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देशमणि

शंकर दयाल शर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :111
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1657
आईएसबीएन :81-7315-001-x

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प्रस्तुत है देशमणि...

deshmaniDo. Shankar Dyal Sharma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

1
अब्दुर्र रहीम खान-ए-खाना

सूफी संत और भक्त कवियों का भारतीय इतिहास के मध्यकाल में महत्त्वपूर्ण प्रभाव रहा है। इस काल के चिंतकों और कवियों ने समाज में व्यापक मानवीय बोध को जगाया। उनके विचार और भावों की जो रसधारा प्रवाहित हुई, उससे समाज के सामने एक नए आदर्श का स्वरूप उभरा। इस नए स्वरूप में संकीर्णता और कट्टरता के लिए कोई भी स्थान था। अब्दुर्र रहीम, रसखान, जायसी आदि इसी व्यापक भाव-बोध के गर्भ से जनमे, पले और बड़े हुए। इन कवियों ने अपनी वाणी द्वारा मनुष्य के भीतर सोए हुए विराट अनुराग को जगाया।

रहीम का नाम सुनते ही मेरी आँखों के सामने भारतीय लोक-जीवन का व्यापक फलक घूम जाता है। रहीम के नीतिपरक दोहे हमारे व्यावहारिक जीवन के आधार तथा बोलचाल का अंग बन चुके हैं। रहीम का सीधा संबंध सत्ता से रहा। इसके बावजूद उनकी रचनाओं में लोक व्यवहार की जो बातें देखने को मिलती हैं, उनसे स्पष्ट होता है कि उनके मन में आम जन-जीवन के प्रति कितना गहरा लगाव था। रहीम एक सच्चे इन्सान थे। वह एक ऐसे इन्सान थे जिसका मन धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र की सीमाओं से बहुत ऊपर उठकर वहाँ पहुँच गया था, जहाँ सब कुछ सम-ही-सम है। बिना मन की उँचाई के कवि वैसी कविता नहीं लिख सकता जैसी रहीम ने लिखी। कभी-कभी तो तुलसीदास और रहीम के दोहों को एक साथ सुनने पर यह भ्रम भी हो जाता है कि कौन सा दोहा किसका लिखा हुआ है। भाव और भाषा की यह समानता रहीम को सर्वधर्म समभाव के एक श्रेष्ठ कवि के रूप में प्रतिष्ठित करती है। सूफियों और भक्तों का जो एकेश्वरवाद है, उनमें ईश्वर के प्रति एकनिष्ठ प्रेम की जो तीव्रता है, वह रहीम में भी देखने को मिलती है। इसी भावना से संबंधित एक दोहे में रहीम लिखते हैं-

रहिमन गली है साँकरी, दूजो ना ठहराहिं।
आपु अहै तो हरि नहीं, हरि तो आपुन नाहिं।।

ईश्वर तक पहुँचने की यह जो गली है, यह प्रेम की गली है। यह सँकरी गली है, जिसमें किसी अन्य के लिए स्थान नहीं होता। यहाँ तक कि स्वयं के लिए भी स्थान नहीं होता। प्रेम के प्रति यह अनन्य निष्ठा ही उन्हें मानवतावाद से जोड़ती है। मानवतावाद की यह भावना सूफी दर्शन के केंद्र में रही है।
रहीम भले ही सूफी संत न हों, लेकिन वह ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने सूफी दर्शन को जिया था और अपनी छोटी-छोटी रचनाओं द्वारा सूफी दर्शन को आम लोगों तक पहुँचाया था। भारतीय जन जीवन ने भी रहीम को और रहीम को दोहों को अपने अंदर समाहित कर लिया। सांस्कृतिक समन्वय और सर्वधर्म समभाव की दृष्टि से यह रहीम की बहुत बड़ी उपलब्धि थी, जो किसी भी युग के लिए एक उदाहरणस्वरूप है।

