लोगों की राय

पारिवारिक >> गृह-दाह

गृह-दाह

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1595
आईएसबीएन :9788170167105

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

138 पाठक हैं

शरतचन्द्र का अविस्मरणीय उपन्यास।

Grahdah

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

(1)

महिम का परम मित्र था सुरेश। एक साथ एम. ए. पास करने के बाद सुरेश जाकर मेडिकल-कॉलेज में दाखिल हुआ; लेकिन महिम अपने पुराने सिटी-कॉलेज में ही रह गया।
सुरेश ने रूठे हुए-सा कहा-महिम मैं बार-बार कह रहा हूँ-बी. ए., एम. ए. पास करने से कोई लाभ न होगा। अब भी समय है-तुम्हें भी मेडिकल-कॉलेज में भर्ती हो जाना चाहिए; लेकिन खर्च के बारे में भी तो सोचना चाहिए !
-खर्च भी ऐसा क्या है कि तुम नहीं दे सकते ? फिर तुम्हारी छात्र-वृत्ति भी तो है।
महिम हँसकर चुप रह गया।

सुरेश ने अधीर होकर कहा-नहीं-नहीं, हँसो नहीं महिम, और देर करने से न चलेगा। मैं कहे देता हूँ-तुम्हें इसी बीच नाम लिखाना पड़ेगा ! खर्च-वर्च की बाद में देखी जाएगी।
महिम ने कहा-अच्छा।
सुरेश बोला-भई, तुम्हारा कौन-सा अच्छा ठीक है, कौन-सा नहीं-मैं तो आज तक भी यह समझ नहीं पाया। मगर रास्ते में अभी तुमसे वायदा नहीं करा पाया, इसलिए कि मुझे कॉलेज की देर हो रही है। मगर कल-परसों तक जो भी हो-इसका कोई किनारा करके ही रहूँगा मैं !
कल सबेरे डेरे पर रहना, मैं आऊँगा। कहकर सुरेश तेजी से कॉलेज की तरफ चला गया।
कोई पन्द्रह दिन बीत गए। कहाँ महिम और कहाँ उसका मेडिकल-कॉलेज का दाखिला ! एक दिन दोपहर को, बड़ी दौड-धूप के बाद सुरेश एक-गए बीते से छात्रावास में पहुँचा। सीधे ऊपर चला गया। देखा-एक सीसे से अँधेरे कमरे में फटी चटाइयाँ डाले, छः-सात लड़के खाने बैठे हैं। अचानक अपने दोस्त पर नजर पड़ते ही महिम ने कहा-अचानक डेरा बदलना पड़ा, सो तुम्हे खबर न दे पाया। पता कैसे लगाया ?

सुरेश ने उसकी इस बात का जवाब नहीं दिया। वह धप्प से चौखट पर बैठ गया और एकटक उन सबके भोजन की तरफ देखता रहा। बड़ा ही मोटा चावल, पानी-सी पतली जाने काहे की दाल, साग की डंठलों के साथ कंदे की तरकारी, और उसी के पास भुने कोहड़े के एक दो टुकड़े। दूध नहीं, किसी तरह की मिठाई नहीं-किसी के पत्तल पर एक टुकड़ा मछली तक नहीं।
सबके साथ महिम खुशी-खुशी, बड़ी ही तृप्ति के साथ यह भोजन करने लगा। लेकिन देख-देख कर सुरेश की दोनों आँखें गीली हो आईं। मुँह फेर कर किसी कदर उसने अपने आँसू पोंछे और उठ खड़ा हुआ महज मामूली-सी बात पर सुरेश की आँखों में आँसू आ जाते।
भोजन कर चुकने के बाद, जब महिम ने उसे ले जाकर अपने साधारण-से बिस्तर पर बैठाया, तो रुँधे स्वर में सुरेश से बोला-बार-बार तुम्हारी ज्यादती बर्दाश्त नहीं होती, महिम !

