जीवनी/आत्मकथा >> अग्नि की उड़ान अग्नि की उड़ानए. पी. जे. अब्दुल कलाम, अरुण तिवारी
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प्रस्तुत पुस्तक में कलाम के जीवन पर प्रकाश डाला गया है...
प्रस्तुत पुस्तक डॉ ए.पी.जे अब्दुल कलाम के जीवन की ही कहानी नहीं है
बल्कि यह डॉ कलाम के स्वयं की ऊपर उठने और उनके व्यक्तित्व एवं पेशेवर
संघर्षों की कहानी के साथ अग्नि, पृथ्वी, त्रिशूल और नाग मिसाइलों के
विकास की भी कहानी हैं जिसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को मिसाइल
सम्पन्न देश के रूप में जगह दिलाई। यह टेक्नोलॉजी एवं रक्षा के क्षेत्र
में आत्मनिर्भरता हासिल करने की आजाद भारत की भी कहानी है।
अग्नि की उड़ान
माँ
समंदर की लहरें,
सुनहरी रेत,
श्रद्धानत तीर्थयात्री,
रामेश्वरम् द्वीप की वह छोटी-पूरी दुनिया।
सबमें तू निहित,
सब तुझमें समाहित।
तेरी बाँहों में पला मैं,
मेरी कायनात रही तू।
जब छिड़ा विश्वयुद्ध, छोटा सा मैं
जीवन बना था चुनौती, जिंदगी अमानत
मीलों चलते थे हम
पहुँचते किरणों से पहले।
कभी जाते मंदिर लेने स्वामी से ज्ञान,
कभी मौलाना के पास लेने अरबी का सबक,
स्टेशन को जाती रेत भरी सड़क,
बाँटे थे अखबार मैंने
चलते-पलते साये में तेरे।
दिन में स्कूल,
शाम में पढ़ाई,
मेहनत, मशक्कत, दिक्कतें, कठिनाई,
तेरी पाक शख्सीयत ने बना दीं मधुर यादें।
जब तू झुकती नमाज में उठाए हाथ
अल्लाह का नूर गिरता तेरी झोली में
जो बरसता मुझपर
और मेरे जैसे कितने नसीबवालों पर
दिया तूने हमेशा दया का दान।
याद है अभी जैसे कल ही,
दस बरस का मैं
सोया तेरी गोद में,
बाकी बच्चों की ईर्ष्या का बना पात्र-
पूरनमासी की रात
भरती जिसमें तेरा प्यार।
आधी रात में, अधमुँदी आँखों से तकता तुझे,
थामता आँसू पलकों पर
घुटनों के बल
बाँहों में घेरे तुझे खड़ा था मैं।
तूने जाना था मेरा दर्द,
अपने बच्चे की पीड़ा।
तेरी उँगलियों ने
निथारा था दर्द मेरे बालों से,
और भरी थी मुझमें
अपने विश्वास की शक्ति-
निर्भय हो जीने की, जीतने की।
जिया मैं
मेरी माँ !
और जीता मैं।
कयामत के दिन
मिलेगा तुझसे फिर तेरा कलाम,
माँ तुझे सलाम।
सुनहरी रेत,
श्रद्धानत तीर्थयात्री,
रामेश्वरम् द्वीप की वह छोटी-पूरी दुनिया।
सबमें तू निहित,
सब तुझमें समाहित।
तेरी बाँहों में पला मैं,
मेरी कायनात रही तू।
जब छिड़ा विश्वयुद्ध, छोटा सा मैं
जीवन बना था चुनौती, जिंदगी अमानत
मीलों चलते थे हम
पहुँचते किरणों से पहले।
कभी जाते मंदिर लेने स्वामी से ज्ञान,
कभी मौलाना के पास लेने अरबी का सबक,
स्टेशन को जाती रेत भरी सड़क,
बाँटे थे अखबार मैंने
चलते-पलते साये में तेरे।
दिन में स्कूल,
शाम में पढ़ाई,
मेहनत, मशक्कत, दिक्कतें, कठिनाई,
तेरी पाक शख्सीयत ने बना दीं मधुर यादें।
जब तू झुकती नमाज में उठाए हाथ
अल्लाह का नूर गिरता तेरी झोली में
जो बरसता मुझपर
और मेरे जैसे कितने नसीबवालों पर
दिया तूने हमेशा दया का दान।
याद है अभी जैसे कल ही,
दस बरस का मैं
सोया तेरी गोद में,
बाकी बच्चों की ईर्ष्या का बना पात्र-
पूरनमासी की रात
भरती जिसमें तेरा प्यार।
आधी रात में, अधमुँदी आँखों से तकता तुझे,
थामता आँसू पलकों पर
घुटनों के बल
बाँहों में घेरे तुझे खड़ा था मैं।
तूने जाना था मेरा दर्द,
अपने बच्चे की पीड़ा।
तेरी उँगलियों ने
निथारा था दर्द मेरे बालों से,
और भरी थी मुझमें
अपने विश्वास की शक्ति-
निर्भय हो जीने की, जीतने की।
जिया मैं
मेरी माँ !