मध्यकाल में सूफी संतों और भक्त कवियों का बहुत बड़ा सांस्कृतिक योगदान रहा है। भले ही ऊपर से देखने पर ये दोनों धाराएँ अलग-अलग दिखाई देती हों, लेकिन अंदर से दोनों में बहुत समानता है। दोनों धाराओं ने एक दूसरे से बहुत कुछ लिया तथा एक दूसरे को मजबूत किया। इस काल में जहाँ एक ओर सूफियों और भक्तों का पारस्परिक मिलन हुआ, वहीं दूसरी ओर लोगों के सामने यह भी स्पष्ट हो सका कि वैदिक चिंतन और इसलामिक चिंतन में कितनी समानता है। सूफी सनातनी इसलाम की भाँति एकेश्वरवाद में विश्वास करते हैं। ऋग्वेद में भी एक ब्रह्म’ की बात कही गई है। ऋग्वेद में कहा गया है-‘‘एकम् सद् विप्रा बहुधा वदन्ति’ सत्य एक है, विद्वान लोग उसे अलग-अलग तरह से बताते हैं। हमारे यहाँ सर्वधर्म समभाव की बात न तो पश्चिम के उदारवादी चिंतन की देन है, और न ही वैज्ञानिक आविष्कारों का परिणाम है। बल्कि सर्वधर्म समभाव की हमारी बहुत लंबी परंपरा रही है। भारतीय सूफियों ने इसमें नया जीवन डाला और उसे विस्तार दिया।

सूफीवाद एक जीवन दर्शन था। यह दर्शन था जीवन जीने का, आचरण करने का। यह दर्शन मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने का दर्शन था। सूफियों ने प्रेम को सर्वोच्च स्थान दिया। सूफी साधक प्रेम के द्वारा परमात्मा को पाने की बात कहते है। अपनी बात को लोगों तक पहुँचाने तथा लोगों को समझाने के लिए सूफियों ने भारत में प्रचलित लौकिक प्रेम-कथाओं का सहारा लिया। प्रेम की इस प्रधानता ने तत्कालीन समाज को सहिष्णु बनाने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। सूफियों का यह प्रेम भले ही आध्यात्मिक क्यों न हो, लेकिन इससे उसका सामाजिक महत्त्व कम नहीं होता। लौकिक जगत् में प्रेम की भावना को व्यवहार में लाए बिना अलौलिक क्षेत्र में प्रेम की भावना आ नहीं सकती। वस्तुतः प्रेम की यह भावना मनुष्य से शुरू होकर समस्त प्राणियों पर से होती हुई ही ईश्वर तक पहुँचती है। कबीर ने इसे ही ढाई आखर प्रेम का कहा।
तुलसीदास ने इसे ही परहित सरिस धरम नहीं भाई कहा। प्रेम के इसी अतिरेक ने मीरा को ‘दिवानी’ बनाया। प्रेम की यही भावना सूर की गोपियों में व्याप्त है। उस काल में, चाहे वे सूफी कवि हों या भक्त कवि हों, सभी में आध्यात्मिक प्रेम की यही तीव्रता दिखाई पड़ती है। जिस युग से साहित्य में उदात्त प्रेम की इतनी तीव्र धारा प्रवाहित हो रही हो, उस युग का समाज इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।

सूफी कवियों ने तत्कालीन समाज के सामने समन्वय का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया था। हालाँकि सूफीवाद का जन्म फारस में हुआ था और भारतीय सूफियों पर फारसी का भी प्रभाव रहा, जो स्वाभाविक था। लेकिन हिंदी के अधिकांश सूफी कवियों ने भारतीय वातावरण, भारतीय परंपरा और भारतीय वर्णन शैली को अपनाया। सूफियों की प्रेम-कथाओं का आधार भारत में प्रचलित कथाएं रहीं। उनके छंद, उपमा और कथानक रूढ़ियाँ भारतीय परंपरा के निकट हैं। उन्होंने मसनवियों की छंद-योजना के स्थान पर चौपाई और दोहे को अपनाया। भाषा उनकी अवधी रही। इस तरह भाव और अभिव्यक्ति के स्तर पर भी सूफियों ने भारत की संस्कृति को मजबूत बनाया। आज भारत के अनेक क्षेत्रों में सूफी संतों के दरगाह हैं, जिन पर हिंदू और मुसलमान सभी की समान श्रद्धा है। ये दरगाह हमारे समाज के सांस्कृतिक केंद्र हैं जो समन्वय की सुंदर मिसाल प्रस्तुत करते हैं।

