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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

उनका पारिवारिक जीवन सादगी से भरा पूरा था। यह एक ठेठ ब्राह्मण का घर था, जहां सारा काम-धन्धा घर की मालकिन ही सम्हालती थी, मगर पर्दे के पीछे रहकर ही। इसके लिए उन्हें कोई अभिमान नहीं था। जब सत्यभामा बाई मुश्किल से दस वर्ष की भी थीं, तभी उनका विवाह तिलक से हो गया था। उनसे तीन लड़के और तीन लड़कियां पैदा हुई। उनके लिए घर ही सारी दुनिया थी और पति ही परमेश्वर था। परिवार के सदस्यों में परस्पर बड़ा स्नेह था जहां दिखावे के स्नेह की अपेक्षा औपचारिक अनुशासन को अधिक महत्व दिया जाता था। तिलक को घरेलु कामकाज की प्रायः कोई चिन्ता नहीं रहती थी। घर की देखभाल उनके भतीजा घोंदोपन्त विद्वान्स किया करते थे, जिनका पालन-पोषण उन्होंने ही किया था। और ज्यों-ज्यों उनके सार्वजनिक कार्यकलाप बढ़ते गए, त्यों-त्यों उनका निजी जीवन सिमटता चला गया।

तिलक का निष्कलंक निजी जीवन, जिसकी सराहना उनके शत्रु भी किया करते थे, प्रायः उनके सार्वजनिक जीवन के साथ एकाकार हो गया था। दोनों में कोई अन्तर नहीं था। इसीलिए पारनेल की तरह उन्हें यह कहने की जरूरत नहीं थी कि मेरा सार्वजनिक जीवन देश के लिए है और निजी जीवन अपने लिए। किन्तु उनके सार्वजनिक और निजी जीवन के एकाकार हो जाने का दण्ड वस्तुतः सत्यभामा बाई को भुगतना पड़ा, फिर भी उन्होंने कभी भी अपने मुख से चूं-चकार नहीं की या शिकायत का एक भी शब्द नहीं निकाला। और जब तिलक 'लोकमान्य' बन गए-यानी जनता के हृदय सम्राट-तब, लगता है, विशुद्ध भारतीय संस्कारों में पली इस अपढ़ महिला को अपने पारिवारिक जीवन में आए परिवर्तन से खुशी नहीं, बल्कि व्याकुलता ही हुई होगी, क्योंकि तब से तिलक राजनीतिक दौरों तथा सम्मेलनों में व्यस्त रहने के कारण अक्सर घर से दूर रहने लगे थे और जब उनको छः साल की देश निकाले की सजा देकर मांडले में कैद कर दिया गया, तब तो उन्हें ऐसा गहरा धक्का लगा कि उससे वह कभी सम्हल नहीं पाईं।

अपने मित्रों और सहकर्मियों के प्रति गहरा प्यार तिलक के चरित्र का एक विशेष लक्षण था। हालांकि वह अपनी 'आत्मा को प्रसन्न रखने के लिए' कठोर परिश्रम करते थे, परन्तु अपने सहकर्मियों के प्रति उन्होंने ऐसी कड़ाई कभी नहीं बरती। वह उनकी कमियों और खामियों के प्रति उदार दृष्टिकोण रखते थे। यह एक तथ्य है कि राजद्रोह-सम्बंधी दोनों मामलों में अपने जिन लेखों के कारण वह दण्ड के भागी बने थे, उनमें से कुछ लेख उनके सहकर्मियों ने ही लिखे थे। किन्तु सम्पादक होने के नाते उनके कानूनी परिणामों को भुगतना उन्होंने अपना कर्तव्य समझा और कभी भी इस सम्बन्ध में कोई शिकवा-शिकायत नहीं की-गलती करने वाले अपने सहकर्मियों के प्रति उनके मन में कभी भी कोई दुर्भावना नहीं आई।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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