नारी विमर्श >> प्रेरणा प्रेरणादुर्गा हाकरे
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दो उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कहानीकार श्रीमती दुर्गा हाकरे ने साहित्य की लगभग सभी विधाओं पर अपनी
लेखनी का प्रभाव दिखाया है प्रस्तुत पुस्तक में उनके दो लघु उपन्यास
‘प्रेरणा’ और ‘कैक्टस के फूल’ का
उद्देश्य किसी
आदर्श के प्रति समर्पित होकर मानव का अपनी वासनाओं एवं व्यक्तिगत
राग-अनुराग को उद्देलित कर पाना है।
‘प्रेरणा’ में समाज में फैली बुराइयों, विसंगितियों, स्त्रियों के शोषण, उनकी दीनता-दरिद्रता एवं असमानता के प्रति लेखिका का आक्रोश सशक्त रूप में प्रस्फुटित हुआ है। अतः यह आक्रोश उसके प्रगतिशील एवं निश्चछल दृष्टिकोण का परिचायक है। विशेषतः स्काउट्स एवं गर्ल्स गाइडों के जीवन की रोचक एवं प्रभावपूर्ण झलक इस उपन्यास में मिलती है।
ये उपन्यास पठनीय हैं। आशा है इन्हें पढ़कर युवक-युवतियों को जीवन के सुपथ पर चलने की प्रेरणा मिलेगी तथा समाज में विद्यमान विद्रूपताओं को निकाल-बाहर करने का साहस भी।
‘प्रेरणा’ में समाज में फैली बुराइयों, विसंगितियों, स्त्रियों के शोषण, उनकी दीनता-दरिद्रता एवं असमानता के प्रति लेखिका का आक्रोश सशक्त रूप में प्रस्फुटित हुआ है। अतः यह आक्रोश उसके प्रगतिशील एवं निश्चछल दृष्टिकोण का परिचायक है। विशेषतः स्काउट्स एवं गर्ल्स गाइडों के जीवन की रोचक एवं प्रभावपूर्ण झलक इस उपन्यास में मिलती है।
ये उपन्यास पठनीय हैं। आशा है इन्हें पढ़कर युवक-युवतियों को जीवन के सुपथ पर चलने की प्रेरणा मिलेगी तथा समाज में विद्यमान विद्रूपताओं को निकाल-बाहर करने का साहस भी।
भूमिका
दुर्गा हाकरे के उपन्यास ‘प्रेरणा’ की पांडुलिपि पढ़ने का
सौभाग्य मिला। किसी आदर्श के प्रति समर्पित होकर मनुष्य अपनी वासनाएँ और
वैयक्तिक राग-अनुराग को उद्वेलित कर सकता है, यही इस पुस्तक का सदुद्देश्य
है। स्काउट और गर्ल्स गाइडों के जीवन की रोचक झलक इस उपन्यास में मिलती
है; साथ ही समाज में जो बुराइयाँ, जैसे व्यसनाधीनता या स्त्री के चरित्र
को कलुषित करना, उसका शोषण, दारिद्र्य और असमानता है, उसके प्रति लेखिका
का आक्रोश उसके प्रगतिशील और स्वस्थ दृष्टिकोण का द्योतक है। उपन्यास
पठनीय है। युवक-युवतियों को इसे पढ़कर प्रेरणा ही मिलेगी, ऐसी आशा है।
लेखिका के पास कथा कहने की अच्छी प्रवाहमयी शैली है। उसकी निरीक्षण शक्ति
और वर्णन तथा अभिव्यंजन का ढंग बहुत कलात्मक है। मैं उसके लेखन की
उत्तरोत्तर उन्नति की कामना करता हूँ। लेखिका की मातृभाषा हिंदी न होने पर
भी हिंदी में उसकी अच्छी पकड़ है।
प्रभाकर माचवे
प्रेरणा
पूर्व वेग से चलने के कारण गाड़ी बुरी तरह हिचकोले खा रही थी। शायिका पर
करवट बदलते हुए अजिता अचानक जाग प़डी। लेटे-लेटे ही घड़ी बँधी अपनी कलाई
को दूसरे हाथ से थामकर समय देखा-दो बजना चाहते थे। पूरे दो घण्टे की
यात्रा अभी शेष थी। नींद तो खैर अब क्या आनी थी, हाँ नींद टूटने की खीझ
उसे अवश्य सता रही थी। आखिर यों जाग क्यों पड़ी वह ? ओह, गहरी रात के
सन्नाटे को चीरती हुई आगे बड़ती हुए यह गाड़ी उसे जगा कर पीछे, बहुत पीछे
धकेलना चाहती है।....
‘‘मैं जाग रही हूँ, अजिता दी।’’ सामनेवाली शायिका पर लेटी बानी ने कहा, ‘‘सो जाइए।’’
उसने अनुभव किया-लगभग हमेशा ही बानी उसकी चोरी पकड़ती आई है। आज भी शर्म को छुपाने के लिए शायद उसका बायाँ हाथ स्वतः आँखों पर से चेहरे को ढँकते हुए दूसरी ओर झूलने लगा था। कितने अमिट साबित हुए थे वे बीते क्षण जो आज भी एक लंबे अंतराल के बाद उसे बीते हुए कल की बात की तरह चौंकाते थे।
ट्रेन-ट्रेन का सफर, ट्रेन के सफर की तरह बीतती हुई उसकी जिंदगी। किंतु रात्रि में व्यतीत होता हुआ हर सफर अजीता की चेतना को उन क्षणों से बाँध देता था जिनमें स्याह रात के भयानक सन्नाटे को चीरती हुई, हिचकोलों पर हिचकोले खाती हुई होती थी एक गा़ड़ी-ठसाठस भरी सेंकेंड क्लास की एक बोगी-कोनेवाली बर्थ के एक किनारे बैठा हुआ प्रणव और उसके कंधे से सिर टेककर बेखबर सोती हुई वह-इतनी बेखबर थी कि उसे गाड़ी के क्रमशः धीमे होते चले जाने का अनुभव तक नहीं होता। चक्कों के शोर को दबाने का प्रयास करती इनसानी चीख-पुकार के पूरी बोगी में फैलते, न फैलते प्रणव के अचानक बुरे झटके के साथ खडे होने पर गिरती-पड़ती, अपने को सँभलती पूरी तरह जाग जाती है वह...
