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वैरागी

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :115
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1600
आईएसबीएन :81-85830-36-3

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एक श्रेष्ठ उपन्यास.....

Vairagi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

वृन्दावन और कुसुम पति-पत्नी थे। बचपन में ही उनकी शादी हो गई थी। किन्तु समाज के भय से उनके माँ-बाप ने बचपन में ही उन्हें अलग भी कर दिया था। जब बड़े हुए तो दोनों ने ही एक-दूसरे लिए प्यार का अनुभव किया किन्तु उनके स्वाभिमान ने उन्हें अलग रखा। एक-दूसरे के बारे में उन्हें काफी गलतफहमी रही।
चरण वृन्दावन का लड़का था। कुसुम और वृन्दावन दोनों ही उसे चाहते थे। किन्तु हैजे के कारण उनकी मृत्यु हो गई और उसका सदमा माँ-बाप पर बड़ा गहरा पड़ा। उनका प्यार एक दूसरे से अनेक में बदल गया। समस्त मानवता के लिए प्रेम उमड़ पड़ा। अपनी सारी जायदाद दूसरों की भलाई के लिए देकर वृन्दावन एक भीख माँगने वाली झोली लेकर निकल पड़े। कुसुम ने उनका साथ दिया।

इन्हीं वृन्दावन के नाम पर पुस्तक का नाम शरत् बाबू ने ‘पण्डित मोशाय’ रक्खा है। इसके हिन्दी अनुवाद का नाम मैंने ‘वैरागी’ रक्खा है।
समाज के पण्डों और अपने को शास्त्रज्ञ कहने वाले पण्डितों की लेखक ने छीछालेदर कर डाली है। वृन्दावन के माध्यम से उन्होंने उपेक्षित गाँवों की ओर ध्यान देने की अपील की है।

अनुवादक

वैरागी
1


कुंज वैष्णव की छोटी बहन कुसुम के बचपन का इतिहास इतना भद्दा है कि उसकी याद आते ही वह दु:ख और लज्जा के कारण जमीन में गड़-सी जाती है। दो ही साल की उम्र में उसके पिता मर गए थे और माता ने भीख माँ-माँगकर भाई-बहिन को पाला-पोसा था, और जब वह पाँच साल की हुई तो लड़की को सुन्दर देखकर बाड़ल ग्राम के निवासी धनी गृहस्थ गौरदास ने अपने बेटे वृन्दावन के साथ उसका विवाह कर दिया। किन्तु विवाह के कुछ दिनों बाद कुसुम की विधवा माता की बहुत बदनामी फैली, इसीलिए कुसुम का परित्याग कर गौरदास ने अपने बेटे की दूसरी शादी कर दी।
कुसुम की माँ दुखिया और गरीब थी परन्तु थी अभिमानिनी। गुस्से में आकर वह भी अपनी बेटी को दूसरी जगह ले गई और उसी महीने में एक असली वैरागी के साथ उसकी कण्ठी बदल क्रिया सम्पन्न कर दी। किन्तु छ: महीने के भीतर ही वे असली वैरागीराम स्वर्ग सिधार गए। परन्तु कुसुम की मां के अलावा और कोई नहीं जानता था कि वह कौन थे, कहाँ के थे। कुंज भी नहीं जानता था। उसकी माँ किसी को अपने साथ नहीं ले गई थी। और सचमुच ही इस वैरागी के साथ कुसुम की कण्ठी बदल गई थी, या यह केवल एक अफवाह ही थी, यह भी निश्चर्यपूर्वक नहीं कहा जा सकता। यह सब कुसुम के सात साल की उम्र में ही हो गया। तभी से वह विधवा है। थोड़े में यही उसके बचपन का इतिहास है। अब वह सोलह साल की युवती है। सौन्दर्य उसके अंग-अंग से फूटा पड़ता है। गुणवती भी है और काम- काज करने में भी पटु है। लिखना-पड़ना भी जानती है।