और जीता मैं।
कयामत के दिन
मिलेगा तुझसे फिर तेरा कलाम,
माँ तुझे सलाम।
प्रस्तावना
डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के सान्निध्य में
मुझे एक दशक से भी अधिक समय तक
काम करने का अवसर मिला है। हो सकता है, उनके जीवनी लेखक के रूप में मेरे
पास पर्याप्त योग्यता न हो, परंतु निश्चित रूप से मेरी ऐसा बनने की इच्छा
भी नहीं थी। एक दिन बातचीत करते हुए मैंने उनसे पूछा कि भारत के नौजवानों
के लिए वे क्या कोई संदेश देना चाहेंगे ? युवाओं के लिए उनका जो संदेश था,
उसने मुझे मोह लिया। बाद में मैंने उनसे उनकी यादों के बारे में पूछने का
साहस जुटाया, ताकि मैं उन्हें कलमबद्ध कर सकूँ।
हमने देर रात एवं सूर्योदय से पहले तक कई लंबी-लंबी बैठकें कीं। उनकी अठारह घंटे रोजाना की दिनचर्या से किसी भी तरह यह समय निकाला। उनके विचारों की गहराई और व्यापकता ने मुझे सम्मोहित कर लिया था। उनमें गजब का तेज था और उन्होंने विचारों की दुनिया से असीम आनंद पाया था। उनकी बातचीत को समझना हमेशा आसान नहीं होता था; पर उनसे बातचीत हमेशा ताजगी एवं प्रेरणा प्रदान करनेवाली होती थी।
जब मैं इस पुस्तक को लिखने बैठा तो मुझे लगा कि जितनी क्षमता मेरे भीतर है, इस काम को करने के लिए उससे कहीं ज्यादा योग्यता चाहिए। लेकिन इस काम की महत्ता को महसूस करते हुए और इसे एक सम्मान के रूप में लेते हुए मैंने इसे पूरा करने का साहस एवं हिम्मत जुटाई।
यह पुस्तक देश के उन आम लोगों के लिए लिखी गई है, जिनके प्रति डॉ. कलाम का अत्यधिक लगाव है और जिनमें से एक वह स्वयं को मानते हैं। विनम्र और सीधे-सादे लोगों से उनका सदैव सहज संबंध रहा है, जो स्वयं उनकी सादगी एवं आध्यात्मिकता का परिचायक है।
खुद मेरे लिए यह पुस्तक लिखना एक तीर्थयात्रा करने जैसा रहा है। डॉ. कलाम के आशीर्वाद से ही मुझपर यह रहस्य प्रकट हुआ कि जीवन का वास्तविक आनंद सिर्फ एक ही तरीके से प्राप्त किया जा सकता है और वह है-अपने भीतर छिपे ज्ञान के शाश्वत स्रोत से संवाद स्थापित करके, जो हर इनसान के भीतर होता है। हो सकता है, आपमें से कई डॉ. कलाम से व्यक्तिगत रूप से न मिले हों, लेकिन मुझे उम्मीद है कि इस पुस्तक के माध्यम से आप उनके सान्निध्य का आनंद प्राप्त करेंगे और वे आपके आत्मीय मित्र बन जाएँगे।
डॉ. कलाम की बताई कई घटनाओं में से कुछ को ही मैं इस पुस्तक में शामिल कर पाया हूँ। दरअसल यह पुस्तक डॉ. कलाम के जीवन की सिर्फ एक छोटी सी रूपरेखा ही प्रस्तुत कर पाई है। यह बिलकुल संभव है कि कई महत्त्वपूर्ण घटनाएँ छूट गई हों और डॉ. कलाम की परियोजनाओं से जुड़े प्रमुख व्यक्तियों के महत्त्वपूर्ण योगदान का जिक्र नहीं आ पाया हो। चूँकि डॉ. कलाम की तुलना में मेरे काम का समय बहुत ही कम रहा है और एक-चौथाई सदी मुझे उनसे अलग करती है, इसलिए कई महत्त्वपूर्ण चीजें संभव है कि इसमें रह गई हों अथवा तथ्थपरक न रहकर तुड़-मुड़ गई हों। इस तरह की अनजानी भूलों और कमियों के लिए सिर्फ मैं ही जिम्मेदार हूँ और गुणीजनों की क्षमा का प्रार्थी हूँ।
