आचार्य श्रीराम शर्मा >> उत्तिष्ठत जाग्रत उत्तिष्ठत जाग्रतश्रीराम शर्मा आचार्य
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मनुष्य अनन्त-अद्भुत विभूतियों का स्वामी है। इसके बावजूद उसके जीवन में पतन-पराभव-दुर्गति का प्रभाव क्यों दिखाई देता है?
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धोखा किसी को नहीं देना चाहिए, पर धोखा खाना कहाँ की बुद्धिमानी है? हमें हरकिसी पर पूरा विश्वास करना चाहिए, साथ ही पैनी निगाह से यह देखते रहना चाहिए कि कहीं कोई इस विश्वास का गलत अर्थ तो नहीं लगा रहा है।
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जिसे हम बुरा समझते हैं, उसे स्वीकार न करना सत्याग्रह है और यह किसी भीप्रियजन, संबंधी या बुजुर्ग के साथ किया जा सकता है। इसमें अनुचित या अधर्म रत्ती भर भी नहीं है। इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं।प्रह्लाद, विभीषण, बलि आदि की अवज्ञा प्रख्यात है। अर्जुन को गुरुजनों से लड़ना पड़ा था और मीरा ने परिजनों का कहना नहीं माना था।
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यह दुनिया तुम्हारे कार्यों की प्रशंसा करती है, तो इसमें कुछ भी बुरा नहीं,खतरा तब है, जब तुम प्रशंसा पाने के लिए किसी काम को करते हो।
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वे मूर्ख हैं, जो पाप को पसंद करते हैं और दुःख भोगते हैं। तुम्हारे लिएदूसरा मार्ग मौजूद है, वह यह कि आधे पेट खाना, पर पाप कर्मों के पास न जाना।
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तुम क्या हो? यदि इस बात को जानना चाहते हो, तो आत्म-चिंतन करके देखो कितुम्हारे विचार कैसे हैं? जिस प्रकार की इच्छा और आकांक्षाएँ तुम्हारे मन में उठती रहती हैं, अवश्य ही तुम वही हो।
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'कल' शैतान का दूत है। इतिहास से प्रकट है कि इस 'कल' की धार पर कितनेप्रतिभावानों का गला कट गया। कितनों की योजनाएँ अधूरी रह गईं। कितनों के निश्चय जबानी जमा-खर्च रह गये। कितने 'हाय कुछ न कर पाया' कहते हुए हाथमलते रह गये।
'कल' असमर्थता और आलस्य का द्योतक है।
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सत्य मार्ग से ही उन्नति प्राप्त करनी चाहिए। परमेश्वर सब कार्यों को यथावत्जानता है। इसलिए उससे कोई भी पाप करके बचा नहीं जा सकता।
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