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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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दिसम्बर 1895 में पूना में हुए कांग्रेस-अधिवेशन के पण्डाल में ही सामाजिक सम्मेलन करने के प्रस्ताव से उन दोनों शिविरों के बीच रस्साकशी का एक और नया अवसर आ उपस्थित हुआ। दोनों तरफ से एक-दूसरे पर असम्भव-से-असम्भव आरोप लगाए गए और कुछ कट्टर-पंथियों ने यह भी धमकी दी कि वे पंडाल को जला देंगे। फलतः रानडे ने अन्यत्र सम्मेलन करने का निश्चय किया। इससे दोनों गुटों में टक्कर न हुई और रूढ़िवादियों ने इसे अपनी विजय समझा। 'वेदोक्त' घटना समय की दृष्टि से 1910 में होने के कारण बहुत बाद की चीज है, किन्तु इससे भी समाज-सुधार के मामले में तिलक के विवेकपूर्ण दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। प्रश्न यह था कि ब्राह्मणेतर जातियों तक वैदिक संस्कार के विशेषाधिकार का विस्तार किया जाए या नहीं। तिलक इसके विरुद्ध नहीं थे किन्तु वह ब्राह्मण पुरोहितों को बाध्य करने के विरुद्ध थे :

''प्रश्न यह था कि क्या किसी रूढ़िवादी ब्राह्मण को उसकी इच्छा के विरुद्ध प्राचीन शासकों द्वारा दिए गए 'इनामों' को जब्त करने का भय दिखा कर आह्मणेतर परिवारों में वैदिक रीतियों का पालन करने को बाध्य किया जाना चाहिए। इसको उचित मानने से व्यक्तिगत स्वाधीनता के सिद्धान्त का उर्ल्लघन होता है। मैं जानता हूं कि हर जाति, यदि चाहे तो, वेदोक्त रीतियों का पालन कर सकती है, लेकिन कोई भी प्राचीन शासकों-द्वारा दिए गए 'इनामों' की जब्ती को उचित नही ठहरा सकता।''

तिलक ने समाज-सुधारकों की सभी बातों का समर्थन कभी नहीं किया और उनको कई बार फटकारा भी, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह किसी भी सुधार का अंधाधुध विरोध करते थे। उनमें सत्य और असत्य को अलग करके देखने की अन्तंदृष्टि थी। उन्हेंने स्पष्ट कहा था कि ''यदि ईश्वर भी कहे कि मैंने अस्पृश्यता की व्यवस्था दी है, तो मैं ईश्वर के अस्तित्व को भी नहीं मानूंगा।'' इतने स्पष्ट शब्दों में महात्मा गांधी ने भी अस्पृश्यता के विरुद्ध नहीं कहा था। लेकिन तिलक महात्मा गांधी की भांति समाज-सुधार का काम हाथ में लेने को तैयार न थे, क्योंकि उन्होंने पहले ही निश्चय कर लिया था कि वह राजनैतिक संग्राम में ही जीवन बिताएंगे।

नारी-शिक्षा के विषय में तिलक के विचार बहुत उच्च थे। उनका कहना था कि इस शिक्षा को सुधार कर इस योग्य बनाया जाना चाहिए कि वह समाज का हित कर सके। यह आज भी सच है। इसी प्रकार वह बाल-विवाह के भी विरोधी थे, किन्तु वह सुधारकों के इस कथन को मानने के लिए तैयार नहीं थे कि बाल-विवाह ही देश के पतन का एकमात्र कारण है। वृद्धों का बाल-कन्याओं के साथ विवाह कराने के विरुद्ध तो उन्होंने आगरकर की तरह ही अपनी आवाज बुलन्द की थी। तिलक केवल मंचोपदेशक न थे। वह स्वयं वही करते थे, जो दूसरों को करने का उपदेश देते थे। निधन से एक वर्ष पूर्व, उन्होंने 36 डा० र० पु० परांजपे को 'बाम्बे क्रानिकल' समाचारपत्र के द्वारा जो जवाब दिया था, उससे सामाजिक विषयों के प्रति उनका दृष्टिकोण स्कट हो जाता है

''मैं इसमें विश्वास नहीं करता कि राजनैतिक मुक्ति के पूर्व ही सामाजिक पुन-निर्माण का प्रयत्न करना चाहिए । जब तक हमें अपना भविष्य स्वयं निश्चित करने की शक्ति नहीं प्राप्त हो जाती, तब तक, मेरी राय में, राष्ट्रीय पुनर्जागरण नहीं लाया जा सकता । मैंने अपने जीवन में सदा इसी विश्वास का प्रचार किया हें । जब मैंने 'एज आफ कन्सेन्ट बिल' का विरोध किया था, तो वह मुख्यतया केवल इसी आधार पर । मैं न तो तब समझता था और न ही अब समझता हूं कि ऐसा कोई भी विधान-मण्डल, जो जनता के प्रति. उत्तरदायी नहीं है, सामा- जिक विषयों पर कानून बनाने के लिए सक्षम है ।''

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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