उपन्यास >> माधवी : आभूषण से छिटका स्वर्णकण माधवी : आभूषण से छिटका स्वर्णकणअमिता नीरव
|
0 5 पाठक हैं |
हम अपनी विभिन्न भारतीय भाषाओं में समय-समय पर ऐसे उपन्यासों को पढ़ते आए हैं, जिनके लेखकों ने परम्पराओं से संवाद करना चाहा है, सवाल करना चाहा है और अपने सर्वोत्तम क्षणों में परम्परा का पुनर्मूल्यांकन भी। मराठी में वि.स. खांडेकर के ‘ययाति’ को, शिवाजी सावन्त के ‘मृत्युंजय’ को, कन्नड में भैरप्पा के ‘पर्व’ को ऐसे स्वभाव संस्कार लिये हुए उपन्यासों के रूप में देखा जा सकता है। अमिता नीरव का उपन्यास ‘माधवी : आभूषण से छिटका स्वर्णकण’ मुझे इसी परम्परा की आगे की एक कड़ी के रूप में नजर आता रहा।
‘माधवी : आभूषण से छिटका स्वर्णकण’ अपनी शाब्दिक अर्थवत्ता में ही एक स्त्री की खण्ड-खण्ड नियति का दस्तावेज है, जिसे अमिता नीरव की लेखनी ने और अधिक प्रामाणिक, मार्मिक, गहरा और श्लेषपूर्ण बना दिया है।
उपन्यास में उसके पात्रों के बीच के संवाद और उन पात्रों की तकलीफ और तनावों का बाहर आते जाना, इन पात्रों का पारस्परिक संवादों के माध्यम से संसार को पहचानना, परखना, मेरे पाठक के कान में फुसफुसाता रहा, दोहराता रहा कि उपन्यास को किसी ऐसे आत्मीय, अन्तरंग स्थल की तरह भी देखा जा सकता है, जहाँ लोग एक-दूसरे के साथ इकट्ठा होते हैं, बतियाते हैं, बहस करते हैं।
अगर यह मान लिया जाए कि उपन्यास की विधा एक ऐसी आत्मीय जगह भी है जहाँ पर बैठकर किसी विशिष्ट किस्म के परिवेश और परिस्थितियों के बीच में रचनाकार, उसके पात्रों और पाठकों के बीच आत्मीय बातचीत होती रहती है तब हमें अमिता नीरव के इस उपन्यास को इस दिशा का एक दिलचस्प, पठनीय और महत्त्वपूर्ण उपन्यास मानना होगा। अपने सामाजिक और सभ्यता-बोध में उतनी ही प्रखर कृति जितनी अपने भाषा-बोध में। पौराणिक परिवेश और पात्रों के अनुकूल खड़ी होती जाती रचनाकार की भाषिक संरचनाएँ, रचनाकार के पैशन और परिश्रम से हमारी पहचान करवाती हैं।
यह कथा किसी लघु मानव की कथा न होकर, एक संवेदनशील स्त्री की कथा मालूम होती है, जिसने उऋण होने को ही अपने जीवन की सार्थकता समझ लिया है। इस अर्थ में माधवी ही नहीं पुरु और गालव भी इस चक्रवात में फँसे और छटपटाते दिखाई देते हैं। बाद के युगों में यह भाव हमें प्रकारान्तर से एकलव्य और कर्ण में अवश्य दिखाई देता है। किन्तु माधवी के पूर्वकाल में यह प्रायः विरल ही है।
‘माधवी…’ के रचनाकार के भीतर तरह-तरह के जीवन्त और ज्वलन्त सवाल घूमते-घुमड़ते रहते हैं, कभी रचनाकार की प्रश्नाकुलता उसे हमारे समाज में स्त्री की दूसरे दर्ज की नागरिकता के सामने खड़ा करती है तो कभी पुरुष प्रधान समाज में बढ़ती हुई बर्बर प्रवृत्तियों पर। कभी रचनाकार की निगाहें मानवीय मूल्यों के पतन पर ठिठकती है तो कभी उन मूल्यों के लिए लड़ रहे विश्वासों पर ठहरती है।
माधवी की कथा जीवन के विरोधाभासों की कथा है। इसमें ययाति जैसा स्वकेन्द्रित, आत्ममोहित और परपीड़क महापात्र भी है तो गालव और माधवी जैसे कर्तव्यनिष्ठ, आज्ञाकारी और ऋणमुक्ति के नैतिक दबाव से ग्रस्त पात्र भी हैं ।
‘माधवी…’ में रचनाकार की अपनी परम्परा से बनती-बढ़ती पहचान, उनके परम्पंरा से सवाल-जवाब, मिथकों और रूपकों से बनता हुआ उनका अपनी तरह का रिश्ता, उपन्यास में परम्परा और आधुनिकता के बीच खड़े होते हुए उनके संघर्ष और समन्वय जैसे कुछ बिन्दुओं पर ठहरते-ठिठकते हुए मुझे बीसवीं सदी के फ्रेंच चित्रकार बाल्थस की उस बात का खयाल आता रहा था कि ‘केवल परम्परा ही क्रान्तिकारी होती है।’
मुझे लगता है कि अमिता नीरव के उपन्यास ‘माथवी…’ को उसकी अपनी उजली किस्म की बौद्धिक जिज्ञासाओं, भावनात्मक सतर्कता और भाषा के प्रति गहरी आस्था के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए। माधवी के भीतर वैसी ही गहरी और पवित्र जिज्ञासा है जिसे न खोने की हिदायतें हमारे पुरखे हमें देते रहे हैं।
– जयशंकर
|