...रात के सन्नाटे में उन पलों को बुनती अजिता हरदम सोचती है कि वह यंत्रणा और व्यथा की इस बेरहम चादर को नहीं ओढ़ेगी, अपने से सप्रयास दूर रखेगी; लेकिन वह जादुई चादर अपने-आप उस पर छा जाती है, थपकियाँ दे-देकर सुलाती है और अतीत के बियाबन जंगल में भटकने के लिए उसकी आत्मा को स्वतंत्र छोड़ देती है।
गाड़ी प्लेटफार्म पर लग गयी थी। नीचे उतरकर अजीता एक ओर खड़ी हो गई।
प्लेटफॉर्म पर पसरा रात्रि का सूना- अलसाया माहौल गाड़ी के आते ही कोलाहल में डूब गया था। चाय और फलवाले आवाजे दे-देकर खड़ी हुई गाड़ी के सामानांतर दौड़ रहे थे।
अजिता ने देखा, अलग-अलग डिब्बों के सामने स्काउट्स व गाइड्स के दल भी नीचे अपने सदस्यों और सामानों की गिनती में लगे हुए थे।
‘‘अजिता दी पहले रिसेप्शन काउंटर का पता कर लें।’’ बानी ने पास आते हुए कहा।
‘‘देखो बानी, उधर, जहाँ स्काउट्स और गाइड्स वगैरह बड़ी संख्या में खड़े हुए हैं। संभवतः रिसेप्शन काउंटर भी वहीं है। मैं वहाँ हूँ, समान उतरवाकर तुम भी वहीं आ जाओ, ठीक है न ’’
‘‘जी।’’
अजिता भी़ड़ में से उभरते संवाद को सुनती आगे बढने लगी-कहीं मित्र बनाती हुई गाइड्स अपना-अपना परिचय एक-दूसरे को दे रही थी तो कहीं दूसरे यात्री परेशान थे। ये नीली और खाकी वरदी में कहाँ से इतनी बड़ी संख्या में इस रायपुर शहर पर धावा बोलने हर गाड़ी से उतरते चले आ रहे हैं ?
‘‘मेरा नाम वाणी है। मैं खुर्दा रोड से आई हूँ। और तुम ?’’
‘‘मैं आद्रा से आई हूँ और मेरा नाम है पद्ममा।’’
चलते-चलते उसने सुना-एक मोटी सी महिला लहिम-शहिम चलती हुई कुली से पूछ रही थी-ये कौन लोग हैं, रे भैया ? जो अपने साथ औरतों को बैंड पर्टी में ले आए हैं ?
पास खड़ी गाइड अपने लिए इतनी मजेदार उपमा प्रयुक्त किये जाने पर हँस पड़ी।
‘‘अम्मा, तुम भी तो बस गजब ही करती हो। नहीं समझतीं तो चुप रहा करो न। ये बैंड पार्टी नहीं, स्काउट्स गाइड्स हैं। तुम समझोगी नहीं।’’ उस महिला के झल्लाए हुए बेटे ने कहा और आगे बढ़ गया।
अजिता मुस्कराए बिना न रह सकी।
अजिता का अनुमान सही था। काउंटर पर प्लेटफॉर्म की छत से कुछ नीचे बाँधे गये बैनर पर लिखी इबारत उसने पढ़ी-‘टूवेल्वथ एनुअल स्काउट्स एंड गाइड्स स्टेट कैंप रैली, रायपुर (म.प्र.)।’
काउंटर पर रिपोर्ट देती आवाजें उभर रही थीं- ‘
‘वाल्टेयर से हमारी तीस गाइड्स आई हैं, प्लीज नोट कीजिए।’
‘खडगपुर से हमारे पच्चीस स्काउट्स।’
‘बिलासपुर से...’
अजिता पर कइयों की नजर एक साथ पड़ी, अभिवादन का आदान-प्रदान हुआ। अजिता ने काउंटर पर बानी और अपने आने की रिपोर्ट दी। रैली तक पहुँचने के लिए यातायात व्यवस्था के विषय में जानकारी चाही।
‘‘मैडम, स्टेशन के बाहर वैगन रिपेयर शॉप की बसें आप लोगों के लिए तैयार हैं। आप वहीं पहुँच जाइए।’’ काउंटर पर उपस्थित स्वागतकर्ता ने सादर खड़े होकर बताया।
भीड़ से निकल कर अजिता ने देखा-बानी जा चुकी थी। दोनों मेन गेट की ओर चल पड़ीं।
बाहर कई बसे खड़ी थीं और अपनी-अपनी टोलियों में अपने स्काउट्स-गाइड्स के निर्देशानुसार बसों में चढ़ रहे थे। अजिता भी बानी के साथ सामने ख़डी बस में सवार हो गयी।
जनवरी की सिहरती सुबह...
ताजा होकर अजिता ने समय देखा-पाँच बजने को थे। स्कार्फ बाँधते हुए वह तम्बू से बाहर निकल आई। रात जब वह स्टेशन से बस द्वारा यहाँ आई थी, वातावरण एकदम स्तब्ध था-रोशनी में नहाई हुई तंबुओं की बस्ती। बड़ी-बडी लाठियों से ठक-ठक की ध्वनि पैदा करते, पहरा देते रोवर्स-रेंजर्स। आँखें भर आई थीं उसकी। ठिठुरन भरी सिरहती जनवरी की रात। खुले विस्तृत मैंदान में बसाई गई बस्ती की सरहदों पर पहरा देते ये किशोर। जलते अलाव के पास से धीमे-धीमे गुनगुनाती हुई आती आवाज-
‘‘मैं जाग रही हूँ, अजिता दी।’’ सामनेवाली शायिका पर लेटी बानी ने कहा, ‘‘सो जाइए।’’
उसने अनुभव किया-लगभग हमेशा ही बानी उसकी चोरी पकड़ती आई है। आज भी शर्म को छुपाने के लिए शायद उसका बायाँ हाथ स्वतः आँखों पर से चेहरे को ढँकते हुए दूसरी ओर झूलने लगा था। कितने अमिट साबित हुए थे वे बीते क्षण जो आज भी एक लंबे अंतराल के बाद उसे बीते हुए कल की बात की तरह चौंकाते थे।
ट्रेन-ट्रेन का सफर, ट्रेन के सफर की तरह बीतती हुई उसकी जिंदगी। किंतु रात्रि में व्यतीत होता हुआ हर सफर अजीता की चेतना को उन क्षणों से बाँध देता था जिनमें स्याह रात के भयानक सन्नाटे को चीरती हुई, हिचकोलों पर हिचकोले खाती हुई होती थी एक गा़ड़ी-ठसाठस भरी सेंकेंड क्लास की एक बोगी-कोनेवाली बर्थ के एक किनारे बैठा हुआ प्रणव और उसके कंधे से सिर टेककर बेखबर सोती हुई वह-इतनी बेखबर थी कि उसे गाड़ी के क्रमशः धीमे होते चले जाने का अनुभव तक नहीं होता। चक्कों के शोर को दबाने का प्रयास करती इनसानी चीख-पुकार के पूरी बोगी में फैलते, न फैलते प्रणव के अचानक बुरे झटके के साथ खडे होने पर गिरती-पड़ती, अपने को सँभलती पूरी तरह जाग जाती है वह...
