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वापसी

गुलशन नंदा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 16263
आईएसबीएन :0

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गुलशन नंदा का मार्मिक उपन्यास

थोड़ी ही देर बाद मेजर रशीद, ब्रिगेडियर उस्मान और कर्नल। रज़ा अली उस पुराने किले की ओर रवाना हो गये, जहां भारत के क़ैदी नज़रबंद थे। इस कैम्प का कमांडर स्वयं मेजर रशीद था।

जैसे ही ब्रिगेडियर की फ्लैग कार किले के गेट पर पहुंची, गारद ने सावधान पोज़ीशन में बन्दूकों से सलामी दी।

शताब्दियों पुराना काले पत्थरों का बना यह किला अंधेरी रात में एक बड़ा मकबरा-सा प्रतीत हो रहा था। अन्दर की तरफ कांटेदार तारों का एक सिलसिला दूर तक चला गया था। बाहर राइफ़लें उठाये फ़ौजी पहरेदार पहरा दे रहे थे।

ब्रिगेडियर की फ्लैग कार के पीछे मेजर रशीद की जीप थी। गाड़ियां रुकते ही तीनों अफ़सर नीचे उतर आए। सामने खड़े सूबेदार ने एड़ियों पर खटाक की आवाज़ से सैल्यूट किया और आगे बढ़कर मेजर रशीद से बोला-''सब ठीक है साहब!''

''किसी क़ैदी ने भागने की कोशिश तो नहीं की?''

''नो सर।''

''क़ैदी नम्बर अठारह का क्या हाल है?''

''उसने भूख हड़ताल कर रखी है।'' सावधान खड़े सूबेदार ने उत्तर दिया।

मेजर रशीद कैम्प का ब्यौरा देते हुए दोनों अफ़सरों को लेकर पत्थर की उस कोठरी के पास पहुंचा, जिसमें कैप्टन रणजीत बंद था। लोहे का दरवाज़ा खुलते ही धुंधली रोशनी में अंगारों की-सी दो लाल आंखें चमकीं। अंदर खड़ा रणजीत दीवार का सहारा लेकर बैठने का व्यर्थ प्रयत्न करने लगा।

इस आदमी को देखते ही ब्रिगेडियर उस्मान के मस्तिष्क को एक झटका-सा लगा। कुछ देर तक वह क़ैदी को यों ही चुपचाप देखता रहा। फिर अचानक उसकी दृष्टि मेजर रशीद पर पड़ी। वह प्रकृति के इस अनोखे चमत्कार को विस्मय से देखने लगा। थोड़ी देर के लिए उसे यों लगा, मानो उसके सामने दो रशीद खड़े हों। कर्नल रज़ा भी आश्चर्य से उसे देखता रह गया।

''आखिर आप लोग इस तरह मुझे बार-बार क्यों देख रहे हैं?'' रणजीत बड़बड़ाया।

''कुदरत का क़रिश्मा देख रहा हूं। दो अलग-अलग मुल्कों, जुदा-जुदा कौमों के अफ़राद और इतने हमशक्ल कि अक्ल धोखा खा जाए।''

''कौन है मेरा हमशक्ल?'' वह कुछ झुंझला कर बोला।

''आइना देखोगे?''

''नहीं।'' वह गुस्से में बोला।

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