विविध >> साक्षात्कार - संभावना और यथार्थ साक्षात्कार - संभावना और यथार्थपंकज मिश्र अटल
|
0 5 पाठक हैं |
पूर्वोत्तर के हिन्दी रचनाधर्मियों से साक्षात्कार
मैं पूर्वोत्तर की तमाम जनजातियों के इतिहास या जीवनशैली की ओर दृष्टि डालता हूँ तो उनकी बोलियों, भाषाओं और उनके साहित्य पर रूक जाने का मन करता है,उनको जानने और पढ़ने का मन करता है,बोलियों का वैविध्य ठहर जाने को विवश करता है, लोकगीत और लोककथाएं अपने में बाँध लेते हैं, इस स्थिति को महसूस करते हुए ही मुझे उत्तर भारत के लोगों के मुँह सुने गए वे वाक्य याद आते हैं कि पूर्वोत्तर में जाना खतरे से खाली नहीं है वहाँ पर लोग जादू टोना करते हैं, परन्तु, अब वह जादू समझ में आता है, दरअसल जादू यहाँ की सुन्दर प्रकृति और संस्कृति का ही है जो कि सभी को अपनी ओर खींच लेती है और लोग यहीं के होकर रह जाते हैं। इस प्रतीकात्मक जादू के अतिरिक्त आज भी असम में मायंग का जादू भी चर्चित है, कुल मिलाकर पूर्वोत्तर की कला संस्कृति, रीति-रिवाजों और प्रकृति की सुन्दरता का जादू सभी के सिर चढ़कर बोलता है, सभी को अपनी ओर खींचता है, और यहीं का बनाकर छोड़ता है।
जैसा कि मैंने लिखा है कि यहाँ की जो इतनी अधिक बोलियाँ और भाषाएं हैं उनका अपना-अपना साहित्य भी है, मेरे मन में प्रारम्भ से ही यह इच्छा थी कि मैं पूर्वोत्तर की इन जनजातीय भाषाओं के लोक साहित्य और इन भाषाओं में लिखे जा रहे मौलिक साहित्य को जान सकूँ, और यही कारण रहा कि पूर्वोत्तर की विभिन्न बोलियों और भाषाओं के विद्वानों, लेखकों और विशेषज्ञों के निरन्तर सम्पर्क में मैं रहा और पूर्वोत्तर की जनजातियों की भाषाओं तथा पूर्वोत्तर की अन्य जातियों की भाषाओं से जुड़े हुए साहित्यिक आयोजनों पर सदैव मेरी नजर रही और इन कार्यक्रमों से जुड़ी हुई जानकारियाँ भी प्राप्त करता रहा।
पूर्वोत्तर इतना अद्भुत है कि इसको जितना समझने का प्रयास करेंगे ये आपको उतना ही उलझाता जाएगा, मगर इस पूर्वोत्तर में जितना रचेंगे, बसेंगे ये उतनी ही सहजता से मन में समाहित होता जाएगा और स्वयं ही आपको अपनी ओर खींच लेगा। कभी-कभी पूर्वोत्तर की वैविध्यपूर्ण संस्कृति को देखकर लगता था कि इतनी विविधता में भी समरसता की सृष्टि कैसे हो रही है, धीरे-धीरे समझ में आया कि जीवन का प्रकृति से जो नैकट्य है वही इस समरसता और आनन्द का मूल है और ये आनन्द कृत्रिम या तकनीकी नहीं है न ही इसमें व्यवसायिकता है।
असम से लेकर मणिपुर तक पूर्वोत्तर के इन आठों राज्यों में जनजातीय लोगों तथा शेष अन्य जातियों के लोगों ने अपनी साहित्यिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक विरासत को संभाल कर और संजो करके रखा है। मैंने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में देखा है कि किस तरह साहित्यिक व्यवसायिकता पैर पसारती जा रही है पूर्वोत्तर के लोग अपनी-अपनी भाषाओं और बोलियों के साहित्य और लोक साहित्य को सुरक्षित, संरक्षित और संवर्धित करने में लगे हुए हैं। मैने महसूस किया कि पूर्वोत्तर का प्रवुद्ध वर्ग अपनी-अपनी भाषाओं और साहित्य को राष्ट्रीय फलक पर लाने के लिए प्रयासरत है, इस संदर्भ में मुझे लगा कि उनके इन प्रयासों की सफलता का रास्ता अनुवाद विधा से ही होकर गुजरता है, इसलिए पूर्वोत्तर में हो रहे अनुवाद कार्य में मुझे काफी हद तक सोद्देश्यता की अनुभूति भी हुई।
मैं 2015 में पूर्वोत्तर की यात्रा पर निकला और जब मैं मणिपुर, नागालैंड, मेघालय और असम होता हुआ वापस लौट रहा था, ट्रेन में मिले हिन्दी समाचार पत्र पर्वांचल प्रहरी ने न केवल मेरे सफ की थकान और एकरसता को दूर किया अपित मुझे नई ऊर्जा से भर दिया। मैं उसमें प्रकाशित लेखों और व्यंग्यों को पढ़ तो रहा था. परन्तु मेरे मन में कुछ नए विचार भी उमड़-घुमड़ रहे थे। मन में आया कि जब पर्वोत्तर में हिन्दी के समाचारपत्र प्रकाशित हो रहे हैं, लोग उनमें लिख रहे हैं, साथ-साथ हिन्दी में अनूदित रचनाएं भी प्रकाशित हो रही हैं तो क्यों न पूर्वोत्तर के हिन्दी रचनाकारों और क्षेत्रीय भाषाओं के रचनाकारों से मिला जाए उनकी रचनाओं को पढ़ा जाए।
