उपन्यास >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नंदा
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एक नदी दो पाट
सवेरे भाभी गोल कमरे में आई तो विनोद को यों बेसुध पड़े देखकर उसके पास आ खड़ी हुई। वह भी उदास दीख पड़ती थी। उसने विनोद से कोई प्रश्न नहीं किया; बल्कि पास आकर प्यार से गले लगाने का एक व्यर्थ प्रयत्न करने लगी। विनोद ने झुंझलाकर भाभी को अलग कर दिया और चिल्लाकर कहने लगा-'मेरे जीवन को यों नष्ट करने से तुम्हें क्या मिला?'
'मैं ही कब जानती थी कि हमसे इतना बड़ा धोखा होगा?'
'धोखा? यह भी कोई धोखे की मंडी है? दान, दहेज...सब घर से उठाकर बाहर फेंक दो। वह ले जाएँ अपनी लड़की...हम उसे कभी नहीं रखेंगे!'
'नहीं भैया, ऐसा मत कहो। इसमें उस बेचारी का क्या दोष! अब तो वह जीवन-भर के लिए तुमसे बँध गई।'
'तो काट दो ऐसे बन्धनों को। मैं यही समझूंगा कि वह प्रथम रात ही मर गई। मैं अपना पूरा जीवन यों नष्ट न होने दूंगा।'
'पागल न बनो...धैर्य से काम लो!'
'धैर्य...धैर्य...कैसा धैर्य?...मेरे सामने कोई मेरा घर फूँक देना चाहे और तुम कहती हो मैं धैर्य से काम लूं और खड़ा अग्नि की लपटों का तमाशा देखूँ?'
'परन्तु भैया, अब तो आग लग चुकी है और आग लगाने वाला जा चुका। अब तो उसे बुझाने की चिन्ता करनी चाहिए। ऐसा न हो कि यह लपटें बढ़ते-बढ़ते हम सबको अपनी लपेट में ले लें।'
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