लोगों की राय

ऐतिहासिक >> मृगनयनी

मृगनयनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :320
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1660
आईएसबीएन :81-7315-015-x

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

306 पाठक हैं

प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास...

Mrignayani

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मानसिंह ने नाहर का बारीकी के साथ निरीक्षण किया। नाहर ने केवल एक तीर खाया था। राजा ने पूछा, ‘नाहर की गरदन पर किसका तीर बैठा ?’
निन्नी ने सिर झुका लिया। लाखी ने तुरंत सामने होकर उत्तर दिया, ‘निन्नी–मृगनयनी का।’
राजा ने दूसरा प्रश्न किया, ‘अरने के माथे पर बरछी किसकी खोंसी हुई है ?’
लाखी बोली, ‘मृगनयनी की।’
‘वाह ! धन्य हो !! तुम दोनों धन्य हो !!!’ मानसिंह के मुंह से निकला और उसने अपने गले से सोने का रत्नजड़ित हार निकालकर निन्नी के गले में डाल दिया।

इसी उपन्यास से

परिचय


1949 के अंत में ग्वालियर की एक सम्मानित पाठिका ने मुझसे मृगनयनी और मानसिंह तोमर के ऐतिहासिक रूमानी कथानक पर उपन्यास लिखने का अनुरोध किया। उन दिनों ‘टूटे काँटे’ उपन्यास समाप्ति पर आ रहा था। उसको सामाप्त करके कुछ लिखने की वांछा मन में थी ही, अवसर पाते ही मैंने उस कथानक की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का अध्ययन आरम्भ कर दिया। जिन स्थानों का संबंध उपन्यास की मुख्य कथा से है, उनका भ्रमण भी किया।

मानसिंह तोमर 1486 से 1516 ई. तक ग्वालियर का राजा रहा। इतिहास-लेखक फरिश्ता ने मानसिंह को वीर और योग्य शासक बतालाया है। अंग्रेज इतिहास-लेखको ने मानसिंह के राज्यकाल को तोमर-शासन का स्वर्णयुग (Golden Age of Tomer Rule) कहा है। पंद्रहवीं शताब्दी के अंत और सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ  को राजनीतिक  और आर्थिक दृष्टि से भारतीय इतिहास का कराल कठोर और काला युग कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। उत्तर में सिकंदर लोदी और उसके सहयोगियों के परस्पर युद्ध तथा दोनों द्वारा घोर जनपीड़न; राजस्थान में राणा कुम्भा का अपने बेटे के ही हाथ से विष द्वारा वध और उसके उपरांत वहाँ की अराजकता; गुजरात में महमूद बघर्रा के अगणित विजन और रक्तपात; मालवा में ग्यासुद्दीन खिलजी और उसके उत्तराधिकारी नसीरुद्दीन की अत्याचार-प्रियता और ऐयाशी; दक्षिण में वहमनी सल्तनत और विजयनगर राज्य के युद्ध और वहमनी सल्तनत का पाँच सल्तनतों में बिखर जाना; जौनपुर, बिहार और बंगाल में पठान सरदारों की निरंतर नोच-खसोट; और इन सब के लगभग बीच में ग्वालियर।

ग्वालियर पर सिकंदर लोदी के पिता, बहलोल ने आक्रमण किए, फिर सिकंदर ने ग्वालियर का कचूमर निकालने में कसर नहीं लगाई। सिकंदर ग्वालियर पर पाँच बार वेग के साथ आया। पाँचों बार उसको मानसिंह के सामने से लौट जाना पड़ा। उसके दरबारी इतिहास–लेखकों, अखबार नवीसों ने लिखा है कि मानसिंह ने प्रत्येक बार सोना-चाँदी देने का वादा सोना-चाँदी नहीं देकर टाला। आश्चर्य है सिकंदर सरीखा कठोर योद्धा मान भी लेता था ! अंत में सिकंदर को 1504 में आगरा का निर्माण इसी मानसिंह तोमर को पराजित करने के लिए करना पड़ा, इसके पहले आगरा एक नगण्य–सा स्थान था। तो भी सिकंदर सफल न हो पाया। ग्वालियर पर घेरा डालकर नरवर पर चढ़ाई कर दी। नरवर ग्वालियर राज्य में था। उस पर दावा राजसिंह कछवाहा का था। राजसिंह ने सिकंदर का साथ दिया। तो भी नरवर वाले 11 महीने तक लगातार युद्ध में छाती अड़ाए रहे। जब खाने को घास और पेड़ों की छाल तक अलभ्य हो गयी, तब उन लोगों ने आत्म-समर्पण किया। फिर सिकंदर ने मन की जलन नरवर स्थित मंदिरों और मूर्तियों पर निकाली। वह छह महीने इसी उद्देश्य से नरवर में रहा।

