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ऋग्वैदिक आर्य

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : किताब महल प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :364
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 16102
आईएसबीएन :9788122502688

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भूमिका

‘नमः ऋषिभ्यः पूर्वजेम्यः।’ (१०/१०/१५)

दो. वर्ष पहले यदि कोई कहता, कि मैं इस प्रकार की एक पुस्तक लिखूँगा, तो मुझे इस पर विश्वास नहीं होता। वस्तुतः ऐसी एक पुस्तक को अपनी या पराई किसी भी भाषा में भी न पाकर मुझे कलम उठानी पड़ी। ऋग्वेद से ही हमारे इतिहास की लिखित सामग्री का आरंभ होता है। जिस प्रकार का ईश्वर झूठ के साथ-साथ महान्‌ अनिष्टों का कारण है, पर अनेक देवता सुन्दर कला का आधार होने के कारण अनमोल और स्पृहणीय हैं; उसी तरह वेद, भगवान्‌ या दिव्य पुरुषों की वाणी न होने पर भी अपने सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक सामग्री के कारण, हमारी सबसे महान्‌ और अनमोल, निधि है। जिन्होंने इसको रचा, और जिन्होंने पीढ़ियों तक कंठस्थ करके बड़े प्रयत्न से इसे सुरक्षित रक्खा, वह हमारी हार्दिक कृतज्ञता के पात्र हैं।

जहाँ तक देश-विदेश को भाषातत्वज्ञों और बुद्धिपूर्वक वेदाध्ययन करने वालों का सम्बन्ध है, ऋग्वेद के काल के बारे में बहुत विवाद नहीं है। पर, जो हरेक चीज में अध्यात्मवाद, रहस्यवाद को देखने के लिए उतारू हैं, वह अचिकित्स्य है, उनसे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। अपनी श्रद्धा के अनुसार वह अपने विश्वास पर दृढ़ रहें, उन्हें विचलित कौन करता है ? लेकिन, आज की भी तथा आनेवाली पीढ़ियां और भी अधिक, हरेक बात को वैज्ञानिक दृष्टि से देखना चाहेंगी। उनके लिए ही यह मेरा प्रयत्न है।

ऋग्वेद के जिज्ञासुओं को अपनी कल्पना की सीमाओं को जान लेना आवश्यक है। ऋग्वेद हमारे देश के ताम्र युग की देन है। ताम्र-युग अपने अन्त में था, जबकि सप्तसिन्धु (पंजाब) के ऋषियों ने ऋचाओं की रचना की, जब कि सुदास ने ‘दाशराज्ञ’ युद्ध में विजय प्राप्त करके आर्यों की जन-व्यवस्था की जगह पर एकताबद्ध सामन्‍ती व्यवस्था कायम करने का प्रयत्न किया। सप्तसिन्धु के आर्यों की संस्कृति प्रधानतः पशुपालों की संस्कृति थी। आर्य खेती जानते थे, और जौ की खेती करते भी थे। पर, इसे उनकी जीविका का मूल नहीं, बल्कि गौण साधन ही कहा जा सकता है। वह अपने गौ-अश्वों, अजा-अवियों (भेड़-बकरी) को अपना परम धन समझते थे। उनके खान-पान और पोशाक के ये सबसे बड़े साधन थे। अपने देवताओं को संतुष्ट करने के लिए भी इनकी उन्हें बड़ी आवश्यकता थी। पशुधन को परमधन मानने के कारण ही आर्यों को नगरों की नहीं, बल्कि प्रायः चरिष्णु ग्रामों की आवश्यकता थी। इस प्रकार ऋग्वैदिक आर्यों की संस्कृति पशुपालों और ग्रामों की संस्कृति थी। इन सीमाओं को हमें ध्यान में रखना होगा।

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