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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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तिलक 1894 में बम्बई विश्वविद्यालय की सिनेट के फेलो निर्वाचित हुए। अगले वर्ष वह अपने साथी म० ब० नामजोशी के कहने पर पूना नगरपालिका के पार्षद भी हो गए। यद्यपि तिलक नगरपालिका की प्रबन्ध-समिति के भी सदस्य चुन लिए गए, फिर भी उन्होंने इसकी कार्रवाइयों में अधिक रुचि नहीं ली और नगरपालिका से उनका सम्बन्ध डेढ़ वर्ष के अन्दर-अन्दर टूट गया।

बम्बई विधान परिषद में तिलक की कार्य-अवधि अधिक थी। गोखले और रानडे ने उनके विरोधी उम्मीदवार का पक्ष लिया था, फिर भी वह 1895 में निर्वाचित हुए। 1892 के अधिनियम के अधीन गठित विधानपरिषदें उन दिनों थोड़ी अधिक गौरवपूर्ण वाद-विवाद-समितियां थीं। सदस्यों का निर्वाचन भी स्वतन्त्र नहीं था, क्योंकि गवर्नर को यह अधिकार था कि वह 'वीटो' से किसी भी सदस्य का निर्वाचन रह कर दे। सरकार के चापलूस आंग्ल-भारतीय पत्रों ने मांग की कि तिलक का निर्वाचन रद्द कर दिया जाए, क्योंकि वह 'विक्षिप्त पत्रकार' और 'बदनाम आन्दोलनकर्ता' हैं। 'केसरी' ने इसका उत्तर बड़े ही संयत शब्दों से दिया था :

''हमारे कुछ सहयोगी पत्रों का कहना है कि यदि सेंट्रल डिवीजन से तिलक का निर्वाचन हुआ तो (बम्बई के गवर्नर) लार्ड सैंड्हर्स्ट को अपने 'वीटो' के अधिकार का प्रयोग कर उसे रद्द कर देना चाहिए। यदि सरकार किसी निर्वाचन-क्षेत्र से चुने गए किसी प्रतिनिधि का चुनाव रद्द करे भी तो उसके साथ ही विधान-परिषदों को सुधारने के सभी प्रयत्न बेकार हो जाएंगे और इन्डियन कौन्सिल्स एक्ट, 1892 से जो-कुछ-भी थोड़ा-बहुत अच्छा काम हुआ है, वह नष्ट हो जाएगा।''

इस परिषद का हास्यास्पद रूप इसी से विदित है कि तिलक के सदस्य होने के बाद दो वर्षों में इसका अधिवेशन केवल आठ दिन ही हुआ और उन आठ दिनों में भी केवल 36 घण्टे ही। फिर भी तिलक ने बहस में सक्रिय भाग लेकर अवसर से पूरा-पूरा लाभ उठाया।

गोखले की भांति वह भी संसद्-सम्बन्धी प्रकाशित विवरणों के गम्भीर अध्येता थे। राजस्व, उत्पाद और वन-विभागों की कार्य-पद्धति की गम्भीर परिनिरीक्षा के बाद, उन्होंने कहा था : ''इस प्रेसिडेंसी की आय पिछले 25 वर्षो में बढ़कर 5 करोड़ 50 लाख रुपये हो गई है। भूमि, वन और आबकारी पर जितना भी कर लगाया जा सकता था, उतना लगाया गया है। किन्तु इससे हुई आय का एक छोटा अंश ही प्रान्त के विकास पर व्यय किया गया है।''

तिलक की विधान परिषद की सदस्यता के समय ही महाराष्ट्र में अकाल पड़ा, जिसका प्रधान कारण सरकार द्वारा सहायता-योजनाओं में की गई देर था। तिलक ने परिषद में जनता के कष्टों की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करने का पूरा प्रयत्न किया। जब किसी ने उनके स्पष्ट वक्तव्य की आलोचना की, तो उन्होंने जवाब दिया, ''परिषद की सदस्यता फुसलाने के लिए इनाम नहीं और न वह एक बन्धन है जिसके कारण उचित आलोचना न की जाए। और यदि वह ऐसा ही है तो मैं सरकार के बड़े-सें-बड़े अफसरों की गलतियों और कर्तव्य-विमुखता के विषय में चुप रहने की अपेक्षा परिषद से त्यागपत्र देना उचित समझूंगा।'' तिलक 1897 में पुनः सदस्य निर्वाचित हुए, किन्तु जब उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया तो उन्होंने परिषद से त्यागपत्र दे दिया।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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