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श्रीकान्त - भाग 1

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1613
आईएसबीएन :81-85830-56-8

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्रीकान्त-1

एक

अपने इस खानाबदोश-से जीवन की ढलती हुई बेला में खड़े होकर इसी का अध्याय जब कहने बैठा हूँ तो जाने कितनी बातें याद आती हैं।
छुटपन से इसी तरह तो बूढ़ा हुआ। अपने-बिराने सबके मुँहसे लगातार छि:छि: सुनते-सुनते आप भी अपने जीवन को एक बहुत बड़ी छि:छि: के सिवाय और कुछ नहीं सोच सका। लेकिन जिन्दगी के प्रात:काल ही में छि:छि: की यह लम्बी भूमिका कैसे अंकित हो रही थी, काफी समय के बाद आज उन भूली-बिसरी कहानियों की माला पिरोते हुए अचानक ऐसा लगता है कि इस छि:छि: को लोगों ने जितनी बड़ी करके दिखाया, वास्तव में उतनी बड़ी नहीं थी। जी में होता है, भगवान जिसे अपनी विचित्र सृष्टि के ठीक बीच में खींचते हैं, उसे अच्छा लड़का बनकर इम्तहान पास करने की सुविधा भी नहीं देते; गाड़ी-पालकी पर सवार हो बहुत लोग, लस्कर के साथ घूमने और उसे ‘कहानी’ के नाम से छपाने की अभिरुचि भी नहीं कहते। इसलिए प्रवत्ति ऐसों की ऐसी असंगत और बेतुकी होती है-और देखने की वस्तु तथा तृष्णा स्वाभाविकतया ऐसी आवारा हो उठती है कि उसका वर्णन कीजिए तो सुधीजन शायद हँसते-हँसते बेहाल हो उठें। उसके बाद बिगड़े दिल लड़का अनादर और उपेक्षा से किस तरह बुरों के खिंचाव से बुरा होकर, धक्के खाकर, ठोकरे खाकर अनजाने ही एक दिन बदनामी की झोली कन्धे से झुलाएँ कहाँ खिसक पड़ता है- काफी अरसे तक उसकी कोई खोज-खबर ही नहीं मिलती।
लिहाजा छोड़िए इन बातों को। जो कहने चला हूँ, वही कहूँ। लेकिन कहने ही से तो कहना नहीं होता। सैर करना और बात है, उसको बताना और बात।   

जिसके भी दो पाँव हैं, वही घूम सकता है; लेकिन दो हाथ होने से लिखा तो नहीं जाता। लिखना बड़ा-कठिन काम है। फिर मेरे साथ मुसीबत यह है कि ईश्वर ने मुझमें कल्पना-कवित्व की बू-बास भी नहीं दी। अपनी इन दो दर्द भरी आँखों से मैं जो देखता हूँ, हू-ब-हू वही देखता हूँ। पेड़ को ठीक पेड़ ही देखता हूँ, पहाड़-पर्वत को पहाड़-पार्वती ही। पानी को झाँकने से वह पानी के सिवा और कुछ नहीं दीखता। आसमान के बादलों की ओर एकटक देखते हुए गर्दन में दर्द पैदा कर लिया है, पर बादल बादल ही रहे। किसी की घनी काली लटों की बात भाड़ में जाए, उसमें कभी एक बाल भी मुझे ढूँढे न मिला। चाँद को देखते हुए आँखें पथरा-सी आई हैं; लेकिन कभी किसी की सूरत- मूरत नहीं नजर आई। ईश्वर ने जिसे इस प्रकार से विडम्बित किया है, उससे कविताएँ तो नहीं होने की। हो सकती है, सिर्फ एक बात, सच्ची बात तो सहज ढंग से कहना। अत: मैं वही करूँगा।

खानाबदोश मैं कैसे हो पड़ा, अगर यह कहूँ, तो जिन्दगी की शुरूआत में मुझ पर यह सुरूर जिसने चढ़ाया, उसका थोड़ा-सा परिचय देना जरूरी है। उसका नाम था इन्द्रनाथ। उससे मेरा पहले-पहल परिचय हुआ एक फुटबाल मैच में। सुबह-सुबह घर-द्वार, जगह-जायदाद, अपने सगे कुछ को छोड़कर जो एक कपड़ा पहने था, वही पहने जो वह निकला सो फिर कभी नहीं लौटा। उफ, भुलाए नहीं भूलता वह दिन !
स्कूल के मैदान में बंगाली मुसलमान छात्रों में मैच। साँझ हो चली थी। देखने में तल्लीन। खुशी की सीमा न थी। एकाएक-अरे बापरे ! यह क्या ! पटा-पट की आवाज और मारों साले को-पकड़ो साले को। कैसा सकपका गया। दो-तीन मिनट। इतने में कौन कहाँ हो गया, समझ न सका। होश में तब आया जब छाते का एक डण्डा मेरी पीठ पर ही टूटा और दो-तीन और भी माथे-पीठ पर पड़ने को तैयार। पाँच-छ: मुसलमान लड़कों ने मेरे चारों ओर व्यूह-सा बना डाला-भागने की कहीं कोई राह न रही।

