नई पुस्तकें >> वे पांच बरष वे पांच बरषराजेंद्र कुमार राजेश
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हिन्दी कवितायें
मैं राजेंद्र राजेश जी को जबसे जानता हूँ, जिज्ञासु भाव इनके विद्रोही स्वभाव में है। भारतीय संस्कृति के ङ्क्तति निष्ठा और अपसंस्कृति की ओर आँखें तरेरते निजी बातचीत में भी दिखाई देते हैं। यह पुस्तक भी वैसे तो आत्मकथ्य, कविताओं, लघुकथाओं एवं पत्र शीर्षकों में बँटी है, किन्तु सर्वत्र इनकी निष्ठा सामाजिक-पारिवारिक सरोकारों में स्वस्थ व्यवस्था के ङ्क्तति अनुराग को दिखाती है। वैसे तो सभी शीर्षक पठनीय हैं और बहस को आमंत्रण देते हैं, किंतु किसी लब्धङ्क्ततिष्ठ पत्रिका ‘हंस’ यतत्कालीन संपादक राजेंद्र यादवद्ध को लिखे छपे–अनछपे पत्रों में इनके विद्रोही तेवर को देखा जा सकता है। कथित ङ्क्तगतिशीलता की आड़ में अश्लीलता द्वारा संस्कृति के श्लील स्वरूप को धकिया अपनी जगह बनाने के खतरे को राजेश जी ने अपने विमर्श में खड़ा किया है।
कविताओं में रिश्तो की महक का क्षरण हो, सामाजिक–आर्थिक विषमताएँ हो या लगभग हर क्षेत्र में विद्रूपताओं का अट्टहास, लेखक की संवेदनशीलता निर्विवाद तो है ही। संवेदनशीलता करुणा–दया से होते हुए विद्रोही तेवर को जन्म दे ही देती है। शायद सुधी पाठकों को ऐसा लगे।
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