आलोचना >> हिन्दी व्यंग्य साहित्य और बटुक चतुर्वेदी हिन्दी व्यंग्य साहित्य और बटुक चतुर्वेदीडॉ. भगवान सिंह अहिरवार
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हिन्दी व्यंग्य साहित्य और बटुक चतुर्वेदी
व्यंग्य परजीवी होता है, इसका कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है परन्तु यह साधन है साध्य नहीं। क्योंकि बिना पोषक के बीज पनप नहीं सकता। यह द्वैषपूर्ण नहीं कहा जा सकता क्योंकि रोचक एवं सरल शैली में रचित किसी नीरस या शुष्क हृदय की उपज न होकर एक सहृदय कलाकार की ही हो सकती है। व्यंगकार व्यक्तिगत परिवेश से उठकर आस-पास के लोगों की पीड़ाओं को समझते हुए इन्हें अभिव्यक्ति देना चाहता है, जिसका आभाष कई बार स्वयं भोगने वाले को भी नहीं होता।
बटुक जी के गीतों में आम आदमी का दर्द है तो उनकी व्यंग्य, कविताओं में विसंगतियों में धारदार प्रहार है। उनके हृदय में आम आदमी जो आज की समस्याओं तनावों, अभावों के बीच संघर्ष करता हआ दम तोड़ रहा है एक दृष्टांत देखिए"लगता है अब वह दिन दूर नहीं जब लोग कपड़ों के बगैर नंगे फिरेंगे और हम उनके त्याग पर गीत या ग़ज़लें लिखेंगे। बटुकजी गजलकार और अच्छे गीतकार हैं। उनकी गज़लों में चुटीला व्यंग्य है। आम आदमी की जिंदगी है। वहीं उनमें आस्था विश्वास और कहीं-कहीं आध्यात्मिकता की अपरोश अभिव्यक्ति दिखलाई देती है
किसी हाथ के हम खिलौने नहीं,
लगे माथे कोई डिठोने नहीं,
बड़े आदमी हम भले ही नहीं,
लेकिन बिचारों के बौने नहीं।
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