सूफियों ने भारत की सर्वधर्म समभाव की विरासत को अपने उदार दृष्टिकोण द्वारा एक शक्ति प्रदान की तथा उसके क्षेत्र को और भी व्यापक बनाया। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी बापू और पं. नेहरू जैसे नेताओं ने इस सर्वधर्म समभाव के बिरवे को सींचा। सर्वधर्म समभाव की जड़ें हमारी संस्कृति में बहुत गहरे समाई हुई हैं। यहीं कारण रहा कि धर्म के आधार पर देश का विभाजन होने के बावजूद भारत ने अपने सर्वधर्म समभाव की परंपरा को बरकरार रखा और उसे संविधान का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनाया। इसी सांस्कृतिक विरासत को आज और मजबूत करने तथा इस परंपरा को और आगे बढ़ाने की जरूरत है। मुझे विश्वास है कि यह गोष्ठी इस दिशा में बहुत उपयोगी और महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी। इस तरह के विचार विमर्शों से नए-नए तथ्य सामने आते हैं। हमारी संस्कृति के जो समृद्ध तत्त्व रहे हैं, उन्हें बिना किसी दुराग्रह के समाज के सामने लाया जाना चाहिए। केवल सामने ही नहीं लाया जाना चाहिए, बल्कि लोगों तक पहुँचाया भी जाना चाहिए। यह दायित्व आप बुद्धिजीवियों पर सबसे अधिक है।
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*अब्दुर्र रहीम खान-ए-खाना स्मारक समिति द्वारा ‘भारतीय संदर्भ में सूफीवाद की सामाजिकता’ विषय पर आयोजित गोष्ठि में, नई दिल्ली, 1 अप्रैल, 1989.

2
अलम्मा मोहम्मद इकबाल


इकबाल जी का नाम याद आते ही मेरे मन में राष्ट्रभावना से ओत-प्रोत उनकी वह अत्यंत लोकप्रिय तथा मधुर कविता गूँजने लगती है, जिसे भारत का बच्चा-बच्चा जानता है। ‘सारे जहा से अच्छा हिंदोस्ता हमारा’ की पंक्तियाँ राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान लोगों की जबान पर रहती थीं। गांधीजी इस नज्म के कायल थे। एक तरह से यह कविता और इकबाल एक दूसरे के पर्याप्त हो गए हैं। इकबाल की प्रतिभा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इतनी लोकप्रिय कविता की रचना उन्होंने लाहौर के एक जलसे के लिए सिर्फ तीन घंटों में की थी। यह कविता उनके राष्ट्रप्रेम तथा राष्ट्रीय चेतना की सर्वश्रेष्ठ गवाह है।

इकबाल के जन्म से केवल 18 वर्ष पूर्व ही भारत में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद हुआ था। बीसवीं शताब्दी का आरंभ काल राजनीतिक जन जागरण का था। राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रप्रेम के वशीभूत होकर देश का हर नागरिक अंग्रेजों से जूझने के लिए तैयार था। जागृति के ऐसे क्षणों में किसी भी सचेत नागरिक के लिए इस संघर्ष की ओर से आँखें बंद कर पाना संभव नहीं था। इकबाल की शायरी राजनीतिक आंदोलन की ऐसी ही जमीन से फूटी।

इकबाल की शयरी का प्रारंभ देशप्रेम तथा साम्राज्य विरोधी भावना से हुआ। वह आरंभ काल से ही ऐसी शायरी को व्यर्थ समझते थे, जिसका उद्देश्य मानव कल्याण न हो। वह साहित्य में प्रयोगवाद के भी कट्टर विरोधी थे। उनकी दृष्टि में ऐसी कलाकृति से कोई लाभ नहीं, जिसमें केवल कला के चमत्कार दिखाए गए हों। कला के प्रति इन्हीं मान्यताओं ने इकबाल की शायरी में मूलभूत परिवर्तन किए और उसे अपने युग के यथार्थ से जोड़ा। वस्तुतः इकबाल ने शायरी को प्रेम, सौंदर्य और विरह की परंपरावादी सीमाओं से निकालकर उसे राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन से जोड़ा। उन्होंने शायरी को क्रांति के विषय दिए। शोषक और शोषित के परम्पर संघर्ष के जो विषय हमें आज की उर्दू शायरी में देखने को मिलते हैं, उन पर सबसे पहले इकबाल ने कलम चलाई थी। इसके बाद पूरी पीढ़ी प्रभावित हुई, जिसे हम ‘जोश’ मलीहाबादी ‘फिराक’ गोरखापुरी, ‘हफ़ीज़’ जालंधरी आदि राष्ट्रवादी क्रांतिकारी शायरों में तथा वर्तमान में फैज़ अहमद ‘फैज़’ ‘सरदार जाफरी’ तथा ‘साहिर’ लुधियानवी आदि प्रगतिशील शायरों में देख सकते हैं।