...रात के सन्नाटे में उन पलों को बुनती अजिता हरदम सोचती है कि वह यंत्रणा और व्यथा की इस बेरहम चादर को नहीं ओढ़ेगी, अपने से सप्रयास दूर रखेगी; लेकिन वह जादुई चादर अपने-आप उस पर छा जाती है, थपकियाँ दे-देकर सुलाती है और अतीत के बियाबन जंगल में भटकने के लिए उसकी आत्मा को स्वतंत्र छोड़ देती है।
गाड़ी प्लेटफार्म पर लग गयी थी। नीचे उतरकर अजीता एक ओर खड़ी हो गई।
प्लेटफॉर्म पर पसरा रात्रि का सूना- अलसाया माहौल गाड़ी के आते ही कोलाहल में डूब गया था। चाय और फलवाले आवाजे दे-देकर खड़ी हुई गाड़ी के सामानांतर दौड़ रहे थे।
अजिता ने देखा, अलग-अलग डिब्बों के सामने स्काउट्स व गाइड्स के दल भी नीचे अपने सदस्यों और सामानों की गिनती में लगे हुए थे।
‘‘अजिता दी पहले रिसेप्शन काउंटर का पता कर लें।’’ बानी ने पास आते हुए कहा।
‘‘देखो बानी, उधर, जहाँ स्काउट्स और गाइड्स वगैरह बड़ी संख्या में खड़े हुए हैं। संभवतः रिसेप्शन काउंटर भी वहीं है। मैं वहाँ हूँ, समान उतरवाकर तुम भी वहीं आ जाओ, ठीक है न ’’
‘‘जी।’’
अजिता भी़ड़ में से उभरते संवाद को सुनती आगे बढने लगी-कहीं मित्र बनाती हुई गाइड्स अपना-अपना परिचय एक-दूसरे को दे रही थी तो कहीं दूसरे यात्री परेशान थे। ये नीली और खाकी वरदी में कहाँ से इतनी बड़ी संख्या में इस रायपुर शहर पर धावा बोलने हर गाड़ी से उतरते चले आ रहे हैं ?
‘‘मेरा नाम वाणी है। मैं खुर्दा रोड से आई हूँ। और तुम ?’’
‘‘मैं आद्रा से आई हूँ और मेरा नाम है पद्ममा।’’
चलते-चलते उसने सुना-एक मोटी सी महिला लहिम-शहिम चलती हुई कुली से पूछ रही थी-ये कौन लोग हैं, रे भैया ? जो अपने साथ औरतों को बैंड पर्टी में ले आए हैं ?
पास खड़ी गाइड अपने लिए इतनी मजेदार उपमा प्रयुक्त किये जाने पर हँस पड़ी।
‘‘अम्मा, तुम भी तो बस गजब ही करती हो। नहीं समझतीं तो चुप रहा करो न। ये बैंड पार्टी नहीं, स्काउट्स गाइड्स हैं। तुम समझोगी नहीं।’’ उस महिला के झल्लाए हुए बेटे ने कहा और आगे बढ़ गया।
अजिता मुस्कराए बिना न रह सकी।
अजिता का अनुमान सही था। काउंटर पर प्लेटफॉर्म की छत से कुछ नीचे बाँधे गये बैनर पर लिखी इबारत उसने पढ़ी-‘टूवेल्वथ एनुअल स्काउट्स एंड गाइड्स स्टेट कैंप रैली, रायपुर (म.प्र.)।’
काउंटर पर रिपोर्ट देती आवाजें उभर रही थीं- ‘
‘वाल्टेयर से हमारी तीस गाइड्स आई हैं, प्लीज नोट कीजिए।’
‘खडगपुर से हमारे पच्चीस स्काउट्स।’
‘बिलासपुर से...’
अजिता पर कइयों की नजर एक साथ पड़ी, अभिवादन का आदान-प्रदान हुआ। अजिता ने काउंटर पर बानी और अपने आने की रिपोर्ट दी। रैली तक पहुँचने के लिए यातायात व्यवस्था के विषय में जानकारी चाही।
‘‘मैडम, स्टेशन के बाहर वैगन रिपेयर शॉप की बसें आप लोगों के लिए तैयार हैं। आप वहीं पहुँच जाइए।’’ काउंटर पर उपस्थित स्वागतकर्ता ने सादर खड़े होकर बताया।
भीड़ से निकल कर अजिता ने देखा-बानी जा चुकी थी। दोनों मेन गेट की ओर चल पड़ीं।
बाहर कई बसे खड़ी थीं और अपनी-अपनी टोलियों में अपने स्काउट्स-गाइड्स के निर्देशानुसार बसों में चढ़ रहे थे। अजिता भी बानी के साथ सामने ख़डी बस में सवार हो गयी।
जनवरी की सिहरती सुबह...
ताजा होकर अजिता ने समय देखा-पाँच बजने को थे। स्कार्फ बाँधते हुए वह तम्बू से बाहर निकल आई। रात जब वह स्टेशन से बस द्वारा यहाँ आई थी, वातावरण एकदम स्तब्ध था-रोशनी में नहाई हुई तंबुओं की बस्ती। बड़ी-बडी लाठियों से ठक-ठक की ध्वनि पैदा करते, पहरा देते रोवर्स-रेंजर्स। आँखें भर आई थीं उसकी। ठिठुरन भरी सिरहती जनवरी की रात। खुले विस्तृत मैंदान में बसाई गई बस्ती की सरहदों पर पहरा देते ये किशोर। जलते अलाव के पास से धीमे-धीमे गुनगुनाती हुई आती आवाज-
‘वी शैल ओवर कम, वी शैल ओवर कम
वी शैल ओवर कम सम डे...