मेरे मन में आए इस विचार ने मुझे निरन्तर सोचने को विवश कर दिया क्योंकि एक विचार मुझे बार-बार आगे बढ़ने से रोक देता था और वह यह कि केवल मिलने मात्र से मैं किन उद्देश्यों की परिपूर्ति कर सकूँगा साथ-साथ रचनाओं को कहीं भी और कभी भी पढ़ा जा सकता है, ऐसे में मेरा पूर्वोत्तर के रचानाकारों से मिलना कितना सार्थक रहेगा। एक बात मन को कुरेद रही थी कि इतने भाषायी वैविध्य के होते हुए भी यदि पूर्वोत्तर में हिन्दी में लेखन कार्य हो रहा है तो यह कम महत्वपूर्ण नही है और अब तक पूर्वोत्तर के हिन्दी रचनाकार और उनकी रचनाएं हिन्दी के विद्वान समीक्षकों और विश्लेषकों की दृष्टि से दूर क्यों रहीं। मन में उठ रहे इस वैचारिक तूफान के कारण ही मेरे मन में एक विचार आया कि अब सबसे पहले पूर्वोत्तर में हिन्दी के विद्वानों, लेखकों और हिन्दी के प्रचार-प्रसार में रत हिन्दी सेवियों को जानना होगा और कुछ ऐसा करना होगा जिससे कि पूर्वोत्तर में हिन्दी की स्थिति स्पष्ट हो सके।
इन्हीं विचारों को लेकर मन में आया कि क्यों न पूर्वोत्तर के हिन्दी रचनाकारों की रचनाओं का एक समन्वित संकलन जारी किया जाए, परन्तु यह विचार जन्म लेते ही ध्वस्त हो गया, क्योंकि आजकल अधिकांश समन्वित संकलन नितांत व्यवसायिक तौर पर प्रकाशित होने के कारण अपना साहित्यिक स्वरूप खोकर तथाकथित भीड़ का जमावड़ा ही प्रतीत होते हैं। ऐसे संकलन विधा विशेष पर केन्द्रित होना तो दूर की बात रही, किसी सोच या विचारधारा से भी कोसों दूर होते हैं। मेरे स्वयं का मोहभंग होने के कारण मैंने सोचा कि जिस रूप में मैं पूर्वोत्तर में हिन्दी की स्थिति और हिन्दी के रचनाकारों को जानना चाहता हूँ, समन्वित संकलन के माध्यम से तो नहीं ही जान पाऊँगा।
इसी दौरान स्वतः ही मेरे मन में आया कि यदि पूर्वोत्तर में हिन्दी के बारे में जानना है तो लोगों से विशेषकर बुद्धिजीवी वर्ग से चर्चा करनी होगी, पूर्वोत्तर के प्रवुद्ध वर्ग का हिन्दी से जो आत्मीय रिश्ता है उसको महसूस करना होगा और इस दृष्टि से पूर्वोत्तर के आठों राज्यों की परिक्रमा भी करनी होगी। पूर्वोत्तर में मैं पूर्व में रह भी चुका था अत: यहाँ की भौगोलिक स्थिति, लोगों के स्वभाव और क्षेत्रीय परिस्थितियों से भली-भाँति परिचित था, इसके साथ-साथ यहाँ के प्रवुद्ध वर्ग से भी मेरा जुड़ाव था। इन सभी सकारात्मक विचारों, परिस्थितियों और परिवेश ने मुझे प्रेरित किया कि मुझे यहाँ के हिन्दी के रचनाकारों, सम्पादकों, पत्रकारों और हिन्दी सेवियों से किसी न किसी माध्यम से संवाद स्थापित करना चाहिए, क्योंकि यह संवाद या चर्चा न केवल सम्बन्धों की स्थापना में सहायक होगी अपितु इस पहल से किसी सार्थक निष्कर्ष तक सीधे पहुँच सकेंगे।
मेरा ध्यान सीधे-सीधे साक्षात्कार विधा की ओर ही गया, क्योंकि साक्षात्कार विधा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा व्यक्तित्व से कृतित्व तक की गहराइयों का अवगाहन किया जा सकता है, आदर्श से यथार्थ तक की दूरी तय की जा सकती है, और किसी भी व्यक्ति के योगदान को सूक्ष्मता से विश्लेषित और व्याख्यायित भी कर सकते हैं। इसी क्रम में मैंने काफी विद्वानों, लेखकों और पत्रकारों आदि से चर्चा कर अपने मंतव्य को स्पष्ट किया और साक्षात्कार विधा के माध्यम से पूर्वोत्तर में हिन्दी की स्थिति को जानने का निश्चय किया।
जब मैंने पूर्वोत्तर की क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य को उनके हिन्दी अनुवाद के माध्यम से पढ़ा तो पूर्वोत्तर के साहित्य की समृद्धता से परिचित हुआ, मैंने यह भी महसूस किया कि यथार्थ अभिव्यक्ति के नाम पर हिन्दी भाषा की रचनाएं प्राकृतिक यथार्थ से मुँह मोड़ चुकी हैं, हमारा रचनाकार भी सामाजिक विकृतियों में उलझ कर रह गया है जबकि दूसरी ओर पूर्वोत्तर की क्षेत्रीय भाषाओं की रचनाओं में यथार्थ को अभिव्यक्ति तो मिली है परन्तु वहाँ विसंगतियाँ और विकृतियाँ न होकर प्राकृतिक सौन्दर्य का ही यथार्थ रूप है।
|
- क्रम