फिर एक डण्डा, फिर एक.....। ऐसे ही समय बिजली की तरह जो आदमी ब्यूह के अन्दर धँस आया और मुझे ओट देकर खड़ा हुआ वही इन्द्रप्रस्थ था।
काला-सा लड़का। बाँसुरी-सी नाक, चौड़ा सुडौल कपाल, चेहरे पर दो-चार चेचक के दाग। ऊँचाई में मेरे ही जितना, लेकिन उम्र में कुछ बड़ा। बोला, ‘डरना कैसा ? मेरे पीछे-पीछे निकल आओ।’
उसमें जो साहस था, जो करुणा थी, दुर्लभ शायद हो, असाधारण न थी। लेकिन उसकी भुजाएँ तो सचमुच ही असाधारण थीं, इसमें ज़रा भी सन्देह नहीं।

सिर्फ़ ताकत के नाते नहीं कह रहा हूँ। लंबाई में ले उसके घुटने से नीचे पहुँच जाती थीं। इससे खास सहूलियत यही थी कि जिसे इसका पता नहीं, उसे कभी यह आशंका नहीं हो सकती थी कि झगड़े के मौके पर यह ठिगना-सा आदमी अचानक तीनेक हाथ लम्बा एक हाथ बढ़कर उसकी नाक पर गज़ब का मुक्का जमा देगा। और मुक्का भी किस गजब का ! बाघ का पंजा कहिए।
उसकी पीठ से सटा-सटा दो मिनटों में बाहर निकल पड़ा। इन्द्र ने बिना किसी आडम्बर के कहा, ‘‘भाग जा।’’
मैंने दौड़ना शुरू करते हुए पूछा, ‘और तुम ?’
उसे रुखाई से कहा, ‘अबे, तू तो भाग, गधा कहीं का !’ सो गधा ही हूँ या और कुछ, मुझे खूब याद है, मैंने सहसा पलटकर कहा, ‘नहीं।’

छुटपन में मारपीट किसने नहीं की ? मगर गँवई गाँव के हम-दो-तीन महीने पहले पढ़ने के लिए फूफी के यहाँ शहर में आया था, इससे पहले जमात बाँधकर मारपीट भी नहीं की कभी, इस तरह छाते के समूचे डण्डे भी कभी पीठ पर नहीं टूटे। तो भी मैं अकेला नहीं भागा। मेरी ओर ताककर इन्द्र ने कहा- ‘नहीं तो क्या खड़े-खड़े पिटोगे ? वह देख, उधर से वे लोग आ रहे हैं-अच्छा, लगा दौड़ कसकर....’
इस काम में सदा से तेज़ रहा हूँ। बड़े रास्ते पर जब पहुँचा, साँझ हो चुकी थी। दुकानों में बत्तियाँ जल उठी थीं और रास्ते पर म्युनिसिपैलिटी के मिट्टी के तेल की बत्तियाँ खंम्बों पर एक यहाँ एक वहां जलाई जा चुकी थीं। नज़ में जोर हो तो एक के पास खड़े होने पर दूसरी नज़र नहीं आती, ऐसा नहीं। दुश्मनों का अब खतरा नहीं। इन्द्र ने बड़े ही सहज स्वाभाविक गले से बात की। मेरा गला सूख गया था, मगर ताज्जुब, हाँफा तक नहीं ज़रा। कुछ हुआ ही न हो जैसे-पीटा नहीं, पिटा नहीं, भागा नहीं-नहीं, कुछ नहीं। कुछ इसी लहजे से उसने पूछा, ‘तेरा नाम क्या है रे ?’
‘श्रीकान्त !’