ओ डीप इन माय हार्ट, आई टू बिलिव
दैट वी शैल ओवर कम सम डे...’’
वी शैल ओवर कम सम डे...
ओ डीप इन माय हार्ट, आई टू बिलिव
दैट वी शैल ओवर कम सम डे...’’
गीत की भावमय शैली रक्त के कण-कण को उष्मा प्रदान कर रही थी-प्रत्येक बोल
पर सजदा करने को जी चाहता हो जैसै।
अब दिन में दूसरा ही दृश्य वहाँ था।
सफेद रंग के करीब दो सौ पचास तंबुओं के वर्गाकार घेरे में चहल-पहल शुरू हो गयी थी। इधर-से-उधर भागते, कहकहे लगाते स्काउट गाइड अपने घर से दूर, शहर में दूर तक-तंबुओं और अनुशासन की इस बस्ती में बेडेन पॉवेल की तीन पवित्र प्रतिमाओं और दस नियमों की प्रति जुनून की हद तक समर्पित होने का भाव लिए स्कूल की यह किशोर पीढी...अजिता के कदम फ्लैग पोस्ट की दिशा में उठ चलें....
फ्लैग पोस्ट की व्यवस्था ठीक थी। फूलों से लिपटा संस्था का नीला झंडा फहराते हुए उड़ने की प्रतीक्षा में पोल से बँधा हुआ था। यहाँ से हटकर वह किनारे पर आ गई और पास के तम्बू के अंदर चली गई।
गाइडर और ट्रूप लीडर दोनों ही अस्त-व्यस्त सामान जमाने में लगी हुई थीं। अजिता को अपने तंबू के अंदर देख कर एकदम ख़ड़ी हो गईं। दोनों ने सलाम देकर उसका अभिवादन किया।
सलाम का प्रत्युत्तर देते हुए अजिता ने कहा, ‘‘तंबू तो आपका साफ हो ही रहा है। अपनी गाइड्स तैयार कर गेजेट्स (बाँस की पतली व मोटी लकड़ियों से बना हुआ सामान) वगैरह बनवा लें और नाश्ता लेकर उद्घाटन समारोह के लिए नौ बजे तक मैदान में आ जाएँ।’’
‘‘जी।’’
‘‘कोई समस्या है ?’’
‘‘जी नहीं, दी।’’
जिधर से भी गुजरती अजिता-‘अजिता दी आ रही हैं’, ‘अजिता दी आ रही है’ का दबा-दबा शोर उभरता और इतना सुनने से ही गाइड्स के शरीर में अपने आप स्फूर्ति पैदा हो जाती।
निरीक्षण खत्म करके अजिता ऑफिस में आ गई। उसने सूचना देखना शुरू किया- इस रैली में विभिन्न स्थानों से अब तक आए नौ सौ स्काउट्स-गाइड्स में साढे चार सौ गाइड्स आ चुकी थीं।
स्थानीय समाचार-पत्रों की सूचनाओं को सही-सही तथ्य देने के लिए उसने स्टेशन स्वागत कक्ष से आए कागज फिर से जाँचे। फोन पर संभावित कैंपर्स के आने की सूचना बस स्टैंड और स्टेशन को दी और उठकर बाहर आ गई।
सभा साढ़े आठ बजे होने वाली थी। घड़ी पर अजिता की दृष्टि गई-समय हो चुका था।
तेज कदमों से वह डायरेक्टर के कार्यालय की ओर चल पड़ी। डायरेक्टर के अतिरिक्त वहाँ उसने कैंप कमाडेंट्स और स्थानीय संस्थाओं के अन्य अधिकारियों को प्रतीक्षा करते देखा-सभा की कार्यवाही शुरू होने जा रही थी।
अजिता डायरेक्टर के पास रखी खाली कुरसी पर बैठ गई। डायरेक्टर ने उपस्थित अधिकारियों को रिसेप्शन स्वास्थ्य, चिकित्सा, सफाई, यातायात, रसोई और सूचना एवं प्रसारण आदि विभाग सँभालने के लिए औपचारिक रूप से आमंत्रित किया और सभी के द्वारा अपने-अपने विभाग सँभालने के बाद डारेक्टर उन्हें आवश्यक निर्देश देने लगे।
एक लंबी सीटी बजी। रैली के स्वागत समारोह के लिए फ्लैग पोस्ट के पास एकत्र होने की सूचना थी।
सारे लोग बाहर आ गए।
मैदान में स्काउट्स-गाइड फ्लैग पोस्ट के पास पहुँच रहे थे। अजिता अपने नियति स्थान पर आकर खड़ी हो गई। इधर साधारण जनता इकट्ठी होने लगी थी, तंबुओं की नगरी की इस निराली सुबह की शानदार गौरवमयी शुरुआत की मंत्रमुग्ध मूक प्रशंसक।
फ्लैग पोल को केन्द्र बनाकर ‘हार्श शू फार्मेशन’ में स्काउट्स-गाइड्स खड़े हो गये थे। इस सजावट के बीच में खड़ी थी ‘कलर पार्टी’ ।
मुख्य अतिथि को कार से उतरकर डायरेक्टर के साथ आते देख अजिता को झटका सा लगा। इसी वक्त सावधान की मुद्रा में खड़े होने के लिए सीटी बजी। मुख्य अतिथि तथा डायरेक्टर के निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचते ही प्रार्थना के स्वर मुखारित हो उठे-
अब दिन में दूसरा ही दृश्य वहाँ था।
सफेद रंग के करीब दो सौ पचास तंबुओं के वर्गाकार घेरे में चहल-पहल शुरू हो गयी थी। इधर-से-उधर भागते, कहकहे लगाते स्काउट गाइड अपने घर से दूर, शहर में दूर तक-तंबुओं और अनुशासन की इस बस्ती में बेडेन पॉवेल की तीन पवित्र प्रतिमाओं और दस नियमों की प्रति जुनून की हद तक समर्पित होने का भाव लिए स्कूल की यह किशोर पीढी...अजिता के कदम फ्लैग पोस्ट की दिशा में उठ चलें....