क्या मतलब ?-महिम ने पूछा।
सुरेश ने कहा-मतलब कि ऐसा भद्दा मकान भी शहर में हो सकता है, इतना बुरा भोजन भी कोई आदमी कर सकता है-अगर आँखों से नहीं देखता, तो यकीन नहीं करता। खैर, जो भी हो, इस जगह की तुम्हें खोज ही कैसे मिली, और तुम्हारा वह साबिक डेरा-जितना भी बुरा क्यों न हो चाहे, इससे तुलना ही नहीं हो सकती उसकी-उसे ही तुमने क्यों छोड़ दिया ?
मित्र के स्नेह ने मित्र के जी पर चोट पहुँचाई। महिम अपनी उस निर्विकार गम्भीरता को कायम नहीं रख सका। आर्द स्वर में बोला-सुरेश, तुमने मेरा गाँव वाला घर देखा ही नहीं, वरना समझ जाते कि यहाँ मुझे जरा भी तकलीफ नहीं हो सकती। रही भोजन की बात, सो भले घर के और-और लड़के जो भोजन मजे से खा सकते हैं, उसे मैं ही क्यों न खा सकूँगा ?
सुरेश तैश में आ गया-इसमें क्यों की बात ही नहीं ! दुनिया में भली-बुरी चीजें बेशक हैं। मगर भली-भली ही लगती हैं और बुरी-बुरी ही लगेंगी-इसमें क्या शुबहा है ? मैं सिर्फ यह जानना चाहता हूँ कि तुम्हें इतनी तकलीफ उठाने की पड़ी क्या है ?
महिम चुपचाप हँसता रहा धीरे-धीरे, बोला नहीं।
सुरेश बोला-तुम्हारी जरूरत तुम्हारी ही रहे, मुझे जानने की जरूरत नहीं। लेकिन मेरी जरूरत है-तुम्हें यहाँ से बचा ले चलना। मैं यदि तुम्हें यहाँ छोड़कर जाऊँ-तो मुझे नींद नहीं आएगी, खाना नहीं रुचेगा। मैं तुम्हारा सारा सरो-सामान अपने घर ले चलूँगा। यहाँ के नौकर से कहो-एक गाड़ी बुला दे ! इतना कहकर सुरेश ने जबर्दस्ती महिम को उठाया और खुद उसका बिछौना समेटने लगा।
महिम ने रोक-थाम में उछल-कूद न की। शान्त गम्भीर श्वर में बोला-पागलपन मत करो, सुरेश !
नजर उठाकर सुरेश ने कहा-पागलपन कैसा ? तुम तुम नहीं जाओगे ?
-नहीं !
-क्यों नहीं जाओगे ? मैं क्या तुम्हारा कोई नहीं ? मेरे घर जाने से क्या तुम्हारा अपमान होगा ?
-नहीं ?

-फिर ?
महिम ने कहा-सुरेश, तुम मेरे मित्र हो। ऐसा मित्र मेरा और कोई नहीं ! दुनिया में कितनों का है, यह भी नहीं जानता। इतने दिनों के बाद; देह के जरा-से आराम के लिए मैं ऐसी चीज खो बैठूँ-तुम क्या मुझे इतना बड़ा नादान समझते हो ?
सुरेश बोला-मिताई तुम्हारी अकेले तो नहीं, महिम ! इसमें मेरा भी तो एक हिस्सा है। यदि वह खो जाए तो कितना बड़ा नुकसान होगा-यह समझाने का शहूर मुझ में नहीं-मैं क्या इतना बेवकूफ हूँ ? फिर इतना सतर्क सावधान, इतना हिसाब-किताब रखकर न चलने से अगर वह नहीं रह सकती तो जाए क्यों न महिम ! ऐसी क्या उसकी कीमत है कि उसके लिए अपने आराम की उपेक्षा करनी होगी !
महिम ने हँसकर कहा-नहीं, अब हार गया ! लेकिन एक बात तैशुदा समझो सुरेश, तुम्हारा ख्याल है-मैं शौकिया यहाँ दुख झेलने आया हूँ, यह सही नहीं है।
सुरेश बोला, न सही ! मैं कारण भी नहीं जानना चाहता-लेकिन अगर तुम्हारी नीयत रुपया बचाने की है, तो मेरे घर चलकर रहो न-इसमें तो तुम्हारा इरादा मिट्टी न होगा !
महिम ने गर्दन हिलाकर संक्षेप में कहा-अभी छोड़ो सुरेश ! सच ही अगर तकलीफ होगी, तो तुम्हें बताऊँगा !
सुरेश को मालूम था कि महिम को उसके संकल्प से डिगाना असम्भव है। उसने जिद नहीं की, और एक प्रकार से नाराज होकर चला गया। लेकिन दोस्त के रहने-खाने का यह हाल देखकर उसके जी में सुई चुभती रही।
सुरेश धनी घर का लड़का था, और महिम को वह अकपट प्यार करता था। उसकी दिली खाहिश थी-किसी तरह वह दोस्त के किसी काम आए-लेकिन वह महिम को कभी मदद लेने को राजी न कर सका-आज भी न कर सका।

