उपन्यास >> पोस्ट बॉक्स नं. 203 - नाला सोपारा पोस्ट बॉक्स नं. 203 - नाला सोपाराचित्रा मुदगल
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हिन्दी साहित्य जगत में अपनी अप्रतिम जगह बना चुकी वरिष्ठ कथाकार चित्रा मुद्गल का यह उपन्यास विनोद उर्फ बिन्नी उर्फ बिमली के बहाने हमारे समाज में लम्बे समय से चली आ रही उस मानसिकता का विरोध है, जो मनुष्य को मनुष्य समझने से बचती रही है। जी नहीं, यह अमीर-गरीब का पुराना टोटका नहीं, महज शारीरिक कमी के चलते किसी इन्सान को असामाजिक बना देने की क्रूर विडम्बना है।
अपने ही घर से निकाल दिए गए विनोद की मर्मातक पीड़ा उसके अपनी बा को लिखे पत्रों में इतनी गहराई से उजागर हुई है कि पाठक खुद यह सोचने पर विवश हो जाता है कि क्या शब्द बदल देने भर से अवमानना समाप्त हो सकती है ? गलियों की गाली “हिजड़ा” को “किन्नर” कह देने भर से क्या देह के नासूर छिटक सकते हैं। परिवार के बीच से छिटककर नारकीय जीवन जीने को विवश किए जाने वाले ये “बीच के लोग” आखिर मनुष्य क्यों नहीं माने जाते।
आज, जबकि ऐसे असंख्य लोगों को समाज में स्वीकृति मिलने लगी है, हमारी संसद भी इस सन्दर्भ में पुरातनपंथी नहीं रही है, क्या यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि परिवार व समाज अपनी सोच के मकड़-जाल से बाहर निकल आएंगे, ठीक उसी तरह जैसे इस उपन्यास के मुख्य चरित्र की मां वंदना बेन शाह अपने बेटे से घर वापसी की अपील करते हुए एक विस्तृत माफीनामा अखबारों में छपवाती है।
यह अपील एक व्यक्ति भर की न रहकर, समूचे समाज की बन जाए, यही वस्तुतः कथाकार की मूल मंशा है। एक एक्टिविस्ट रचनाकार, कैसे अपनी रचना में मूल सरोकार के प्रति समर्पित हो सकता है, यह इस अनोखे और पठनीय उपन्यास की भाषा बताती है। यहां समाज की हर सतह उघड़ती है और एक नयी रचनात्मक सतह बनने को आतुर है।
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