‘श्रीकान्त ? अच्छा।’-उसने कुरते की जेब से एक मुट्ठी सूखी पत्तियाँ निकालकर कुछ तो अपने मुँह में डालीं, थोड़ी-सी मेरे हाथ में देकर कहा, ‘कम्बख्तों की खासी मरम्मत की है-चबा।’
‘क्या है यह ?’
‘भंग।’
मैंने बहुत ही चौंकर कहा, ‘भंग ? मैं नहीं खाता।’
वह बड़ा हैरान होकर बोला, ‘नहीं खाता ? कहाँ का गधा है रे ! मजे का नशा आएगा- चबा। चबाकर घूट जा।’
नशे की मिठास तब तो मालूम थी नहीं। मैंने गर्दन हिलाकर लौटा दिया। वह उसे चबाकर निगल गया।
‘खैर, तो सिगरेट पी।’- दूसरी जेब से दो सिगरेट और दियासलाई निकालकर एक मुझे दी, एक उसने खुद सुलगा दी। उसके बाद दोनों हथेलियों को अजीब ढंग से जोड़कर एक सिगरेट को चिलम जैसा पीने लगा। उफ, पूछिए मत उस कश की ! एक ही कश में सिगरेट की आग ऊपर से नीचे तक आ गई। चारों तरफ आदमी। मैं बेहद डर गया। डरते हुए पूछा, ‘सिगरेट पीते कोई देख ले तो ?’

‘बला से ! सभी जानते हैं।’ कहकर बेझिझक दम लगाते हुए मेरे मन पर गाढ़ी छाप छोड़कर वह एक मोड़ से दूसरी तरफ चला गया।
उस दिन की बहुत-सी बातें आज याद आ रही है। सिर्फ एक बात नहीं याद आ रही है कि उस अजीब लड़के को प्यार किया था या इस तरह खुलेआम भंग खाने और सिगरेट पीने की वजह से मन ने उससे नफरत की थी।
इसको एक महीना बीत गया। उस रोज रात को जैसी शिद्दत की गर्मी थी, वैसा ही घटाटोप अंधेरा। एक पत्ता तब नहीं डोर रहा था। हम सब छत पर सो रहे थे। रात के बारह बज रहे थे, फिर भी किसी की आँखों में नींद नहीं। भजन की एक सहज धुन। जाने कितनी सुनी, मगर बाँसुरी भी ऐसा मोह ला सकती है नहीं जानता था। घर के पूरब-दक्खिन कोने पर आम-कटहल का एक बड़ा बगीचा था। इजमाल का बगीचा, कोई उसकी खोज-खबर नहीं लेता। पूरब बगीचा घना जंगल ही बन गया था। मवेशियों के जाते-आते से उसमें पतली-सी पगडण्डी बन गई थी।
ऐसा लगा, उसी पगडण्डी से वह धुन क्रमश: नजदीक आ रही है। फूफी उठ बैठीं। अपने बड़े लड़के से कहा, ‘क्यों रे नवीन, यह बाँसुरी क्या राय बाबू के यहाँ का इन्द्र बजाता है ?’ मैं समझ गया, ये सब लोग उस बाँसुरी वाले को जानते हैं।
बड़े भैया ने कहा, ‘उस बदनसीब के सिवा ऐसी बाँसुरी कौन बजा सकता है और उस जंगल में ही कौन जा सकता है ?’
‘अच्छा ! वह क्या गुसाईं बाग में से आ रहा है ?’
बड़े भैया ने कहा, ‘हूँ।’

ऐसे अँधेरे में पास के उस बीहड़ जंगल की याद करके फूफी शायद सिहर उठीं। डरते हुए पूछा, ‘उसकी माँ उसे मना करती भला ? गुसाईं बाग में ठिकाना नहीं कि साँप के काटे कितने लोग मरे-यह छोकरा रात को वहाँ क्यों ?’
बड़े भैया ज़रा हँसकर बोले, ‘क्यों फिर क्या ! उसे टोले से इस टोले में आने का वही आसान रास्ता है। जिसे जान की परवाह नहीं करनी पड़ी, वह बड़े रास्ते से घूमकर क्यों आने लगा ? उसे जल्दी आना है, सो राह में चाहे नदी-नाला हो, चाहे साँप और बाघ-भालू।’
‘खूब लड़का है !’ एक निश्वास छोड़कर फूफी चुप हो रहीं। बाँसुरी की धुन धीरे-धीरे खूब साफ हो आई और फिर धीमी होते-होते दूर में खो गई।
यह वही इन्द्रप्रस्थ था। उस दिन जी में आया था, काश, मेरे में भी उतनी ताकत होती और मैं भी उसी तरह से मार-पीट कर सकता। और जब तक आँखें नहीं लग गई, यही सोचता रहा, कहीं मैं भी इतनी अच्छी बाँसुरी बजा पाता।


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