किसी बहुत बड़े घर के लिए भी वह शायद अनुपयुक्त नहीं लगती।
इधर वृन्दावन के पिता मर गये और स्त्री भी मर गई। उसकी उम्र भी पच्चीस-छब्बीस साल से अधिक नहीं है। अब वे कुसुम को फिर से अपनाना चाहते चाहते थे। पचास रुपये नकद, पाँच जोड़े धोती और दुपट्टे और पाँच-भर सोने और सौ-भर चाँदी के गहने कुसुम को देने के लिए तैयार हैं। गरीब कुंजनाथ लालच में पड़ गया है। वह चाहता है कि कुसुम राजी हो जाय पर वह कुछ सुनती ही नहीं। इन दोनों के मां-बाप नहीं हैं। दोनों भाई-बहन एक झोपड़ी में रहते हैं जो ब्राह्मणों के मुहल्ले में है। बचपन से कुसुम ब्राह्मणों की बेटियों के साथ खेलती-कूदती आ रही है। उन्हीं के साथ वह पण्डित की पाठशाला में पढ़ी है और सयानी हुई है। अब भी ब्राह्मणी उसकी सखियाँ-सहेलियाँ हैं। इसी से पुरानी बातों को याद कर उसका शरीर लज्जा और घृणा से काँप जाता है। मलेरिया और हैजे से पीड़ित बंगाल की स्त्रियों को विधवा होते देर नहीं लगती। उसके बचपन की सखियों में ये कई उसी की तरह हाथों की चूड़ियाँ फोड़कर और माँग का सिन्दूर मिटाकर फिर अपने जन्म–स्थान में लौट आई हैं। उनमें से कोई उसकी मकर गंगाजल है और कोई महाप्रसाद (सहेलियों का मनगढ़न्त नाम)।
‘तौबा-तौबा, भला मैं अपने भाई की बात मानकर इस जन्म में फिर अपना काला मुँह इस गाँव में किसी को दिखला सकूँगी।’

कुंज ने कहा-‘बहन’ यह बात मान लो तुम। सच तो तुम्हारे असली पति वृन्दाबन ही हैं।’
कुसुम ने चिढ़कर जवाब दिया-‘भाई, मैं असल-नकल नहीं जानती। केवल इतना ही जानती हूँ कि मैं विधवा हूँ। तुमने क्या मुझे कुत्ता-बिल्ली समझ रक्खा है कि इच्छा हो वही कर गुजरूँ ? उधर ब्याह हुआ, इधर कण्ठी बदली। और अब फिर ब्याह हो और फिर कण्ठी बदले ! जाओ, अब मेरे सामने ऐसी बातें मत करना। बाड़ल वालों से मेरा कोई वास्ता नहीं, मेरे पति मर चुके हैं और मैं विधवा हूँ।’

कुंज बेचारा इसके आगे कुछ भी न कह सका। अपनी इस पढ़ी-लिखी, तेजस्विनी बहन के सामने वह सिटपिटा जाता है फिर भी वह सोचता है परन्तु एकतरफा। वह बहुत गरीब है। दो झोपड़ियों और इनसे सटे हुए आम और कटहल के छोटे से बगीचे के अलावा उसके पास और कुछ भी नहीं है। इसलिए धोती, दुपट्टे और इतना नकद रुपया उसके लिए मामूली चीज नहीं है। अगर वह लालच छोड़ दिया जाए तो भी वह अपनी स्नेह-भाजन बहन को किसी जगह बिठाकर उसे सुखी देखकर खुद भी सुखी होना चाहता है।

उनके समाज में कण्टी बदलने का रिवाज है, इसलिए उसकी माँ यह संस्कार कर गई। पर वह समझ नहीं पाता कि जब उसकी माँ मर गई है और कुसुम का पिता वृन्दावन जब उसे घर ले जाने के लिए इतनी कोशिश कर रहा है तो ऐसे मौके को वह क्यों हाथ से जाने देना चाहती है ? क्यों उसकी ओर वह ध्यान नहीं देती है ? समाज के फौजदारों और छड़ीदारों की राय लेकर थोड़ा-सा मालसा (चूड़ा-दही) ही तो भोग लगा देना है। विवाह का सारा खर्च तो वृन्दावन ही देगा और इसके बाद वह सब दु:ख-तकलीफों से छूटकर खुशी से रानी बनकर रहेगी। कैसी मूर्ख है कुसुम ! ओह ! ओह !! अगर वह खुद ही कुसुम होता ! बस, कुंज हमेशा ही इस तरह की बातें सोचा करता था।