हमने देर रात एवं सूर्योदय से पहले तक कई लंबी-लंबी बैठकें कीं। उनकी अठारह घंटे रोजाना की दिनचर्या से किसी भी तरह यह समय निकाला। उनके विचारों की गहराई और व्यापकता ने मुझे सम्मोहित कर लिया था। उनमें गजब का तेज था और उन्होंने विचारों की दुनिया से असीम आनंद पाया था। उनकी बातचीत को समझना हमेशा आसान नहीं होता था; पर उनसे बातचीत हमेशा ताजगी एवं प्रेरणा प्रदान करनेवाली होती थी।
जब मैं इस पुस्तक को लिखने बैठा तो मुझे लगा कि जितनी क्षमता मेरे भीतर है, इस काम को करने के लिए उससे कहीं ज्यादा योग्यता चाहिए। लेकिन इस काम की महत्ता को महसूस करते हुए और इसे एक सम्मान के रूप में लेते हुए मैंने इसे पूरा करने का साहस एवं हिम्मत जुटाई।
यह पुस्तक देश के उन आम लोगों के लिए लिखी गई है, जिनके प्रति डॉ. कलाम का अत्यधिक लगाव है और जिनमें से एक वह स्वयं को मानते हैं। विनम्र और सीधे-सादे लोगों से उनका सदैव सहज संबंध रहा है, जो स्वयं उनकी सादगी एवं आध्यात्मिकता का परिचायक है।
खुद मेरे लिए यह पुस्तक लिखना एक तीर्थयात्रा करने जैसा रहा है। डॉ. कलाम के आशीर्वाद से ही मुझपर यह रहस्य प्रकट हुआ कि जीवन का वास्तविक आनंद सिर्फ एक ही तरीके से प्राप्त किया जा सकता है और वह है-अपने भीतर छिपे ज्ञान के शाश्वत स्रोत से संवाद स्थापित करके, जो हर इनसान के भीतर होता है। हो सकता है, आपमें से कई डॉ. कलाम से व्यक्तिगत रूप से न मिले हों, लेकिन मुझे उम्मीद है कि इस पुस्तक के माध्यम से आप उनके सान्निध्य का आनंद प्राप्त करेंगे और वे आपके आत्मीय मित्र बन जाएँगे।
डॉ. कलाम की बताई कई घटनाओं में से कुछ को ही मैं इस पुस्तक में शामिल कर पाया हूँ। दरअसल यह पुस्तक डॉ. कलाम के जीवन की सिर्फ एक छोटी सी रूपरेखा ही प्रस्तुत कर पाई है। यह बिलकुल संभव है कि कई महत्त्वपूर्ण घटनाएँ छूट गई हों और डॉ. कलाम की परियोजनाओं से जुड़े प्रमुख व्यक्तियों के महत्त्वपूर्ण योगदान का जिक्र नहीं आ पाया हो। चूँकि डॉ. कलाम की तुलना में मेरे काम का समय बहुत ही कम रहा है और एक-चौथाई सदी मुझे उनसे अलग करती है, इसलिए कई महत्त्वपूर्ण चीजें संभव है कि इसमें रह गई हों अथवा तथ्थपरक न रहकर तुड़-मुड़ गई हों। इस तरह की अनजानी भूलों और कमियों के लिए सिर्फ मैं ही जिम्मेदार हूँ और गुणीजनों की क्षमा का प्रार्थी हूँ।
अरुण तिवारी
आभार
मैं उन सभी लोगों के प्रति आभार व्यक्त करता
हूँ जो इस पुस्तक को लिखने
में मेरे साथ जुड़े रहे, विशेष रूप से श्री वाई. एस. राजन, श्री ए.