फ्लैग पोस्ट की व्यवस्था ठीक थी। फूलों से लिपटा संस्था का नीला झंडा फहराते हुए उड़ने की प्रतीक्षा में पोल से बँधा हुआ था। यहाँ से हटकर वह किनारे पर आ गई और पास के तम्बू के अंदर चली गई।
गाइडर और ट्रूप लीडर दोनों ही अस्त-व्यस्त सामान जमाने में लगी हुई थीं। अजिता को अपने तंबू के अंदर देख कर एकदम ख़ड़ी हो गईं। दोनों ने सलाम देकर उसका अभिवादन किया।
सलाम का प्रत्युत्तर देते हुए अजिता ने कहा, ‘‘तंबू तो आपका साफ हो ही रहा है। अपनी गाइड्स तैयार कर गेजेट्स (बाँस की पतली व मोटी लकड़ियों से बना हुआ सामान) वगैरह बनवा लें और नाश्ता लेकर उद्घाटन समारोह के लिए नौ बजे तक मैदान में आ जाएँ।’’
‘‘जी।’’
‘‘कोई समस्या है ?’’
‘‘जी नहीं, दी।’’
जिधर से भी गुजरती अजिता-‘अजिता दी आ रही हैं’, ‘अजिता दी आ रही है’ का दबा-दबा शोर उभरता और इतना सुनने से ही गाइड्स के शरीर में अपने आप स्फूर्ति पैदा हो जाती।
निरीक्षण खत्म करके अजिता ऑफिस में आ गई। उसने सूचना देखना शुरू किया- इस रैली में विभिन्न स्थानों से अब तक आए नौ सौ स्काउट्स-गाइड्स में साढे चार सौ गाइड्स आ चुकी थीं।
स्थानीय समाचार-पत्रों की सूचनाओं को सही-सही तथ्य देने के लिए उसने स्टेशन स्वागत कक्ष से आए कागज फिर से जाँचे। फोन पर संभावित कैंपर्स के आने की सूचना बस स्टैंड और स्टेशन को दी और उठकर बाहर आ गई।
सभा साढ़े आठ बजे होने वाली थी। घड़ी पर अजिता की दृष्टि गई-समय हो चुका था।
तेज कदमों से वह डायरेक्टर के कार्यालय की ओर चल पड़ी। डायरेक्टर के अतिरिक्त वहाँ उसने कैंप कमाडेंट्स और स्थानीय संस्थाओं के अन्य अधिकारियों को प्रतीक्षा करते देखा-सभा की कार्यवाही शुरू होने जा रही थी।
अजिता डायरेक्टर के पास रखी खाली कुरसी पर बैठ गई। डायरेक्टर ने उपस्थित अधिकारियों को रिसेप्शन स्वास्थ्य, चिकित्सा, सफाई, यातायात, रसोई और सूचना एवं प्रसारण आदि विभाग सँभालने के लिए औपचारिक रूप से आमंत्रित किया और सभी के द्वारा अपने-अपने विभाग सँभालने के बाद डारेक्टर उन्हें आवश्यक निर्देश देने लगे।
एक लंबी सीटी बजी। रैली के स्वागत समारोह के लिए फ्लैग पोस्ट के पास एकत्र होने की सूचना थी।
सारे लोग बाहर आ गए।
मैदान में स्काउट्स-गाइड फ्लैग पोस्ट के पास पहुँच रहे थे। अजिता अपने नियति स्थान पर आकर खड़ी हो गई। इधर साधारण जनता इकट्ठी होने लगी थी, तंबुओं की नगरी की इस निराली सुबह की शानदार गौरवमयी शुरुआत की मंत्रमुग्ध मूक प्रशंसक।
फ्लैग पोल को केन्द्र बनाकर ‘हार्श शू फार्मेशन’ में स्काउट्स-गाइड्स खड़े हो गये थे। इस सजावट के बीच में खड़ी थी ‘कलर पार्टी’ ।
मुख्य अतिथि को कार से उतरकर डायरेक्टर के साथ आते देख अजिता को झटका सा लगा। इसी वक्त सावधान की मुद्रा में खड़े होने के लिए सीटी बजी। मुख्य अतिथि तथा डायरेक्टर के निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचते ही प्रार्थना के स्वर मुखारित हो उठे-
दया कर दान भक्ति का हमें परमात्मा देना
‘दया करना हमारी आत्मा में शुद्धता देना,
हमारे ध्यान में आओ प्रभू आँखों में बस जाओ
अँधेरे दिल में आकर के परम ज्योति जगा देना।
बहा दो प्रेम की गंगा दिलों में प्रेम का सागर,
हमें आपस में मिल-जुलकर प्रभू रहना सिखा देना।
हमारा कर्म हो सेवा हमारा धर्म हो सेवा,
सदा इमान हो सेवा व सेवक चर बना देना।
वतन के वास्ते जीना वतन के वास्ते मरना,
वतन पर जाँ फिदा करना प्रभू हमको सिखा देना,
दया कर दान भक्ति का हमें परमात्मा देना,
दया करना हमारी आत्मा को शुद्घता देना।’
‘दया करना हमारी आत्मा में शुद्धता देना,
हमारे ध्यान में आओ प्रभू आँखों में बस जाओ
अँधेरे दिल में आकर के परम ज्योति जगा देना।
बहा दो प्रेम की गंगा दिलों में प्रेम का सागर,
हमें आपस में मिल-जुलकर प्रभू रहना सिखा देना।
हमारा कर्म हो सेवा हमारा धर्म हो सेवा,
सदा इमान हो सेवा व सेवक चर बना देना।
वतन के वास्ते जीना वतन के वास्ते मरना,
वतन पर जाँ फिदा करना प्रभू हमको सिखा देना,
दया कर दान भक्ति का हमें परमात्मा देना,
दया करना हमारी आत्मा को शुद्घता देना।’
कोरस की समाप्ति पर पुनः सीटी और कलर पार्टी झंडे की दिशा में मार्च करती
हुई आगे बढ़कर कुछ कदम बाद थम गई और बीचवाली गाइड ने एक कदम आगे बढ़कर
झंडे की रस्सी खींचकर झंडा फहरा दिया। फहराते झंडे की सलामी देकर पीछे हटी
इस प्रकार कलर पार्टी इक लाइन में हो गई और पूरे स्काउट-गाइड्स दल के साथ
झंडे के सम्मान में गा उठे-
‘भारत स्काउट-गाइड झंडा उँचा सदा रहेगा।
ऊँचा सदा रहेगा झंडा ऊँचा सदा रहेगा।
नीला रंग गगन-सा विस्तृत भ्रातृ-भाव फैलाता,
त्रिदल कमल नित तीन प्रतिज्ञाओं की याद दिलाता।
और चक्र कहता है, प्रतिपल आगे कदम बढ़ेगा,
ऊँचा सदा रहेगा झंडा ऊँचा सदा रहेगा।
भारत स्काउट-गाइड झंडा ऊँचा सदा रहेगा।’
ऊँचा सदा रहेगा झंडा ऊँचा सदा रहेगा।
नीला रंग गगन-सा विस्तृत भ्रातृ-भाव फैलाता,
त्रिदल कमल नित तीन प्रतिज्ञाओं की याद दिलाता।
और चक्र कहता है, प्रतिपल आगे कदम बढ़ेगा,
ऊँचा सदा रहेगा झंडा ऊँचा सदा रहेगा।
भारत स्काउट-गाइड झंडा ऊँचा सदा रहेगा।’
गीत के बोल जैसे-जैसे ऊँचे उठते गए, गाती हुई अजिता के मस्तिष्क पर से
अतीत का पड़ता दबाव कम होता गया....
