उपन्यास >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नंदा
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एक नदी दो पाट
यह अवसर फिर मिलना कठिन है। वह फिर इस लड़की को, जिसने उससे दाँव खेला, न पकड़ पाएगा। यह सोचकर वह चुपके से सोफे के पीछे से निकला और द्वार की ओर बढ़ा। लड़की उसे देखते ही झेंप गई। उसके पाँव वहीं रुक गए। उसकी समझ में न आया कि वह क्या करे।
ज्योंही विनोद ने भीतर से बाहर वाले द्वार को बंद किया, वह डर से काँप गई और शीघ्र कामिनी के कमरे की ओर बढ़ी। विनोद ने बिजली की-सी तेज़ी से लपककर उसके बाजू को पकड़ लिया और अपनी ओर खींचा।
'क्या है? आप मुझे यों क्यों पकड़ रहे हैं? मैं निर्दोष हूँ। आप मुझे यों क्यों देख रहे हैं?' थरथराते हुए स्वर में वह बोली। भय से उसका शरीर बर्फ के समान ठंडा हुआ जा रहा था; परंतु विनोद पर इन बातों का कोई प्रभाव न पड़ा। वह उसे चंद क्षणों के लिए अपनी पकड़ में पाकर प्रसन्न हो रहा था। उसके होंठों पर इस इस समय एक उपद्रव-सी हँसी छिपी हुई थी-वह हँसी जो मृत्यु से कुछ क्षण पहले अपने दुर्भाग्यमय जीवन पर आती है।
'तुम कामिनी हो न?' विनोद ने एक ही झटके में उसे सीधा करते हुए पूछा।
'नहीं तो, मैं हूँ कान्ती।'
'कान्ती...झूठ...तुम मुझे धोखा दे रही हो।'
'मैं सच कह रही हूँ...कामिनी ऊपर है।'
'तो तुमने मुझसे यह नाटक क्यों खेला? मुझसे इतना बड़ा छल क्यों किया?'
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