इकबाल की शायरी का आरंभ ही देशप्रेम में डूबी हुई तथा भारत की पराधीनता और दरिद्रता पर खून के आँसू रुलानेवाली नज्मों की रचनाओं से हुआ। उन्होंने अपनी हिमालय कविता में उसके अनुपम सौंदर्य तथा भारत की प्राचीन सभ्यता का बखान किया। ‘मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है’ कविता में इकबाल ने देश में बहुधर्म स्वरूप के बावजूद एकता के गीत गाए। देश में हो रहे सांप्रदायिक दंगों से वह बहुत दुखी थे। वह इसका कारण साम्राज्यवादी शक्तियों की चाल तथा विभिन्न वर्गों के धार्मिक दृष्टिकोण की विभिन्नता को मानते थे। उनके मत से यदि सभी धर्म के लोग भारत की मूर्ति के पुजारी बन जाएँ तो विभिन्न वर्गों के बीच एकता स्थापित हो सकती है। उनकी दृष्टि में आपसी सौहार्द और एकता का अभाव भारत की दासता का मुख्य कारण था। वह अपनी एक कविता में कहते हैं-हे हिमालय (भारत) ! हे अटक (मुसलमान)। और हे गंगा (हिंदू) ! तुम कब तक इस प्रकार श्रीहीन जीवन व्यतीत करोगे।

हे हिमाला, ऐ अटक, ऐ रुद-ए-गंग,
जीस्तन ता कै बुना बे आब ओ रंग।

इकबाल ने स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़ी अनेक बातों पर अपनी कलम चलाई उन्होंने गांधीजी के व्यक्तित्व की महानता पर कविता लिखी, जलियाँवाला बाग और चौराचौरी की घटना पर कविताएँ लिखीं तथा स्वदेशी आंदोलन का समर्थन किया। इकबाल ने अपनी एक कविता में कहा है कि यदि तुम हिसाब अच्छी तरह समझते हो तो तुम जानोगे कि रेशमी कपड़ों से तुम्हारा खद्दर अधिक नरम है। उनकी आत्मा यह देखकर चीत्कार कर उठती है कि राजनीतिक पराधीनता के साथ-साथ भारतवासी पश्चिमी संस्कृति के भी गुलाम होते जा रहे हैं। उन्होंने अनेक स्थानों पर भारतीय संस्कृति की महानता के गीत गाए तथा भारतीयों को अपना स्वाभिमान जाग्रत करने के लिए कहा। उन्होंने आह्वान किया कि भारतीय अपने आत्मबल को पहचानें। वे कोई निर्जीव प्राणी नहीं हैं, बल्कि वे अपनी शक्ति से प्रकृति को बदल सकते हैं तथा स्वयं को खुदा से भी श्रेष्ठ सिद्ध कर सकते हैं। वह लिखते हैं-

खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तदबीर से पहले।
खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है।।

इकबाल ने ‘जावेदनामा’ में प्राचीन संस्कृति को बड़े आदर की दृष्टि से देखा है और यह दिखाया है कि वह वेदों उपनिषदों तथा ऋषि मुनियों के विचारों से किस प्रकार लाभान्वित हुए हैं। इस रचना में कवि शिव, गौतम बुद्ध भर्तृहरि तथा विश्वामित्र से संवाद करता है। उन्होंने गुरु नानक पर एक हृदयस्पर्शी कविता लिखी और उनके एकेश्वरवाद की प्रशंसा की। इसी कविता में उन्होंने महात्मा बुद्ध की भी प्रशंसा की और उनके उपदेशों के प्रति देशवासियों की उदासीनता पर अपनी नाराजगी व्यक्त की। वह स्वामी रामतीर्थ से भी बहुत प्रभावित थे, जो उनके समकालीन थे। रामतीर्थजी की मृत्यु पर उन्होंने कविता लिखी थी। उन्होंने राम पर कविता लिखते हुए कहा-