 

(2)

 

 

पाँचेक साल बाद दोनों में बातें हो रही थीं।
-तुम पर मुझे कितनी श्रद्धा थी, मैं कह नहीं सकता, महिम !
-कहने को तुम्हें मैं तंग तो कर नहीं रहा हूँ, सुरेश !
-वह श्रद्धा अब शायद न रहने की !
-न रहे तो मैं सजा दूँगा-ऐसी धमकी तो नहीं दी है मैंने कभी।
-तुम्हारा बड़ा-से-बड़ा दुश्मन भी तुम पर कपट का इलजाम नहीं लगा सकता।
-दुश्मन नहीं लगा सकता, इसलिए मित्र भी नहीं लगा सके-दर्शन-शास्त्र का ऐसा अनुशासन तो नहीं !
-तौबा कहो, आखिर को एक ब्राह्म लड़की के पाले पड़ गये ! है क्या उसमें ? सूखी लकड़ी-सा चेहरा, किताबें रटते-रटते बदन में एक बूँद खून का नाम नहीं। ठेल दो तो, डर है-आधी देह अलग हो रहे-आवाज तक ऐसी चीं-चीं की कि सुनने से नफरत हो आती है।
-बेशक हो आती है !

-सुनो महिम, मजाक अपने देहाती लोगों से करो, जिन्होंने आँखों से कभी ब्राह्म की लड़की देखी नहीं। जो यह सुनकर दंग रह जाते हैं कि लड़की होकर अँग्रेजी में पता लिख सकती है-जिनके जाने से वे बाअदब दूर खड़े हो जाते हैं। अचरज से अवाक् अपने उन गाँव वालों को करो जाकर, जो देव-देवी समझ कर इनके आगे सिर नवाते हैं। मगर हम लोगों का घर तो गाँव में नहीं, हमारी आँखों में तो इस आसानी से धूल नहीं झोंकी जा सकती !
-मैं तुमसे शपथ खाकर कहता हूँ सुरेश, तुम्हारे शहर वालों को ठगने का अपना कोई इरादा नहीं ! मैं उन्हें लेकर अपने गाँव में ही रहूँगा। इसमें तो तुम्हें कोई एतराज नहीं ?

सुरेश रंज होकर बोल उठा-नहीं ? सौ, हजार, लाख, करोड़ों एतराज हैं ! सारी दुनिया के पूज्य हिन्दू की सन्तान होकर तुम क्या एक औरत के मोह में जान गँवाओगे ? मोह ! एक बार उनके जूते-मोजे उतार कर अपनी गृहलक्ष्मियों की पोशाक़ पहनाकर देखो तो सही, मोह जाता रहता है या नहीं ! है क्या उसमें ? कर क्या सकती है वह ? खैर, सिलाई-बुनाई की ही तुम्हें जरूरत है, कलकत्ते में दर्जियों की क्या कमी ? किसी खत पर पता लिखाने के लिए तो तुम्हें ब्राह्म लड़की की शरण लेनी नहीं है। वक्त-बेवक्त यह क्या कूटपीस कर तुम्हें दो मुट्ठी खिला भी सकेगी ? बीमार होने पर सेवा करेगी ? इसकी शिक्षा मिली है उन्हें ? ईश्वर न करे, मगर ऐसे आड़े वक्त तुम्हें छोड़कर चली न जाए, तो सुरेश के बदले जी चाहे जिस नाम से मुझे पुकारना-दुःख न मानूँगा !

महिम चुप रहा। सुरेश फिर कहने लगा-महिम, तुम तो जानते हो कि मंगल के सिवा मैं तुम्हारा अमंगल नहीं चाह सकता। भूल कर भी नहीं ! मैंने बहुतेरी ब्राह्म महिलाएँ देखी हैं ! दो-एक अच्छी भी नहीं देखीं, ऐसी बात नहीं। लेकिन अपने हिन्दू घर की महिलाओं से उनकी तुलना ही नहीं हो सकती ! ब्याह करने का ही जी हो आया था, तो तुमने कहा क्यों नहीं ? खैर हुआ सो हुआ, अब तुम्हें वहाँ जाने की जरूरत नहीं। मैं वचन देता हूँ कि महीने भर के अन्दर तुम्हें ऐसी लड़की ढूँढ़ दूँगा, कि जीवन में कभी दुःख उठाना ही न होगा। अगर ऐसा न कर सकूँ, तो जी चाहे सो करना-इसी के पैरों सिर पीटना, मैं कुछ न बोलूँगा। मगर एक महीना धीरज रखकर, अपनी अब तक की मिताई की मर्यादा तुम्हें रखनी ही होगी ! कहो, रक्खोगे ?
महिम पहले-सा ही मौन रहा, हाँ-न कुछ न बोला-लेकिन दोस्त के भले के लिए दोस्त किस कदर बेचैन हो उठा है, यह पूरी तरह समझ सका।

