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कविता संग्रह >> किरणवीणा

किरणवीणा

डॉ. संंजीव कुमार

प्रकाशक : वृंदा पब्लिकेशन्स प्रा लि प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16224
आईएसबीएन :9788182815476

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कविता संग्रह

आमुख

स्वप्नों का जीवन मधुर भी होता है और सुन्दर भी। मन की भावनायें यथार्थ में रखना के रूप में मुखर होती हैं और वह बनती हैं आधार-जीवन की क्रियाओं का स्थानी की किरणें जीवन को ज्योतित कर देती है और यह किरण जीवन में लाती हैं मधुर संगीत की धरोहर। स्वप्न तो जैसे इस "किरणवीणा" के द्वारा उस संगीत की लहरियों से मन की आह्लादित करते रहते हैं। चंचल मन स्वप्नों की दुनिया में खोजता है 'कितना असीम जीवन का राग'। यही किरण वीणा में अभिव्यक्ति के रूप में अभिजित हुआ है।

'स्वप्न मेरे मधुर सुन्दर स्वर्ग के तारक सुमन से' से किरण वीणा का भाव मुखर होता है। स्वज अगर 'तारक सुमन' बनकर ज्योतित होते है तो 'घन तम' में 'लघु दीप शिखा' बनकर आँखों में खिलखल' खेलते भी हैं। और कवि स्वप्न तरणि पर बैठ विहंगों मा मत की थाह लेता रहता है। उसे 'पीड़ा के तम से झिल मिल प्रभात' की किरण दिखती है। स्वप्न करुणा के पलों में मन को भविष्य की झलक दिखला जाते हैं और वह एक अमृतरूपी या औषधि रुपी प्रभाव होता है स्वप्नों का।

स्वप्नों की गति तीव्र होती है। जहां न पहुँचे मन, वहाँ पहुचे सपन' - जहाँ मन भी नहीं, पहुँच पाता स्वप्नों की पहुंच होती है। शायद अन्तश्चेतना में झाँकने की अवस्था या क्षमता स्वप्नों में अधिक और मन-मस्तिष्क में कम होती है। मन की छटपटाहट कभी कभी एक ही जगह ले जाती है। ममता का वह मन्दिर जीवन में कितना महत्वपूर्ण होता है. इसकी व्याख्या सम्भव नहीं। माँ की एक आवाज, उसका एक स्पर्श सारे दुखों की दूर करता है। और एक नयी चेतना समाहित कर देता है-तन में भी और मन में भी यही शक्ति शायद प्रकृति में भी होती है। प्रकृति की गोद में भी मन को जो अदम्य शान्ति मिलती है वह माँ की ममता से सर्वथा तुलनीय होती है, और करुणा एवं वेदना को भूलकर मन मयूर नाच उठता है-"तुम वीण बजाओं किरणों की, मैं नृत्य करूं मंथर मंथर" ऐसा अनुभूत होता है जैसे "शैशव का अबोध मन' पुनः जागृत हो उठा हो। अन्यथा यह भावना उपजने लगती है कि "जीवन यात्रा आधी बीती कुछ हाथ नहीं।"

स्वप्नों का आभा का संसार' उस जिर्जीविषा को जन्म देता जो आग उत्पा करती है-इच्छाशक्ति की उत्कटता के रूप में, जिससे स्वप्न यथार्थ में परिणित होने लगाते हैं। बस यही खोज है-'मैं तुम्हारी साधना में' या 'खोजता रहूंगा तुम्हें' में या 'देखें मैं तेरी छाया को' में।

स्वप्नों की हरीतिमा कभी कभी निराशा का भाव भी उपजाती है, और मन कह उठता है 'स्वप्न छलेंगे'-'चलते चलते कहाँ चलेंगे' जीवन यात्रा तो आशाओं और निराशाओं की लहरों की 'आँख मिचौली' है।

किन्तु 'संगीत मधुर है जीवन का' यदि भावना में आ जाये तो निस्संदेह वह आत्म विश्वास बढ़ाता ही है। और थके पाँव' फिर पुकार उठते है 'प्राण तुम आ जाओ'। स्वप्नों की किरणवीणा उस परमात्मन को मिलन की आशा में "आकुल" होकर पुकारती है।

भावनाओं में अनुभवों का सत्य भी समाहित होता है। दुनियावी बातों में लिप्त होकर आत्मा परमात्मन् से दूर हो जाती है और इसका 'मन को ज्ञान' भी नहीं होता। आत्मा का 'एक वही अलिंगन' 'रेशम के बंध' में अगर बँध जाये तो 'सपने सुहाने' हो जाते हैं और 'नेह की बाती' जल उठती है 'दीपशिखा' बनकर तम में प्रकाश की अनुभूति करवाने के लिये।

'किरण वीणा' का रचना काल 1992-93 का है। मेरी अभिव्यक्तियाँ काव्य मनीषियों को स्नेहपूर्वक समर्पित है और मैं उनके विचारों की उत्तरपेक्षी भी।

- डॉ. संजीव कुमार

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