डिप्टी डायरेक्टर, व्यवस्थापक अजिता, सावधानी उसके अपने दिल की आवाज ! आदेश ! और अजिता पर से सचमुच ही अठारह वर्षों पूर्व छाया व संत्रास छँटने लगा, जो उसके हर सफर में रात के किसी एकान्त लमहे में एकाएक उसपर छाता चला जाता था। ऑक्टोपस की तरह जकड़ लेता था। उस जकड़न को यदि कम कर सकने की ताकत किसी के पास थी वे थीं ये रैलियाँ और कैंप, जहाँ उसके नाम का जादू ही अपने आप अनुशासन, भय और आदर का एक साथ-मिला जुला वातावरण पैदा करने में सक्षम होता था।
गीत की अंतिम पंक्तियों की समाप्ति पर फिर सीटी बजी। अपनी विश्राम अवस्था में आते हुए स्व-परिचय का कार्यक्रम शुरू हुआ।
सबसे पहले सलामी देते हुए बाएँ हाथ से हाथ मिलाते हुए डायरेक्टर ने अपना परिचय दिया, फिर अजिता ने-कैंप ड्यूटी डायरेक्टर अजिता।
स्व-परिचय का यह लंबा सिलसिला भी खत्म हुआ और सभी बिखर गए।
‘खाना तैयार है, अपनी थालियाँ लेकर आइए।’ माइक पर घोषणा प्रसारित हुई।
अजिता ने उधर रुख किया जिधर मेजों पर भोजन की पूरी तैयारी थी। बड़े-बड़े बर्तनों में चावल, दाल, सब्जियाँ, रोटी, पापड़ सलाद...गिलास व थालियाँ लिये अलग-अलग कतारों में खड़े स्काउट-गाइड्स और अपनी-अपनी खाद्य सामग्री परोसते सर्विस रोवर्स-रेंजर्स...
एक ओर खड़ी होकर अजिता उन्हें देखने लगी।
किसी गाइड और स्काउट पर नजर डालो तो नेवी ब्लू प्लेन साड़ी तथा फ्राक में गाइड और खाकी वरदियों में स्काउट्स, वागल में कैद पीले व नीले पाइपिंगवाले कत्थई व पीले स्कार्फ, सफेद मोजों के साथ काले जूते, बेल्ट और सीटी। इसके अतिरिक्त जो चीज अधिक आकर्षित करेगी वह है उनके कंधों और सीने पर शान से मुसकराते हुए बैजों की कतार और इस पूरी सज-धज के ऊपर अपना आकर्षण रखते हुए अनुशासित चेहरे।
‘‘अजिता दी।’’ बानी सामने थाली लिए खड़ी थी।
‘‘और तुम ?’’ अजिता ने थाली लेते हुए कहा।
‘‘लेती हूँ दी।’’
‘‘यहीं ले आओ।’’ और बाकी गाइड्स की तरफ मुड़ी, ‘‘आप लोग भी भोजन लेने के बाद मैदान में पहुँच जाएँ।’’
‘‘यस मैडम।’’
‘‘जी हाँ बहुत अच्छा।’’
वे सब पलक झपकते ही तेजी से पलटकर चलती बनीं। पीछे अजिता ने सुना कोई कह रही थी-‘और प्रतियोगिता-प्रतियोगिता...’ साथ जुड़ती और भी कई आवाजें-
‘शी ! शी ! बहुत तेज हैं उनके कान, धीरे बोलो।’
‘लो ! साहब ने अभी भोजन लिया ही नहीं है और प्रतियोगिता !....’
‘अभी नई-नई आई हैं न !’
बानी अपनी थाली लेकर आ गई। चेहरे पर तनाव कुछ ढीला पड़ा। कौर तोड़ने पर मुस्कराहट तैर गई अजिता के चेहरे पर।
अजिता से आत्मीयता स्थापित करने में यदि कोई सफल हुआ था तो वह थी बानी, अंतरंग क्षणों में एकदम सहज, छोटी बहन की तरह व्यवहार करती थी और बाहर केवल क्वार्टर मास्टर ही रह जाती थी।
शायद किसी को इस बात का गुमान तक न होगा कि खुद अपनी ओर से कुछ न कहकर दूसरों द्वारा कही-सुनी खबरें अनजान बनी यही बानी एकत्र करती रहती थी और अजिता के सामने अपनी जमा-पूँजी उड़ेल देती थी।
समझा तो यही जाता है। बानी का दिल जानता है, बेचारी भीतर-ही-भीतर अजिता के सामने कैसे काँपती रहती है। बानी द्वारा लाई खबरों में अपनी छवि देखकर हँस पड़ती है अजिता।
बिहार के किसी कैंप में एक गाइड अपनी बहन की अजिता दी की परिचिता होने के किस्से सुना रही थी, ‘‘मेरी दीदी अजिता दी के साथ पढती थीं।’’
‘‘सच ?’’ सबने एक साथ पूछा था।
‘‘हाँ, सच।’’
‘‘फिर तो पता होगा तुम्हें की सौंदर्य सम्राज्ञी अपनी अजिती दी ने शादी क्यों नहीं कि अब तक ?’’