सुरेश बोला-जरा सोच तो देखो सही, तुमने जिस ब्राह्म मन्दिर में जाना-आना शुरू किया था, तो मैंने मना नहीं किया था तुम्हें ? इतने बड़े कलकत्ता शहर में तुम्हारे लिए कोई हिन्दू मन्दिर था ही नहीं, कि इस कपट की जरूरत हुई ? मैंने तभी समझ लिया था, कि ऐसे में तुम किसी-न-किसी विडंबना में जरूर पड़ जाओगे !
अबकी महिम जरा हँसकर बोला-सो समझा होगा, लेकिन मैंने तो ऐसा नहीं समझा था कि मेरे जाने में कोई कपट था ! लेकिन एक बात पूछूँ-तुम तो भगवान तक को नहीं मानते, फिर हिन्दुओं के देवी-देवताओं को मनोगे ? मैं ब्राह्म-मन्दिर में जाऊँ या हिन्दू-मन्दिर में, इससे तुम्हारा क्या आता–जाता है ?

सुरेश ने जोश में कहा-जो नहीं है, मैं उसे नहीं मानता ! भगवान नहीं हैं। देवी-देवता झूठी बात है। लेकिन जो है, उससे तो इन्कार नहीं करता। समाज की मैं श्रद्धा करता हूँ, आदमी की पूजा करता हूँ। मैं जानता हूँ कि मनुष्य की सेवा ही मानव-जन्म की चरम सार्थकता है। हिन्दू परिवार में पैदा हुआ हूँ, तो हिन्दू-समाज की रक्षा करना ही अपना काम है। मैं मरते दम तक तुम्हें, ब्राह्म-घर में विवाह करके उसकी जमात बढ़ाने नहीं दूँगा। तुमने क्या वचन दे दिया है कि केदार मुखर्जी की बेटी से ब्याह करोगे ?
-नहीं ! जिसे वचन देना कहते हैं, वह अभी नहीं दिया है।
-नहीं दिया है न ! ठीक है। तो फिर चुपचाप बैठे रहो। मैं इसी महीने में तुम्हारा विवाह कराऊँगा।

-मैं ब्याह करने के लिए पागल हो गया हूँ-यह किसने कहा तुमसे ? तुम भी चुप बैठो जाकर; और कहीं ब्याह करना मेरे लिए असंभव है !
-क्यों, असंभव क्यों ? किया क्या है ? उससे प्रेम कर बैठे हो ?
-इसमें अचरज क्या है ! मगर इस भद्र महिला के बारे में सम्मान के साथ बात करो सुरेश !
सम्मान के साथ मुझे बोलना आता है। सिखाना नहीं पड़ेगा। मैं पूछ सकता हूँ कि भद्र महिला की उम्र क्या होगी ?
-नहीं जानता !
-नहीं जानते ? बीस, पच्चीस, तीस, चालीस या और भी ज्यादा-कुछ नहीं जानते ?
-नहीं।
-तुमसे छोटी है या बड़ी, शायद यह भी नहीं जानते ?
-नहीं।

-जब उन्होंने तुमको फँदे में फँसाया है, तो नन्हीं-नादान तो नहीं है-ऐसा सोचना असंगत न होगा। क्या ख्याल है ?
-नहीं। तुम्हारे लिए कोई असंगत नहीं। लेकिन मुझे कुछ काम है सुरेश, मैं जरा बाहर जाना चाहता हूँ।
सुरेश ने कहा-ठीक तो है, मुझे भी कोई काम नहीं है महिम ! चलो, तुम्हारे साथ जरा घूम आएँ।
दोनों मित्र निकल पड़े। कुछ देर चुपचाप चलते रहने के बाद सुरेश ने धीरे-धीरे कहा-आज जानबूझ कर ही मैंने तुम्हें बाधा दी, शायद यह समझाकर कहने की जरूरत नहीं।
महिम ने कहा-नहीं।
सुरेश ने वैसे ही मृदु स्वर में कहा-आखिर बाधा क्यों दी ?