  ऐसे युग में इतने संकटों मे भी, मानसिंह हुआ। और उसने तथा उसकी रानी मृगनयनी ने जो कुछ किया, उसका प्रत्यक्ष प्रमाण आज भी हमारे सामने है। ग्वालियर किले के भीतर मानमंदिर और गूजरी महल हिंदू वास्तु-कला के अत्यंत सुंदर और मोहक प्रतीक हैं तथा ध्रुवपद और धमार की गायकी और ग्वालियर का विद्यापीठ, जिसके शिष्य तानसेन थे, आज भी भारत भर में प्रसिद्ध हैं। जिसको मुगल वास्तु और स्थापत्य कला कहते हैं वह क्या मानसिंह के ग्वालियर के शिल्पियों की देन नहीं है ?
महाकवि टैगोर ने ताज महल को ‘काल के गाल का आँसू’ कहा है। यदि मैं (जिसको कविता पर अंशमात्र का भी दावा नहीं है) मानमंदिर और गूजरी महल को ‘काल के ओठों की मुस्कान’ कहूँ तो महाकवि टैगोर के उस वाक्य का एक प्रकार से समर्थन ही करूँगा।

जब 1527 में बाबर ने मानमंदिर और गूजरी महल को देखा तब उनको बने 20 वर्ष हो चुके थे। सन् 1507 में ये बन चुके थे। गूजरी रानी मृगनयनी के साथ मानसिंह का विवाह 1492 के लगभग हुआ  होगा। मानमंदिर और गूजरी महल के सृजन की कल्पना को मृगनयनी से प्रेरणा मिली होगी। बैजनाथ नायक (बैजू बावरा) मानसिंह मृगनयनी के गायक थे। गूजरी टोड़ी, मंगल गूजरी इत्यादि राग इसी मृगनयनी के नाम पर बने हैं। जिन सम्मानित पाठकों ने मृगनयनी के कथानक पर उपन्यास लिखने का अनुरोध किया था, उन्होंने ठीक लिखा की मृगनयनी शौर्य और कला दोनों के लिए विख्यात थी।

 मृगनयनी गूजर कुल की थी। राई गाँव की दरिद्र कन्या शारीरिक बल और परम सौन्दर्य के लिए ब्याह के पहले प्रसिद्ध हो गई थी। परंपरा में तो उसके विषय में यहाँ तक कहा गया है कि राजा मानसिंह राई गाँव के जंगल में शिकार खेलने गए तो देखा कि मृगनयनी (उपन्यास के आरंभ की निन्नी) ने जंगली भैंसे को सींग पकड़कर मोड़ दिया ! एक साहब ने परम विश्वास के साथ मुझको बताया कि राजा मानसिंह अपने महल में बैठे हुए थे। नीचे देखा कि जंगली भैंसे के सींग पकड़कर मृगनयनी मरोड़ रही है और उसको मोड़ रही है !! ग्वालियर किले के भीतर जंगली भैंसा पहुँच गया और राई गाँव से, जो ग्वालियर से पश्चिम–दक्षिण में ग्यारह मील है, मृगनयमनी जंगली भैंसे को मोड़ने-मरोड़ने के लिए आ गई !!!
मैंने पहली परम्परा को ही मान्यता दी है। ग्वालियर गजीटियर में उसी का उल्लेख है। फिर मैंने गूजरों में घूम फिर कर बातें कीं। उन्होंने भी उसी का समर्थन किया।