है राम के वजूद पर हिंदुस्ताँ को नाज।
अहले नजर समझते हैं, उसको इमामे हिंद।।

इकबाल को हिंदू संस्कृति और मिथक की विस्तृत जानकारी थी, जो उनके ‘जावेदनामा’ में व्यक्त हुई है। इस कृति में केवल जीवन-दर्शन ही नहीं बल्कि देश के प्रति असीम प्रेम और पराधीनता के प्रति घोर घृणा भी मिलती है। वह इसमें लिखते हैं कि बुध ग्रह पर नरक का सबसे निचला तथा निकृष्ट भाग उन लोगों के लिए है, जो देशद्रोह के अपराधी हैं। वह इसमें मीर जाफर जैसे देशद्रोही व्यक्तियों को धिक्कारते हैं।

गांधीजी और पंडित जवाहरलाल नेहरू दोनों इकबाल की शायरी के प्रशंसक थे। गांधीजी उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित थे तथा उन्होंने इकबाल से जामिया मिलिया इसलामिया विश्वविद्यालय के कुलपति का पद ग्रहण करने के लिए कहा था। नेहरूजी ने ‘डिस्करवरी ऑफ इंडिया’ में लिखा है, ‘‘उनसे बातें करते हुए मैंने अनुभव किया कि इख़्तलाफ़ के बावजूद हम दोनों बहुत सी बातों में हम खयाल थे। मैं उनको और उनकी शायरी को बहुत पसंद करता था।’’
निश्चित रूप से इकबाल की शायरी में राष्ट्रीय चेतना की आभा मिलती है। ऐसे समय में जबकि भारतीय जनता को उद्बोधन की आवश्यकता थी, उन्होंने अपनी शायरी को इसका आधार बनाया। उर्दू शायरी के क्षेत्र में यह उनकी सबसे बड़ी देन है।
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*श्री एस.एम.एच. बर्नी की पुस्तक इकबाल की शायरी और राष्ट्रीय चेतना के विमोचन के अवसर पर, नई दिल्ली, 26 अगस्त, ’88
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3
अमीर खुसरो


अमीर खुसरो का नाम भारतीयों के लिए एक अत्यंत जाना-पहचाना और अपना नाम बन गया है। अपनी बहुमुखी प्रतिभा, व्यापक जीवनदृष्टि और उदार हृदय के कारण वह अपने समय के सभी वर्गों के बीच लोकप्रिय रहे और इन्हीं महान् गुणों के कारण वह आज भी भारतीय जन जीवन के बीच अत्यंत प्रिय हैं। उनके कार्यक्षेत्र की विविधता और रुचि की विलक्षणता को देखकर सचमुच कभी-कभी बहुत आश्चर्य होता है। साहित्य के क्षेत्र में, भाषा के क्षेत्र में इतिहास राजनीति अध्यात्म और संगीत के क्षेत्र में उन्होंने अपनी जिस अद्भुतप्रतिभा का परिचय दिया, वह विरले लोगों में ही मिलती है। उन्होंने अरबी फारसी, उर्दू और खड़ीबोली हिंदी में साहित्य रचा। ‘एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका’ में उन्होंने ‘फारसी कवियों में महानतम’ बताया गया है। उन्होंने उर्दू के प्रतिमा गढ़ी। उन्हें खड़ी बोली का आदिकवि भी कहा जाता है। ‘नूर सिपहर’ का लेखन करके उन्होंने अपने इतिहासकार होने का परिचय दिया। अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ के द्वार वह तीन विभिन्न वंशों के ग्यारह शासकों के चहेते रहे। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के सबसे प्रिय शिष्य के रूप में उन्होंने सूफी चिंतन की उदारता, प्रेम की भावना और मानवतावादी जीवनदृष्टि को अपनी सरल और सहज शैली द्वारा देश के आम लोगों तक पहुँचाया। कव्वाली और अन्य अनेक राग-रागिनियों की रचना करके तथा तबला, ढोल और सितार जैसे बहुप्रचलित वाद्ययंत्रों का आविष्कार करके उन्होंने अपने महान संगीतज्ञ होने का प्रमाण प्रस्तुत किया।