कुंज फेरी का काम करता है। सूत के नाड़े, माला, कंघी, सुन्दूर, तेल, बच्चों के खेलने की गुड़िया इत्यादि कई प्रकार की चीजें एक बड़े से टौने में सजाकर सिर पर रखकर वह रोज चार गाँवों की फेरी लगाया करता है। सौदा बेचकर जो कुछ कमाता, शाम को अपनी बहन के हाथ पर रख देता। कुसुम कैसे मूलधन बनाये रखकर उन्हीं पैसों से गृहस्थी का काम चला लेती है, इस बात को न तो समझ सकता था और न समझने की कोशिश ही करता था।

घूमते-फिरते आज सवेरे ही वह बाड़ल गाँव में जा पहुँचा। रास्ते में ही उसकी भेंट वृन्दावन से हुई। वह कहीं बाहर जा रहे थे, कुंज को देखकर लौट पड़े। अपने इस रिश्तेदार को बड़े आदर से वे घर ले आये। हाथ-पैर धोने के लिए उसे पानी दिया और तम्बाकू चढ़ाकर उसकी खातिर की। उसकी माँ ने तरह-तरह का भोजन बनाकर कुंज को भरपेट भोजन कराया और किसी तरह भी उस कड़ी धूप में उसे वहाँ जाने नहीं दिया।
शाम को कुंज घर लौटा, हाथ-पैर धोकर कुछ चना-चबेना खाने बैठा। उसने सारी बातें अपनी बहन से कह सुनाई और आखिर में यह भी कहा कि ‘वह एक अच्छा गृहस्थी है। बाग-बगीचा, ताल, खेती-बाड़ी किसी तरह की कमी नहीं है। लक्ष्मी तो उनके घर में जैसे फटी पड़ती है।’

सब बातें कुसुम ने चुपचाप सुन लीं। कुछ जवाब नहीं दिया। कुंज ने इसे एक लक्षण समझा और बड़े विस्तार के साथ बतलाया कि वृन्दावन की माँ कैसी अच्छी-अच्छी चीजें बनायीं और कितना उसका आदर-सत्कार किया। और खिला-पिला लेने पर भी क्या वह मुझे छोड़ती थी। कहने लगी-‘इतनी धूप में जाओगे तो सिर में दर्द होने लगेगा और बीमार पड़ जाओगे।’

अपने भाई के मुँह की ओर देखकर कुसुम ने मुस्कराते हुए कहा-‘तो दिन-भर आज तुम इसी काम में लगे रहे। बस, पेट भर भोजन किया और सोये।’
कुंज ने भी हँसते हुए उत्तर दिया-‘तो तुम्ही बताओ न बहन, और क्या करता ? किसी तरह भी जब वह छोड़ती ही नहीं थी तो जबरदस्ती मैं कैसे चला आता ?’

कुसुम ने कहा-‘अच्छा, पर अब तुम उस गाँव में कभी मत जाया करो।’
कुंज इस बात को ठीक नहीं समझ सका। उसने पूछा- ‘क्यों न जाया करूँ।’
कुसुम ने कहा-‘जब भी वे रास्ते में मिलेंगे; तुम्हें पकड़ ले जायेंगे। वे ठहरे बड़े आदमी। उनको तो कुछ नुकसान होगा नहीं; पर, इस तरह हमारा काम कब तक चलेगा ?’
बहन की यह बात सुनकर कुंज को बहुत दु:ख हुआ।
कुसुम यह समझ गई और हँसकर बोली-‘ना भैया, मैं यह नहीं कहती। एक-आध दिन में भला कौन-सा बड़ा नुकसान हो जाता है। परन्तु वे ठहरे बड़े आदमी और हम गरीब हैं। उनसे ज्यादा मेल-जोल बढ़ाने की हमें जरूरत ही क्या है !’

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