‘‘हाँ नहीं तो क्या ?’’ कइयों ने कहा, खुद बानी ने भी।
‘‘मैं जानती हूँ।’’
‘‘फिर बताती क्यों नहीं ?’’ बेसब्री....बेसब्री...और बेसब्र लड़कियाँ।
‘‘एक बहुत खूबसूरत राजकुमार आया था उनके जीवन में।’’
‘‘वह तो होना ही था, आगे ?’’
‘‘जो होना था वही। अजिता दी की सुंदरता देखते ही दिल का दौरा पड़ गया बेचारे को। पता नहीं, कहते तो यहाँ तक हैं कि मरने के बाद भी उसके चेहरे पर आश्चर्य से फटी आँखें अलग ही नजर आती थीं।’’
‘‘और यह सब क्यों हुआ होगा, मैं जानती हूँ।’’ किसी दूसरी लड़की ने कहा था, ‘‘अजिता दी की सुंदरता और घुड़की ने मिलकर...बेचारा। मालूम नहीं आज सुबह का इंस्पेक्शन। खाने की थालियाँ उनके तरीके से जमा नहीं थीं कि काट लिये पाँच नंबर धड़ाक से...और गुस्सा ! बाप रे बाप ! मुझे तो दुर्गा-पूजा की प्रतिमा याद आ गई थी। ट्रूप लीडर को डाँटकर बोला था, ‘जो लड़कियाँ अपना सामान तक तरीके से रखना नहीं जानतीं वे गाइड बनने के बिल्कुल नाकाबिल हैं।’ ’’
अजिता की रोबीली संतुलित आवाज की नकल करते हुए उसने प्रसंग को उसकी अनुशासन प्रियता की तरफ मोड़ दिया था।
आगे अपनी हँसी रोकते हुए उसने बानी को चुप करा दिया था। कितनी ही किंवदंतियाँ थीं उसके संबंध में, जो उसके जीते-जी फैलती चली गई थीं।
हर रैली एक कहानी गढ़ती.....
हर कैंप से उसके अतीत के किंवदंती से बने गुब्बारे छूटते थे-नीले आकाश में....जिन गुब्बारों को वह बानी की आँखों से ही देख पाती थी।
बानी की उपस्थिति का अहसास होने पर वर्तमान में लौटते हुए वह सर्विस रेंजर की तरफ देखती हुई कह उठी-
‘‘सर्विस अच्छी हो रही है न बानी ?’’
‘‘हाँ, दी।’’
‘‘गाइडर्स ने अभी तक लंच नहीं लिया ?’’
‘‘आ रही हैं दी वे।’’ बानी ने आती हुई गाइडर्स को देखते हुए कहा।
‘‘उन्हें भोजन के बाद प्रतियोगिता के लिए मैदान में आने के लिए कहो- तब तक मैं रसोई में रात के खाने की तैयारी देख लूँ ।’’ नल पर अपनी थाली धोते हुए अजिता ने कहा।
‘‘अच्छा दी।’’ कहती हुई बानी ने भी अपनी थाली नल के नीचे लगा दी। कमरे में बिछी हुई दरी के बीचोबीच बड़ी-बड़ी टोकरियों में रखे हुए थे आलू, प्याज, टमाटर, मिर्च और हरी सब्जियाँ। इन्हें घेरे हुए बैठे थे सर्विस रोवर्स व रेंजर्स।
अजिता ऐसे कोण पर खड़ी होकर देख रही थी जहाँ से उसे भट्ठों में खाना पकाते हुए रसोइए भी दिख रहे थे और सब्जियाँ काटते-छीलते सर्विस रोवर्स-रेंजर भी।
‘‘अभी कैंप कमांडेंट्स आना शुरू हो जाएँगे। चाय की ये मगें उठाकर कृपया एक ओर रख दीजिए।’’ कोई सर्विस रेंजर कह रही थी।
अजिता का ध्यान उधर बट गया।
‘‘मेरी भी मग।’’
डिप्टी डायरेक्टर, व्यवस्थापक अजिता, सावधानी उसके अपने दिल की आवाज ! आदेश ! और अजिता पर से सचमुच ही अठारह वर्षों पूर्व छाया व संत्रास छँटने लगा, जो उसके हर सफर में रात के किसी एकान्त लमहे में एकाएक उसपर छाता चला जाता था। ऑक्टोपस की तरह जकड़ लेता था। उस जकड़न को यदि कम कर सकने की ताकत किसी के पास थी वे थीं ये रैलियाँ और कैंप, जहाँ उसके नाम का जादू ही अपने आप अनुशासन, भय और आदर का एक साथ-मिला जुला वातावरण पैदा करने में सक्षम होता था।
गीत की अंतिम पंक्तियों की समाप्ति पर फिर सीटी बजी। अपनी विश्राम अवस्था में आते हुए स्व-परिचय का कार्यक्रम शुरू हुआ।
सबसे पहले सलामी देते हुए बाएँ हाथ से हाथ मिलाते हुए डायरेक्टर ने अपना परिचय दिया, फिर अजिता ने-कैंप ड्यूटी डायरेक्टर अजिता।
स्व-परिचय का यह लंबा सिलसिला भी खत्म हुआ और सभी बिखर गए।
‘खाना तैयार है, अपनी थालियाँ लेकर आइए।’ माइक पर घोषणा प्रसारित हुई।
अजिता ने उधर रुख किया जिधर मेजों पर भोजन की पूरी तैयारी थी। बड़े-बड़े बर्तनों में चावल, दाल, सब्जियाँ, रोटी, पापड़ सलाद...गिलास व थालियाँ लिये अलग-अलग कतारों में खड़े स्काउट-गाइड्स और अपनी-अपनी खाद्य सामग्री परोसते सर्विस रोवर्स-रेंजर्स...