शिवाधानु पिल्लै, श्री आर. एन. अग्रवाल, श्री प्रह्लाद, श्री के.वी.एस.एस.
प्रसाद राव और डॉ.एस.के. सलवान, जिन्होंने दरियादिली से अपना समय एवं
जानकारियाँ मुझे दीं।
इस पुस्तक की आलोचनात्मक समीक्षाओं के लिए प्रो.के.ए.वी. पंडलाई और श्री आर.स्वामीनाथन का मैं आभारी हूँ। डॉ. बी. सोमाराजू की हमेशा दी गई वास्तविक, अपितु अकथनीय मदद के लिए मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ। अपनी पत्नी डॉ. अंजना तिवारी को भी धन्यवाद देता हूँ, जिनका मुझे इस काम में हमेशा पूरा सहयोग मिला।
यूनिवर्सिटी प्रेस के साथ यह काम करना काफी अच्छा लगा। संपादकीय एवं प्रोडक्शन विभाग का सहयोग बड़ा आत्मीय एवं उत्साह भरा रहा।
मैं उन सभी के प्रति आभार प्रदर्शित करता हूँ, जिन्होंने समय-सयम पर मुझे ज्ञान से समृद्ध किया और यह पुस्तक कल्पना से कहीं ज्यादा अच्छे रूप में सामने आई। विशेषकर श्री प्रभु का रामेश्वरम् में किया गया छायांकन संभवतः इस पुस्तक का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। सभी को साधुवाद।
और अंतमें अपने बेटों-असीम एवं अमोल के प्रति मेरा हार्दिक आभार। इन दोनों ने सदैव अपने स्नेह और सम्मान से मुझे लिखते रहने के लिए प्रेरित किया। इसमें मैंने हमेशा उन मानव-मूल्यों की छवि देखी है, जिन्हें डॉ. कलाम ने पहचाना, परखा, अपनाया और इस पुस्तक के माध्यम से सुझाना चाहा हैं।
इस पुस्तक की आलोचनात्मक समीक्षाओं के लिए प्रो.के.ए.वी. पंडलाई और श्री आर.स्वामीनाथन का मैं आभारी हूँ। डॉ. बी. सोमाराजू की हमेशा दी गई वास्तविक, अपितु अकथनीय मदद के लिए मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ। अपनी पत्नी डॉ. अंजना तिवारी को भी धन्यवाद देता हूँ, जिनका मुझे इस काम में हमेशा पूरा सहयोग मिला।
यूनिवर्सिटी प्रेस के साथ यह काम करना काफी अच्छा लगा। संपादकीय एवं प्रोडक्शन विभाग का सहयोग बड़ा आत्मीय एवं उत्साह भरा रहा।
मैं उन सभी के प्रति आभार प्रदर्शित करता हूँ, जिन्होंने समय-सयम पर मुझे ज्ञान से समृद्ध किया और यह पुस्तक कल्पना से कहीं ज्यादा अच्छे रूप में सामने आई। विशेषकर श्री प्रभु का रामेश्वरम् में किया गया छायांकन संभवतः इस पुस्तक का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। सभी को साधुवाद।
और अंतमें अपने बेटों-असीम एवं अमोल के प्रति मेरा हार्दिक आभार। इन दोनों ने सदैव अपने स्नेह और सम्मान से मुझे लिखते रहने के लिए प्रेरित किया। इसमें मैंने हमेशा उन मानव-मूल्यों की छवि देखी है, जिन्हें डॉ. कलाम ने पहचाना, परखा, अपनाया और इस पुस्तक के माध्यम से सुझाना चाहा हैं।
अरुण तिवारी
परिचय
यह पुस्तक ऐसे समय में प्रकाशित हुई है जब
देश की संप्रभुता को बनाए रखने
और उसकी सुरक्षा को और मजबूत बनाने के लिए चल रहे तकनीकी प्रयासों को लेकर
दुनिया में कई राष्ट्र सवाल उठा रहे हैं। ऐतिहासिक रूप से मानव जाति हमेशा
से ही किसी-न-किसी मुद्दे को लेकर आपस में लड़ती रही है। प्रागैतिहासिक