पहाड़ों में होकर सांक नदी राई गांव के नीचे से निकलती है। सांक नदी पर तिगरा का बाँध बँध गया है और राई गाँव डूब गया है। राई के ऊपर ऊँची पहाड़ी पर स्थित उसके भाई की गढ़ी भी अब खंडहर हो गयी है। परंतु उसके भाई अटल और लाखी के त्यागों के खंडहर नहीं हो सकते।

गुजरात का महमूद बघर्रा नित्य जितना कलेवा और भोज करता था, वह पारसी की तारीख ‘मीराने सिकंदरी’ में दर्ज है। इलियट और डासन ने इसका अनुवाद किया है। मालवा सुल्तान नसीरुद्दीन की पंद्रह हजार बेगमें थीं। राज्य इसने पाया था वासनाओं की तृप्ति के लिए अपने बाप को जहर देकर। जब लगभग 100 वर्ष पीछे मुगलबादशाह जहाँगीर मालवा की राजधानी मांडू गया और उसने नसीरुद्दीन के करिश्मों का हाल सुना तब उसको इतना क्रोध आया कि नसीरुद्दीन की कबर उखड़वा डाली और उसकी हड्डियों को जलवा दिया। नापाक था, नापाक था वह !! जहाँगीर ने कहा था। उसकी कबर को जहाँगीर न भी उखड़वाता तो भी आज वह बेपता, बेनिशान खंडहर होता। मानसिंह और मृगनयनी की, लाखी और अटल स्मृति का खंडहर तो कभी होगा ही नहीं।

उपन्यास में आए हुए सभी चरित्र, थोड़ों को छोड़कर, ऐतिहासिक हैं। विजयजंगम लिंगायत था। ग्वालियर के किले के भीतर जैसे तैलमंदिर (उसका नाम तेली का मंदिर गलत है) बना, उसी प्रकार कर्नाटक से विजय ग्वालियर में प्रादुर्भूत हुआ। लिंगायत संप्रदाय का वासवपुराण दक्षिण में बारहवीं शताब्दी में लिखा गया था। इस संप्रदाय में वर्ण भेद का तिरस्कार किया गया है। श्रम गायक को जो महत्व और गौरव वासन ने दिया उसको देखकर दंग रह जाना पड़ता है। संसार के किसी भी देश में उस समय श्रम और श्रमिकों को गौरव नहीं दिया गया था। उसका श्रेय लिंगयात संप्रदाय के अधिष्ठाता को ही है। साथ ही, अहिंसा, सदाचार और मादक वस्तु-निरोध पर जोर दिया गया है उससे जान पड़ता है जैसे अधिष्ठाता का जन्म बीसवीं शताब्दी में हुआ हो। अधिष्ठाता ब्राह्मण थे और उनकी बहिन एक क्षत्रिय नरेश को ब्याही गयी थी-वह कभी बारहवीं शताब्दी में।

विजयजंगम लिंगायत मानसिंह तोमर का मित्र था। मानसिंह ने इससे भी कुछ पाया तो कोई आश्चर्य नहीं। विजयजंगम मेरे मित्र श्रीयुत श्रीनारायण चतुर्वेदी, सरस्वती संपादक, के पूर्वज थे।
जाँतपाँत ने भारत में रक्षात्मक कार्य भी किया और आज भी शायद कुछ कर रही हो, परंतु उसका विनाशात्मक काम भी कुछ कम नहीं हुआ है। अप्रैल सन् 1950 में छपी एक घटना है। टेहरी (अल्मोड़ा के एक गाँव) में एक लुहार ने 12 वर्ष हुए दूसरी जाति की लड़की के साथ विवाह कर लिया। 12 वर्ष तक यह लुहार जाँतपाँत से बाहर रहा। कहीं अब, अप्रैल में गांव की नयी पंचायत ने उसको बहाल किया। फिर पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में लाखी और अटल के सिर पर क्या क्या न बीती होगी, उसकी कल्पना ही की जा सकती है।
लाखी और अटल की कथा के साथ नटों का संबंध है। नटों और नरवर के प्रसंग में एक दोहा प्रचलित है-


नरवर चढ़ै न बेरनी, बूँदी छपे न छींट,
गुदनौटा भोजन नहीं, एरच पके न ईंट।


किंवदंती है, किसी ने एक नटिनी (बेड़नी) को नरवर किले से बाहर रस्से पर टँगे-टँगे जाकर (जो किले के बाहर एक पेंड़ बँधा हुआ था) चिट्ठी ले जाने के लिए कहा और वचन दिया कि यदि चिट्ठी बाहर पहुँचा दो नरवर का आधा राज्य दे दिया जाएगा। नटिनी रस्से के सहारे किले से बाहर हो गयी। जब उसी के सहारे वापस आ रही थी, तब वचन देने वाले ने रस्से को काट दिया और नटिनी नीचे खड्ड में गिरकर चकनाचूर हो गई।
मैंने इस किंवदंती का दूसरे प्रकार से उपयोग किया है।

मृगनयनी ने अपने ब्याह से पहले राजा मानसिंह से वचन ले लिए थे, उनमें से एक यह भी था कि राजा राई गाँव से ग्वालियर किले तक सांक नदी की नहर ले जाएँगे। राजा ने यह नहर बनवाई। उसके चिह्न अब भी वर्तमान हैं।
एक किंवदंती है कि मानसिंह के दो सौ रानियाँ थीं। ग्वालियर किले के गाइड ने मुझको दूसरी किंवदंती का पता दिया कि राजा मानसिंह के एट (आठ) रानियाँ थीं। मैंने गाइड के शब्दों को ज्यों का त्यों उद्धृत कर दिया है। एट उन्हीं का है। न लिखता तो कहते, मेरा अपमान किया, अंग्रेजी का एक शब्द ही बोला था, उसको भी छोड़ दिया !
मैंने गाइड की कही हुई बात को ही उपन्यास में मान्यता दी है।

गाइड और गूजरों ने बताया कि मृगनयनी के दो पुत्र हुए थे-एक का नाम राजे, दूसरे का बाले। मानसिंह की बड़ी रानी से एक पुत्र विक्रमादित्य था जो मानसिंक के पीछे राजा हुआ। गाइड और गूजरों ने बताया कि राजे और बाले ईर्ष्यावश मारे जाने वाले थे कि उन्होंने आत्मवध कर लिया। मुझको यह परम्परा मान्य नहीं है। गूजरों की एक दूसरी परम्परा है कि मृगनयनी ने अपने पुत्रों को राज्य न दिलवाकर विक्रमादित्य को राज्य दिलवाया। मुझको यही मान्य है।
उस बीहड़ भयंकर युग में मानसिंह को तुर्क, पठान आक्रमणकारियों से निरंतर लड़ना पड़ा, परंतु उसके मन में मुसलमानों के प्रति कोई दोष नहीं रहा। उसने सिकंदर के भाई जलालुद्दीन के साथ आए हुए अनेक मुसलमानों को ग्वालियर में शरण और रक्षा प्रदान की और ललित कलाओं के लिए मानसिंह और मृगनयनी ने जो कुछ किया, वह भारत के इतिहास में अमर रहेगा।
बोधन ब्राह्मण ऐतिहासिक व्यक्तित है। उसके मारनेवालों की बर्बरता का मैंने बहुत थोड़ा वर्णन किया। उसके कुरूपका लाघव-मात्र प्रस्तुत किया है- करना पड़ा।

कथावस्तु के संग्रह में महामान्या महारानी साहब ग्वालियर, मध्य भारत के मंत्रिमंडल और ग्वालियर के पुरातत्व विभाग ने मेरी बहुत सहायता की है। मैं उनका बहुत कृतज्ञ हूँ। ग्वालियर पुरातत्वविभाग के डायरेक्टर श्री पाटील का भी मैं आभारी हूँ जिनके सौजन्य से मुझको ग्वालियर किला, मानमंदिर, गूजरी महल और राजा मानसिंह के चित्र मिले।
पाठक चाहेंगे कि मैं तोमरों, ग्वालियर और नरवर के किलों और उनके भीतर स्थित इमारतों का वर्णन परिचय में करूँ। कुछ पाठक चाहेंगे कि मैं तत्कालीन आर्थिक स्थिति समझने के लिए आँकड़े दूँ; परंतु पाठक कहानी चाहेंगे, इसीलिए अब कहानी, बाकी फिर कभी।

झाँसी
14-7-50

-वृंदावनलाल वर्मा










प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai