जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
आन्दोलन का परिणाम यह निकला कि सरकार अकाल-सहायता-संहिता लागू करने के लिए बाध्य हो गई। ब्रिटेन में एक अकाल-सहायता-कोष भी खोला गया। अहमदनगर और सोलापुर के जुलाहे भी इस संहिता के अन्तर्गत सहायता के अधिकारी थे, किन्तु सरकार ने इस सम्बन्ध में तिलक की प्रार्थनाओ पर ध्यान न दिया और बहाना ढूंढ़कर 'सार्वजनिक सभा' की मान्यता भी वापस ले ली। 'मराठा' ने इसका उचित उत्तर दिया :
''सरकार किसी प्रार्थनापत्र को स्वीकार करे या न करे, लेकिन इससे सार्वजनिक विषयों पर सरकार का ध्यान आकृष्ट करने का किसी का अधिकार नहीं छिन जाता।''
अकाल के समय तिलक के सहायता-कार्य से दोहरे लाभ हुए। जनता के कष्टों का निवारण करने के साथ ही वह आम लोगों में राजनैतिक जाग्रति लाने में भी सफल हुए। वह जानते थे कि साहसी किसान देश की रीढ़ हैं जिनके टूटने का अर्थ होगा राष्ट्र का विनाश। अतः उनका मत था कि किसान ही देश के असली मालिक हैं। अतः उनकी उन्नति से ही देश की उन्नति हो सकती है। जिस देश की 85 प्रतिशत जनता अज्ञान और गरीबी से पीड़ित हो, वह देश कभी भी उन्नति नहीं कर सकता। आज हम यह कह सकते हैं कि 1896 में महाराष्ट्र के अकाल-पीडितों के सहायता-कार्य से तिलक के राजनैतिक आन्दोलन को बल प्राप्त हुआ। इसके इक्कीस वर्ष बाद सन 1917 में महात्मा गांधी ने भी चम्पारन और खेड़ा के आन्दोलनों द्वारा भारतीय राजनीति के मंच पर पदार्पण किया।
किसान हमारे राष्ट्रीय जीवन के कितने महत्वपूर्ण अंग हैं, इस पर ब्यौरेवार प्रकाश डालते हुए तिलक ने 'केसरी' में लिखा था : ''पिछले 12 वर्षों से हम सरकार का ध्यान आकृष्ट करने के प्रयत्न कर रहे हैं, किन्तु हमारी आवाज सरकार के कानों तक नहीं पहुंच पाई। हमारे शासक या तो हम लोगों की बातों पर विश्वास नहीं करते या विश्वास न करने का ढोंग रचते हैं। अब हमें जोरदार वैधानिक तरीकों से उनके कानों तक आवाज पहुंचाने की चेष्टा करनी चाहिए। हमें अशिक्षित किसानों को यथासंभव उत्तम शिक्षा देनी है। हमें उनसे बराबरी का व्यवहार करना है और उन्हें बताना है कि उनके अधिकार क्या हैं और किस तरह से वे उनके लिए वैधानिक ढंग से संघर्ष करें।
''तभी सरकार को ज्ञान होगा कि कांग्रेस की उपेक्षा भारतीय राष्ट्र की उपेक्षा है। तभी कांग्रेसी नेताओं के प्रयत्नों को सफलता प्राप्त होगी। ऐसे काम के लिए बड़ी संख्या में योग्य और लगनशील कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होगी जिनके लिए राजनीतिक कार्य शौकिया मनोरंजन का विषय न रहकर नित्यप्रति का एक ऐसा कर्तव्य होगा जिसे नियमित और अनुशासित ढंग से पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ सुसंपादिन करना होगा।''
जिस समय तिलक अकाल-पीड़ितों की सहायता में लगे थे, उस समय उन्हें पूना में फैली 1897 की प्लेग महामारी की ओर भी ध्यान देना पड़ा। सरकार ने महामारी रोकने के जो प्रयत्न किए, उनसे स्थिति और भी अधिक बिगड़ गई थी। कल्पना कीजिए कि जब महामारी की कोई दवा न थी, उस समय इसके प्रकोप से कितना आतंक छाया रहा होगा और उसे वश में करने के अमानुषिक सरकारी प्रयत्नों से कितना अधिक भय और रोष फैला होगा। वास्तव में लोगों के मन में महामारी से अधिक भय सरकार के प्लेग-निरोधक तरीकों से ही अधिक था।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट