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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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अध्याय 15  एकता की खोज

 

6 वर्षों की अवधि के बाद 16 जून, 1914 की अर्ध रात्रि के समय तिलक को दो पुलिस अफसरों के साथ पूना में उनके घर पहुंचाया गया और वहां वह मुक्त कर दिए गए। सरकार ने जानबूझ कर उनकी रिहाई की तारीख और समय ऐसा चुना, जिससे जनता किसी प्रकार का प्रदर्शन न कर सके। किन्तु लोगों को ज्यों ही मालूम हुआ कि लोकमान्य रिहा कर दिए गए हैं, त्योंही गाडकवाड़ वाड़ा में जनता की भीड़ अपनी शुभकामनाएं अर्पित करने के लिए उमड़ पड़ी और अगले दो-तीन दिनों तक तो वह दूर-दूर से आए लोगों से ही भेट-मुलाकात करते रहे।

शीघ्र ही तिलक का सार्वजनिक स्वागत करने का आयोजन किया गया। इस अवसर पर उन्होंने देश-निर्वासन के दिनों में दबी अपनी भावनाओं को दिल खोलकर व्यक्त किया। उन्होंने कहा-

''छः वर्षों बाद मैं फिर आपके बीच आया हूं और वर्त्तमान परिस्थितियों से अपने को अवगत करा रहा हूं। मेरी दशा कुछ-कुछ 'रिप वान विंकिल' के समान है, जो कई वर्षों तक सोता रहा और उठने पर उसने संसार को एकदम बदला पाया। सरकारी अधिकारियों ने मुझे इतने एकान्त में रखा कि ऐसा लगता था कि वे चाहते थे कि मैं संसार को भूल जाऊं और संसार मुझे भूल जाए। किन्तु मैं आप लोगों को भूल नहीं सका और यह देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता है कि आप लोगों ने भी मुझे विस्मृत नहीं किया है। मैं आपको केवल यह विश्वास ही दिला सकता हूं कि छः वर्षों की इस जुदाई से आपके प्रति मेरे प्रेम में तनिक भी कमी नहीं आई है और मैं आज भी पहले की तरह ही उसी ढंग से, उसी रूप में और उसी सामर्थ्य से आपकी सेवा करने को तत्पर हूं, यों सम्भव है कि इस सम्बन्ध में मुझे अपना रास्ता थोड़ा बदलना पड़े।''

तिलक ने सरकारी अधिकारियों पर जो तानाकशी की, उससे वे तिलमिला उठे। उन्हें यह आशा थी कि दूरस्थ स्थान में लम्बे कारावास से वह अपनी जनता का आदर-सम्मान और प्रेम खो बैठेंगे। भारत सरकार और बम्बई सरकार के बीच इस सम्बन्ध में हुए पत्र व्यवहार से तत्कालीन सरकारी मनोवृत्ति का पता लगता है। ये पत्र स्वतन्त्रता मिलने के बाद सुलभ हुए हैं।

तिलक का देश के हर कोने में जिस उत्साह से स्वागत हुआ कर उन्होंने सक्रिय राजनीति में भाग लेने का जो निर्णय किया, उससे स्वाभाविक ही था कि सरकार चिढ़ जाती। उसने विद्यार्थियों और सरकारी कर्मचारियों पर रोक लगा दी कि वे तिलक से मुलाकात नहीं कर सकते। उनके घर के सामने पुलिस का एक दस्ता बैठा दिया गया, जो उनके यहां आने-जानेवालों का नाम लिख लेता था। उन आगन्तुकों का नाम बाद में काली सूची में दर्ज कर दिया जाता था और उन्हें तरह-तरह से परेशान किया जाता था। पूना के जिलाधीश ने आदेश दिया कि आगामी गणपति उत्सव के अवसर पर तिलक के सम्मान में कोई स्वागत समारोह न हो। इतना ही नहीं, तिलक से यह भी कहा गया कि आप इस उत्सव में किसी भी रूप में सम्मिलित न हों। तिलक ने यह बात मान ली, क्योंकि तत्कालीन राजनैतिक स्थिति का पूरा जायजा लिए बगैर वह कोई विपत्ति मोल लेने की जल्दी में नहीं थे। 1908 से ही देश की राजनैतिक परिस्थिति में अपार परिवर्तन हो चुका था। कांग्रेस अब नरम दलवालों के कब्जे में थी। गरम दल वलि तितर-वितर हो निशक्त बन गए थे। अरविंद घोष के शब्दों में-''सारे देश में एक प्रकार की निस्तब्धता छाई हुई थीं। किसी को यह नहीं सूझता था कि वह किधर जाए। हर दिशा से ये ही प्रश्न गूंज रहे थे : हम क्या करें, हम क्या कर सकते हैं, अब आगे क्या हो?''

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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