महिम हँसा। बोला-पहली बात अगर बिना समझाए ही समझ सका, तो आशा है, इसे भी समझना न होगा !
उसका एक हाथ सुरेश के हाथ में था। सुरेश ने गीले मन से उसे जरा दबाकर कहा-नहीं महिम, तुम्हें समझना नहीं चाहता। संसार में और सब मुझे गलत समझ सकते हैं, मगर तुम मुझे गलत नहीं समझोगे ! फिर भी आज मैं तुम्हारे मुँह पर सुना देना चाहता हूँ, कि मैंने तुम्हे जितना प्यार किया है, तुमने मुझे उसका आधा भी नहीं किया। तुम मेरी परवाह चाहे न करो, पर मैं तुम्हारी जरा-सी तकलीफ भी कभी सह नहीं सकता। बचपन में इसी पर हमारी कितनी लड़ाई हुई है-सोच देखो। इतने दिनों के बाद जिसके लिए तुम मुझे भी छोड़ रहे हो महिम, अगर निश्चित जानता कि उन्हें पाकर जीवन में सुखी होगे, तो सारा दुःख मैं हँसकर सह लेता, कभी एक शब्द नहीं कहता।
महिम बोला-उनको पाकर सुखी शायद न हो सकूँ; मगर तुम्हें छोड़ दूँगा यह कैसे जाना ?
-तुम छोड़ो न छोड़ो, मैं तुम्हें छोड़ दूँगा।

-लेकिन क्यों ? मैं तुम्हारा ब्राह्म मित्र भी तो हो सकता था ?
-नहीं। हर्गिज नहीं ! ब्राह्म को मैं फूटी आँखों भी नहीं देख सकता। मेरा एक भी ब्राह्म दोस्त नहीं !
-उन्हें देख क्यों नहीं सकते ?
-बहुत-से कारण हैं इसके। एक यह कि जो हमारे समाज को बुरा बताकर छोड़ गये, उन्हें अच्छा मानकर मैं हर्गिज पास नहीं खींच सकता। तुम्हें तो पता है-अपने समाज के लिए मुझे कितनी ममता है। उस समाज को जो देश के, विदेश के सबके सामने बुरा साबित करना चाहता है, उसकी अच्छाई उसी की रहे, मेरा वह शत्रु है !
महिम मन-ही-मन असहिष्णु होता जा रहा था-अच्छा तो अब क्या करने को कहते हो तुम ?
सुरेश बोला-वही तो शुरू से लगातार कह रहा हूँ।
-खैर, फिर एक बार कहो।
-जैसे भी हो, इस युवती का मोह तुम्हें छोड़ना ही पड़ेगा-कम-से-कम एक महीना तुम उससे मिल नहीं पाओगे !
-मगर उससे भी कुछ न छूटे तो ? यदि मोह से भी बड़ा कुछ हो ?
सुरेश ने जरा देर सोचकर कहा-वह सब मैं नहीं समझता महिम ! मैं समझता हूँ कि मैं तुम्हें प्यार करता हूँ, और उससे भी ज्यादा प्यार करता हूँ अपने समाज को। हाँ, एक बार सोच देखो, छुटपन में चेचक हुआ तुम्हें, वह बात; और नाव डूब जाने से हम मुंगेर में, गंगा में डूब रहे थे। भूली बात की याद दिलाई-इसके लिए मुझे माफ करना, महिम ! मुझे और कुछ नहीं कहना; मैं चला ! और अचानक वह पीछे मुड़कर तेजी से चला गया।

 

(3)

 

 

सुरेश के बदन में एक ओर जितनी ही ज्यादा ताकत थी, दूसरी ओर उतना ही कोमल था उसका मन, उतना ही स्नेहशील। जाने-अनजाने किसी के भी दुख-कष्ट की बात सुनकर उसे रोना आता। छुटपन में वह एक मच्छर-मक्खी तक को नहीं मार सकता था। जैनियों की देखा-देखी ही, कितनी बार जेब में चीनी-सूजी के लिये, स्कूल से गैरहाजिर हो, पेड़ों तले घूम-घूम कर चीटियों को खिलाया करता था। मछली-मांस खाना उसने कितनी बार छोड़ा और पकड़ा-इसका हिसाब नहीं। जिसे चाहता, उसके लिए कैसे क्या करें, सोच नहीं पाता। स्कूल में अपने दर्जे में महिम सबसे अच्छा लड़का था। लेकिन उसके बदन पर फटेचिटे कपड़े, पैरों का जूता फटा-पुराना, दुबला शरीर, सूखा चेहरा-यही सब देख-सुनकर सुरेश पहले उसकी ओर आकृष्ट हुआ था। और थोड़े ही दिनों में, दोनों का यह आकर्षण बाढ़ के पानी की तरह इतना बढ़ उठा, विद्यालयभर के लड़कों की चर्चा का विषय बन बैठा। महिम को छात्रवृत्ति मिली थी, और उन्हीं चार रुपयों के भरोसे वह कलकत्ते आया तथा गाँव के एक मोदी की दुकान में रहकर स्कूल में दाखिल हुआ। तभी से सुरेश ने दोस्त को अपने घर लाने की हर कोशिश की, मगर उसे हर्गिज राजी न कर सका। वहीं रहकर कभी भूखा, कभी अधपेटा रहकर महिम ने एंट्रेंस पास किया। बाद की घटना पहले बताई जा चुकी है।

उस दिन से हफ्ता भर महिम से भेंट न हो सकने के कारण सुरेश उसके डेरे पर गया। किसी त्यौहार के कारण आज स्कूल-कॉलेज बन्द थे। वहाँ जाने पर पता चला-महिम सुबह ही जो निकला है, सो अभी तक नहीं लौटा। सुरेश को सन्देह नहीं रहा, कि वह छुट्टी का दिन बिताने के लिए पटलडांगा के केदार मुखर्जी के यहाँ ही गया है
जो बेहया देस्त, अशैशव मिताई की सारी मर्यादा की, एक मामूली औरत के मोह में विसर्जित कर सात दिन भी धीरज नहीं रख सका-दौड़ा गया, पलक मारते उसके खिलाफ विद्वेष की आग-अचानक आग लग जाने-सी उसके जी में जल उठी। उसने जरा देर विचार भी न किया; गाड़ी पर बैठ गया और कोचवान को सीधे पटलडांगा चलने को कहा-मन-ही-मन कहने लगा-अरे बेहया, अरे अहसान-फरामोश ! अपना जो प्राण इस औरत को सौंप कर तू धन्य हो गया है, तेरा वह प्राण रहता कहाँ है ? अपने प्राण की कतई परवाह न करके जिसने तेरे प्राण को दो-दो बार बचाया, उसका क्या जरा भी सम्मान नहीं रखना था ?

केदार मुखर्जी के घरवाली गली सुरेश को मालूम थी, थोड़ी-सी पूछताछ के बाद ही गाड़ी ठीक जगह पर पहुँच गई। उतर कर सुरेश ने बैरे से पूछा, और सीधे ऊपर की बैठक में जा पहुँचा। फर्श पर बिछाई गई गद्दी और तकिए के सहारे से लेटे हुए एक बूढ़े-से सज्जन अखबार पढ़ रहे थे। उन्होंने उसकी तरफ ताका। नमस्कार करके सुरेश ने अपना परिचय दिया-मेरा नाम सुरेश बंद्योपाध्याय है। मैं महिम के बचपन का साथी हूँ।

बूढ़े ने नमस्ते किया। चश्मे को मोड़कर रखते हुए बोले-बैठिए ! सुरेश बैठ गया। बोला-महिम के डेरे पर गया तो पता चला-वह यहीं है; सो सोचा-इसी बहाने आपसे भी परिचित हो लूँ।
बूढ़े ने कहा मेरा परम सौभाग्य कि आप पधारे ! लेकिन महिम दस-बारह दिनों से इधर नहीं आए। आज सुबह हम लोग सोच रहे थे, जाने किस हालत में हैं वे ?

सुरेश मन-ही-मन जरा चकित होकर बोला-लेकिन उनके डेरे पर तो बताया-
बूढ़े ने कहा-और कहीं गए हों शायद। खैर वे अच्छे हैं-सुनकर राहत मिली।
आते-आते राह में सुरेश ने जो उद्धृत संकल्प किया था, बूढे़ के सामने आकर उसे दृढ़ कर रख सका। उसने शान्त मुखड़े की धीर-मृदु बातों ने उसके मन की आँच को शीतल-कर दिया। फिर भी, वह अपने कर्तव्यों को भी न भूला।  
             
               

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book