भाषा एवं साहित्य >> क़ौल-ए-फ़ैसल क़ौल-ए-फ़ैसलमोहम्मद नौशाद
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सिनेमाई पर्दे पर हमने कितनी बार अदालती कार्रवाइयों का मेलोड्रैमैटिक रोमांच देखा है, गवाहों का हास्यास्पद कारवाँ देखा है, क़ाबिल वकीलों की चतुर बहसें देखी हैं; और इस मुबाहिसे में मुसलसल मशग़ूल और उचित न्याय के अपेक्षित परिणाम की व्याकुलता में उत्कण्ठित रहे हैं ! अपनी तफ़्सील में यह अदालती टेक्स्ट भी कम लोमहर्षक नहीं।
‘क़ौल-ए-फ़ैसल’ ऐसा दस्तावेज़ है जो अपनी ऐतिहासिकता के प्रति आश्वस्त है; और क्यों न हो ? इसमें इस्लाम और इंसाफ, मुसलमान और देशभक्ति; और हिन्दुस्तानी जम्हूरियत के विराट तसव्वुर का ऐसा नैतिक विस्तार है कि अँग्रेज़ी हुकूमत की तथाकथित इंसाफ़ पसन्दगी पानी माँगे, ऐसी तर्कणा कि पाश्चात्य विवेकशीलता थर्रा उठे, ऐसी धार्मिक विवेचना कि हर तरह के कट्टरपन्थी पनाह माँगें; और ऐसी भाषाई ख़ुद्दरी, अदबी लालित्य और पुरबिया लोच कि दिल बाग़-बाग़ हो जाए। स्वतन्त्रता के विद्वान सिपाही और स्वतन्त्र भारत के पहले शिक्षा मन्त्री, मौलाना आज्ञाद, तुम्हें हज़ारों सलाम; और इस किताब से मिलवाने का शुक्रिया, नौशाद !
– रविकान्त
अगर अपने लोकतन्त्र की विकृतियों से छुटकारा पाकर उसकी गुणवत्ता में इज़ाफ़ा करना है तो हमें मौलाना आज़ाद का अँग्रेज़ों की अदालत में दिया गया बयान क़ौल-ए-फ़ैसल पढ़ना-समझना चाहिए। मोहम्मद नौशाद ने इस ऐतिहासिक दस्तावेज़ का हिन्दी में अनुवाद करके भारतीय लोकतन्त्र की उल्लेखनीय सेवा की है।
– अभय कुमार दुबे
क़ौल-ए-फ़ैसल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के बौद्धिक और राजनीतिक व्यक्तित्व के उन पहलुओं से हमारा परिचय कराती है, जिन्हें सार्वजानिक विमर्श और अकादमिक बहसों-मुबाहिसों में आमतौर पर नज़रअंदाज़ किया जाता है। मौलाना के द्वारा प्रतिपादित स्वतन्त्रता के विचार की व्यापकता को समझने के लिए इस पुस्तक का अध्ययन बेहद ज़रूरी है। मोहम्मद नौशाद ने इस ग्रन्थ का अनुवाद करके हिन्दी-उर्दू के भाषाई संसार को इस कृति से परिचित करवाने की एक बेहद उम्दा कोशिश की है। अनुवाद इस तरह से किया गया है कि मूल ग्रन्थ की भाषाई विशिष्टता बरकरार रहे।
– हिलाल अहमद
भारत के मुसलमानों के समक्ष एक नाजुक स्थिति दरपेश है। एक तरफ़ उन्हें अपनी पहचान और गरिमा के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है तो दूसरी ओर उन्हें इस पहचान के परे जाकर लोकतन्त्र को मज़बूत बनाने में भी अपनी भूमिका अदा करनी है। मौलाना आज़ाद की शख़्सियत हमारे लिए इस बात की मिसाल है कि अपनी मुस्लिम अस्मिता को क़ायम रखते हुए भी कोई शख़्स कैसे जनता के एक बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व कर सकता है। आज ज़रूरत इस बात की है कि मुस्लिम समाज की आन्तरिक आलोचना के साथ बहुसंख्यकवाद की भी ख़बर ली जाए मोहम्मद नौशाद ने यह तर्जुमा ऐसे वक़्त पर किया है जब हमें ऐसी सामग्री की पहले से ज़्यादा दरकार है। हमें उम्मीद है कि उनका यह तर्जुमा इस प्रकरण को गहराई से समझने में मदद करेगा।
– डॉक्टर अजय गुडावर्ती
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