

सम्पूर्ण प्रायोजनों में मूलभूत रूप यह प्रायोजन (कान्तासम्मित) उपदेश काव्य श्रवण के ठीक साथ-साथ तथा समानान्तर आनन्द को उत्पन्न करता हुआ अपने में अन्य ज्ञेय योग्य तत्त्वों (दर्शन, धर्म, भक्ति, नीति, पौराणिक वृत्ति आदि) को विगलित (घुला-मिलाकर तथा अपने में पचाकर) करके शब्द प्रधान वेद शास्त्र तथा अर्थ एवं तात्पर्यप्रधान पुराण-इतिहासादि से विलक्षण श्रेष्ठ यह रसाङ्गभूत व्यापार (रसाभिव्यक्ति में सहायक रचना व्यापार के व्यंजनादि धर्मों की साधना में तत्पर शब्द अथवा अर्थ, जो क्रमशः वेद तथा पुराणादि के धर्म हैं, को गोणीभूत करता हुआ लोकोत्तर काव्यवर्णना में निपुण कवि की कृति कान्ता के सदृश प्रिय के मन को सरस करता हुआ राम के समान आचरण करना चाहिए न कि रावण की भाँति गोप्य भाव से काव्य रचता धर्म के साथ हृदय में प्रवेश कर जाता है और इस प्रकार काव्य न यश के लिए है, न अर्थ के लिए, न व्यवहारज्ञान के लिए। वह सद्यः निवृत्ति धर्मिता व्यापार के सिद्धियोग के लिए शब्दार्थ द्वारा शिल्पित कवि धर्म है। श्रीरामचरितमानस इसी श्रेणी का महाकाव्य है।

मानस के विषय में यह कहा जाता है कि इसकी संचेतना इसके तीन स्थलों में निवास करती है-बालकांड के प्रारम्भ में, अयोध्याकांड के मध्य में एवं उत्तरकांड के उत्तरार्ध में। मेरी दृष्टि में यह अयोध्याकांड में सम्पूर्णतः व्याप्त है। मैंने कोशिश की है कि पाठक के समक्ष इस पुस्तक के द्वारा मानस की चेतना का यह साक्ष्य अपने मूल रूप में प्रकट हो सके तथा दर्शन, धर्म, नीति, सामाजिक दृष्टि, भक्ति आदि सभी कुछ रचनाधर्मिता के प्रकाश में ही विश्लेषित भी हो।

सम्पादन तथा अर्थ विवेचन के समय नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित तुलसी ग्रंथावली भाग १ तथा २, श्रीरामचरितमानस (डॉ० माताप्रसाद गुप्त), श्रीरामचरितमानस-गीताप्रेस, मानस पियूष आदि से जो सहायता मिली है, लेखक उसके लिए उनका आभार है।

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