अपनी इस प्रतिभा के कारण अमीर खुसरो मध्ययुगीन संस्कृति की अभिव्यक्ति के स्वरूप बन गए थे। इसलिए उन्हें ‘तूती-ए-हिंदी’ के सम्मान से अलंकृत किया गया। मुझे सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह लगती है कि अमीर खुसरो ने इन सभी क्षेत्रों में किसी बनी बनाई परंपरा का अनुकरण नहीं किया, बल्कि उन्होंने नई परंपराओं की शुरूआत की, जिसका बाद के लोगों ने अनुकरण किया। एक नई राह बनाने का काम बहुत कठिन होता है, फिर ऐसी राह बनाने का काम तो और भी कठिन होता है, जिस पर भविष्य में लगातार लोगों के कदम बढ़ते रहें। अमीर खुसरों ने ऐसे ही मार्ग का निर्माण करके अपनी मौलिक और अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया। खुसरो की इसी विलक्षण प्रतिभा को देखते हुए मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने बिलकुल सही कहा था कि ‘‘भारत के सात सौ वर्षों की अवधि में अमीर खुसरो जैसे प्रतिभावान, अप्रतिम विद्वान व्यक्ति को जन्म नहीं दिया।’’

मैं अमीर खुसरो को भारत की सामाजिक संस्कृति की ऐतिहासिक देन तथा इस महान् संस्कृति के उदात्त आदर्शों का सशक्त प्रवक्ता मानता हूँ। वह लेखक और कवि थे। साथ ही वह सूफी आस्था और आचरण से संपन्न एक संत भी थे। जब उनकी लेखकीय प्रतिभा के साथ सूफी आस्था का समन्वय हुआ, तब हमारे देश को अमीर खुसरो का बहुमूल्य साहित्य मिला। समन्वय की भावना भारतीय संस्कृति की समृद्धि और सुदृढ़ता का आधार रही है और अमीर खुसरो ने अपने कार्य, व्यवहार और चिंतन द्वारा सर्वत्र इसी समन्वय का संदेश दिया। समाजा साहित्य भाषा, धर्म और संस्कृति आदि सभी क्षेत्रों में उन्होंने किसी भी प्रकार की संकीर्णता को प्रश्रय नहीं दिया और उदार भाव से समन्वय पर जोर दिया। मुझे लगता है कि अमीर खुसरो की प्रतिभा में हमें जो एक हृदयग्राही आकर्षण मिलता है, उसका मूल कारण यही है कि उन्होंने उदारता को अपने जीवन का आधार बनाया। इसलिए वह झील के स्थान पर समुद्र बन सके, अनंत चिरकालिक समुद्र, जो सबको अपने में समेट लेता है।

अमीर खुसरो के जीवन में भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं था। मनुष्यता ही उसके लिए सबसे बड़ी चीज थी। हम कह सकते हैं कि उन्होंने देश, काल जाति और धर्मनिरपेक्ष समाज की परिकल्पना की थी, एक ऐसे समाज की परिकल्पना, जिसमें लोग प्रेम के आधार पर एक-दूसरे से जुड़े हुए होंगे। सामाजिक और धार्मिक तनाव के तत्कालीन परिवेश में अमीर खुसरो ने प्रेम का संदेश देकर समाज को सम बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया था। उनकी तड़प को व्यक्त करने वाली ये पंक्तियाँ कितनी सशक्त हैं-

काफिरे इश्क इश्कम मुसलमानी मरा दरकार नीस्त।
हर रगे मन तारे गाश्ता हाजते जुन्नर नीस्त।।

अर्थात् ‘‘मैं प्रेम का काफिर हूँ, मुझे मुसलमानी की जरूरत नहीं। मेरी एक-एक रग तार बन गई है, जनेऊ नहीं चाहिए मुझे।’’ उन पंक्तियों में हिंदू-मुस्लिम एकता की उनकी भावना स्पष्ट रूप से व्यक्त हुई है। यही परंपरा हमें कबीर में नानक में तथा पूरे भारतीय संत साहित्य में स्पष्ट दिखाई पड़ती है। अमीर खुसरो की यह भावना भारत के सर्वधर्म समभाव की भावना का एक अच्छा उदाहरण है। सर्वधर्म समभाव की इस भावना की इस देश को उस समय भी आवश्यकता थी और आज भी है। इसलिए अमीर खुसरो हमारे समाज के लिए अत्यंत प्रासंगिक बन जाते हैं।




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