उपन्यास >> छाया रेखा छाया रेखाअमिताव घोष
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‘‘क्यों ठाकु’माँ ?” मैंने पूछा, “आपने ऐसा क्यों किया?”
मैंने उसे दे दिया,” वे ज़ोर से बोलीं, “मैंने उसे युद्ध कोष में दे दिया, मुझे देना ही था, समझते नहीं तुम ? तुम्हारे लिए। तुम्हारी मुक्ति के लिए वे हमें मार डालें, उसके पहले हमें उनको मार डालना होगा; हमें उनको मिटा देना है।”
वे रेडियो पर अपने दोनों हाथों से थपथपाने लगीं। मैं एक क़दम पीछे हटा, दरवाज़े के हत्थे को, अपनी पीठ पीछे पकड़ने की कोशिश करने लगा।
“यही एक अवसर है,” वे चीख़ीं, उनकी आवाज़ तीखेपन तक ऊँची हो गई। “…आख़िरकार हम उनसे ठीक ढंग से, टैंकों, तोपों और बमों से लड़ रहे हैं।”
फिर रेडियो का आगे वाला काँच, उनका घूँसा उस पर लगने से टूट गया। काँच के कुछ टुकड़े फ़र्श पर गिर पड़े और रेडियो घरघराकर चुप हो गया। उन्होंने घुमाकर अपना हाथ बाहर निकाला। काँच के किनारों से उनके मांस और त्वचा में खरोंचें पड़ गईं। उन्होंने अपने खून सने हाथ को एक झटका दिया, फिर अपनी गोद में रख लिया और हत्बुद्धि हो उसे घूरने लगीं, जबकि ख़ून की बूँदें उनकी साड़ी पर गिरकर उसे एक हल्के, बाटिक जैसे किरमिज़ी रंग से रँगती रहीं।
“मुझे अस्पताल जाना चाहिए,” उन्होंने स्वगत कहा। अब वे बिल्कुल शांत थीं। “यह सारा ख़ून बर्बाद नहीं करना चाहिए। मैं इसे युद्ध कोष में दे सकती हूँ।”
तब फिर मैं चीख उठा। अपने पेट के गह्वर में से मैं चीख़ा, अपना सिर पकड़े और अपनी आँखें बन्द किये हुए। मैं तब तक चीख़ता रहा जब तक कि मेरी माँ और नौकर आकर मुझे अपने कमरे में नहीं ले गये, लेकिन फिर भी मैं चीख़ता रहा और आँखें बन्द किये रहा।
जब मेरी माँ, डॉक़्टर के साथ मेरे कमरे में आयी, तब भी मैं बिसूर रहा था। उन्होंने मेरे सिर को थपथपाया और कहा, “डॉक्टर साहब तुम्हें एक इंजेक्शन देंगे ताकि तुम थोड़ी देर आराम कर सको।”
– इसी पुस्तक से
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