एक ओर खड़ी होकर अजिता उन्हें देखने लगी।
किसी गाइड और स्काउट पर नजर डालो तो नेवी ब्लू प्लेन साड़ी तथा फ्राक में गाइड और खाकी वरदियों में स्काउट्स, वागल में कैद पीले व नीले पाइपिंगवाले कत्थई व पीले स्कार्फ, सफेद मोजों के साथ काले जूते, बेल्ट और सीटी। इसके अतिरिक्त जो चीज अधिक आकर्षित करेगी वह है उनके कंधों और सीने पर शान से मुसकराते हुए बैजों की कतार और इस पूरी सज-धज के ऊपर अपना आकर्षण रखते हुए अनुशासित चेहरे।
‘‘अजिता दी।’’ बानी सामने थाली लिए खड़ी थी।
‘‘और तुम ?’’ अजिता ने थाली लेते हुए कहा।
‘‘लेती हूँ दी।’’
‘‘यहीं ले आओ।’’ और बाकी गाइड्स की तरफ मुड़ी, ‘‘आप लोग भी भोजन लेने के बाद मैदान में पहुँच जाएँ।’’
‘‘यस मैडम।’’
‘‘जी हाँ बहुत अच्छा।’’
वे सब पलक झपकते ही तेजी से पलटकर चलती बनीं। पीछे अजिता ने सुना कोई कह रही थी-‘और प्रतियोगिता-प्रतियोगिता...’ साथ जुड़ती और भी कई आवाजें-
‘शी ! शी ! बहुत तेज हैं उनके कान, धीरे बोलो।’
‘लो ! साहब ने अभी भोजन लिया ही नहीं है और प्रतियोगिता !....’
‘अभी नई-नई आई हैं न !’
बानी अपनी थाली लेकर आ गई। चेहरे पर तनाव कुछ ढीला पड़ा। कौर तोड़ने पर मुस्कराहट तैर गई अजिता के चेहरे पर।
अजिता से आत्मीयता स्थापित करने में यदि कोई सफल हुआ था तो वह थी बानी, अंतरंग क्षणों में एकदम सहज, छोटी बहन की तरह व्यवहार करती थी और बाहर केवल क्वार्टर मास्टर ही रह जाती थी।
शायद किसी को इस बात का गुमान तक न होगा कि खुद अपनी ओर से कुछ न कहकर दूसरों द्वारा कही-सुनी खबरें अनजान बनी यही बानी एकत्र करती रहती थी और अजिता के सामने अपनी जमा-पूँजी उड़ेल देती थी।
समझा तो यही जाता है। बानी का दिल जानता है, बेचारी भीतर-ही-भीतर अजिता के सामने कैसे काँपती रहती है। बानी द्वारा लाई खबरों में अपनी छवि देखकर हँस पड़ती है अजिता।
बिहार के किसी कैंप में एक गाइड अपनी बहन की अजिता दी की परिचिता होने के किस्से सुना रही थी, ‘‘मेरी दीदी अजिता दी के साथ पढती थीं।’’
‘‘सच ?’’ सबने एक साथ पूछा था।
‘‘हाँ, सच।’’
‘‘फिर तो पता होगा तुम्हें की सौंदर्य सम्राज्ञी अपनी अजिती दी ने शादी क्यों नहीं कि अब तक ?’’
‘‘हाँ नहीं तो क्या ?’’ कइयों ने कहा, खुद बानी ने भी।
‘‘मैं जानती हूँ।’’
‘‘फिर बताती क्यों नहीं ?’’ बेसब्री....बेसब्री...और बेसब्र लड़कियाँ।
‘‘एक बहुत खूबसूरत राजकुमार आया था उनके जीवन में।’’
‘‘वह तो होना ही था, आगे ?’’
‘‘जो होना था वही। अजिता दी की सुंदरता देखते ही दिल का दौरा पड़ गया बेचारे को। पता नहीं, कहते तो यहाँ तक हैं कि मरने के बाद भी उसके चेहरे पर आश्चर्य से फटी आँखें अलग ही नजर आती थीं।’’
‘‘और यह सब क्यों हुआ होगा, मैं जानती हूँ।’’ किसी दूसरी लड़की ने कहा था, ‘‘अजिता दी की सुंदरता और घुड़की ने मिलकर...बेचारा। मालूम नहीं आज सुबह का इंस्पेक्शन। खाने की थालियाँ उनके तरीके से जमा नहीं थीं कि काट लिये पाँच नंबर धड़ाक से...और गुस्सा ! बाप रे बाप ! मुझे तो दुर्गा-पूजा की प्रतिमा याद आ गई थी। ट्रूप लीडर को डाँटकर बोला था, ‘जो लड़कियाँ अपना सामान तक तरीके से रखना नहीं जानतीं वे गाइड बनने के बिल्कुल नाकाबिल हैं।’ ’’
अजिता की रोबीली संतुलित आवाज की नकल करते हुए उसने प्रसंग को उसकी अनुशासन प्रियता की तरफ मोड़ दिया था।
आगे अपनी हँसी रोकते हुए उसने बानी को चुप करा दिया था। कितनी ही किंवदंतियाँ थीं उसके संबंध में, जो उसके जीते-जी फैलती चली गई थीं।
हर रैली एक कहानी गढ़ती.....
हर कैंप से उसके अतीत के किंवदंती से बने गुब्बारे छूटते थे-नीले आकाश में....जिन गुब्बारों को वह बानी की आँखों से ही देख पाती थी।
बानी की उपस्थिति का अहसास होने पर वर्तमान में लौटते हुए वह सर्विस रेंजर की तरफ देखती हुई कह उठी-
‘‘सर्विस अच्छी हो रही है न बानी ?’’
‘‘हाँ, दी।’’
‘‘गाइडर्स ने अभी तक लंच नहीं लिया ?’’
‘‘आ रही हैं दी वे।’’ बानी ने आती हुई गाइडर्स को देखते हुए कहा।
‘‘उन्हें भोजन के बाद प्रतियोगिता के लिए मैदान में आने के लिए कहो- तब तक मैं रसोई में रात के खाने की तैयारी देख लूँ ।’’ नल पर अपनी थाली धोते हुए अजिता ने कहा।
‘‘अच्छा दी।’’ कहती हुई बानी ने भी अपनी थाली नल के नीचे लगा दी। कमरे में बिछी हुई दरी के बीचोबीच बड़ी-बड़ी टोकरियों में रखे हुए थे आलू, प्याज, टमाटर, मिर्च और हरी सब्जियाँ। इन्हें घेरे हुए बैठे थे सर्विस रोवर्स व रेंजर्स।
अजिता ऐसे कोण पर खड़ी होकर देख रही थी जहाँ से उसे भट्ठों में खाना पकाते हुए रसोइए भी दिख रहे थे और सब्जियाँ काटते-छीलते सर्विस रोवर्स-रेंजर भी।
‘‘अभी कैंप कमांडेंट्स आना शुरू हो जाएँगे। चाय की ये मगें उठाकर कृपया एक ओर रख दीजिए।’’ कोई सर्विस रेंजर कह रही थी।
अजिता का ध्यान उधर बट गया।
‘‘मेरी भी मग।’’
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