नई पुस्तकें >> समाधान समाधानलालजी वर्मा
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भारत-पाक युद्ध 1971 के परिप्रेक्ष्य में उपन्यास
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बरौनी का रेलवे स्टेशन आज खचाखच भरा हुआ था। जिधर देखो आदमी ही आदमी नजर आ रहे थे। वैसे बरौनी रेलवेप्लेटफार्म काफी लंबा है फिर भी आज तो कुछ और ही बात थी। पैर रखने को भी जगह नहीं मिल रही थी। आदमी की बात तो छोडिये, प्लेटफार्म इतना लंबा होते हुए भी रेल की पटरी पर जहाँ तक नजर जाती थी रेलगाड़ी ही रेलगाड़ी नजर आती थी। आसाम या असम यानीअद्वितीय! वहाँ से आने-जानेका एक ही रास्ता जो था - वह बरौनी होकर और इस रास्ते में कहीं तो रेलगाड़ी पटरी से उतर गई या कहीं न कहीं कोई हड़ताल हो गया, आम बात थी। आज भी शायद ऐसे ही कहीं हड़ताल या कहीं रेल की पटरी से कोई गाड़ी उतर गई होगी। और सिंगल लाइन होने की वजह से आवागमन बाधित तो होना ही था। कई वर्षोंसे सुनने में आ रहा था कि इसपर भी डबल लाइन बिछायी जाएगी, पर कब! कुछ तो समझते थे कि उनकी जिंदगी में तो शायद नहीं, और उन्हें देखे बिना ही इस दुनियाँ से जाना पड़ सकता है। भारत में सभी कुछ धीरे हीचलता है। एशियाई हाथी की तरह।
देश के विभाजन के बाद आसाम एक तरह से भारत के और हिस्सों से कट सा गया था क्योंकि बहुत सारी रेल लायनें ईस्टबंगाल से जाती थीं जो अब ईस्ट पाकिस्तान बन गया था, और इसलिए इस रास्ते रेल यातायात सम्भव नहीं था। नार्थ-ईस्ट रेलवे 1952 में असम और तिरहुत रेलवे को मिला कर बना। बीच की नदियों के ऊपर कई पुलों का निर्माण हुआ। गंगा नदी के ऊपरराजेन्द्र सेतु का निर्माण 1969 में हुआ और गंगा के पूर्वी और पश्चिमी तट जुड़ गए। इससे आवागमन आसान हो गया। बरौनी से आगे मीटर गेज़ की लाइन थी, और अस्सी के दशक में ब्रॉड गेज की लाइन बिछने से यातायात और भी सुलभ हो गया।
रेलगाड़ियों के आवागमन के बाधित होने से प्लेटफार्म पर आज इतनी अप्रत्याशित भीड़ हो गयी थी। इस भीड़ में सरलागोस्वामी भी एक जगह बैठी थी। वह अपने दोनों बेटों, मेघ और बादल, के साथ तेजपुर जा रही थी। ठीक एक साल बाद। उसकी शादी चौबीस साल पहले कार्पोरलगोस्वामी के साथ हुई थी। शादी के बाद पहली बार अपने पति के साथ तेजपुर ही आई थी। वैसे उसका अपना गांव एयर फ़ोर्स स्टेशन, कलाईकुंडा के पास होने से वह भारतीय वायु सेना से बिलकुल अनभिज्ञ तो नहीं थी फिर भी बाहर से किसीपरिवेश को देखना और उसके भीतर रहकर, उसी वातावरण में जीवन बिताना, दूसरी बात थी। फिर भी, कुछ ही दिनों में वह अच्छी तरह से वायु-सेना के वातावरण में घुल-मिल गई थी। उसे अपनानेमें कोई खास दिक्कत नहीं हुई थी। कलाईकुंडा हवाई अड्डा खड़गपुर के ही पास था, और जब भी लड़ाकू विमान अभ्यास करते थे तो उनकी गड़गड़ाहट दूर-दूर तक सुनायी पड़ती थी। पास के गाँव के लोग, खासकर बच्चे घरों से बाहर भाग कर आते और जहाज़ की कलाबाजियां देख-देख तालियों से स्वागत करते। विमान मेंबैठा फाइटर पायलट उसे देख रहा हो या नहीं, इससे उन्हें कोई वास्ता नहीं रहता।
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