काल में युद्ध खाने एवं रहने की जरूरतों के लिए लड़े जाते थे। समय गुजरने
के साथ ये युद्ध धर्म तथा विचारधाराओं के आधार पर लड़े जाने लगे और अब
युद्ध आर्थिक एवं तकनीकी प्रभुत्व हासिल करने के लिए होने लग गए हैं।
नतीजतन, आर्थिक एवं तकनीकी प्रभुत्व राजनीतिक शाक्ति और विश्व नियंत्रण का
प्रर्याय बन गया है।
पिछले कुछ दशकों में कुछ देश बहुत ही तेजी से प्रौद्योगिकी की दृष्टि से काफी मजबूत होकर उभरे हैं और अपने हितों की पूर्ति के लिए बाकी दुनिया का नियंत्रण लगभग इनके हाथ में चला गया है। इसके चलते ये कुछ एक बड़े देश नए विश्व के स्वयंभू नेता बन गए हैं। ऐसी स्थिति में एक अरब की आबादीवाले भारत जैसे विशाल देश को क्या करना चाहिए ? प्रौद्योगिकी प्रभुता पाने के सिवाय वास्तव में हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। लेकिन क्या प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत अग्रणी हो सकता है ? मेरा जवाब एक निश्चित ‘हाँ’ है। और अपने जीवन की कुछ घटनाओं से मैं अपने इस जवाब की वैधता साबित करने का इस पुस्तक में प्रयत्न करूँगा।
जब इस पुस्तक के लिए मैंने पहली बार अपनी यादों को सहेजना शुरू किया तो मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि मेरी कौन-कौन सी यादें-घटनाएँ सही रूप में प्रासंगिक होंगी। मेरा बचपन मुझे बहुत ही प्रिय है; लेकिन क्या इसमें किसी की रुचि होगी ? क्या एक छोटे से कस्बे के लड़के के दुःख-तकलीफों और उसकी उपलब्धियों के बारे में पढ़ना पाठकों के लायक रहेगा ? स्कूली जीवन की संकटपूर्ण परिस्थितियाँ, स्कूल फीस जमा करने के लिए मेरे द्वारा किए गए काम और आर्थिक संकटों के चलते कॉलेज में किस तरह मैंने शाकाहारी बनने का निश्चय किया-आदि बातें आम आदमी के लिए रुचि का विषय क्योंकर होनी चाहिए ? पर अंततः मैंने यह माना कि ये सब प्रासंगिक हैं! क्योंकि ये बातें कुछ-कुछ आधुनिक भारत के एक आम आदमी की कहानी कहती हैं।
फिर मैंने उन व्यक्तियों के बारे में लिखने का निश्चय किया, जिन्होंने मेरे जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। इस पुस्तक के माध्यम से मैं अपने माता-पिता, परिवार तथा शिक्षकों एवं गुरुओं के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ और उन हुतात्माओं का आदरमय स्मरण करता हूँ, जिनका मुझे अपने छात्र एवं पेशेवर जीवन में सान्निध्य मिला। यह मेरे युवा साथियों के अपार उत्साह और कोशिशों के प्रति भी सम्मान है, जिन्होंने सामूहिक रूप से मेरे सपनों को सँजोया और साकार किया है। प्रो. विक्रम साराभाई, प्रो. सतीश धवन और डॉ. ब्रह्मप्रकाश जैसे वैज्ञानिकों का भी मैं ऋणी हूँ, जिन्होंने हमेशा ज्ञान एवं प्रेरणा से मुझे सराबोर किए रखा। मेरे जीवन और भारतीय विज्ञान की कहानी में इन हस्तियों की बड़ी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।
15 अक्टूबर, 1991 को मैंने अपने जीवन के साठ वर्ष पूरे किए। सेवानिवृत्ति के बाद मैंने अपना समय समाजसेवा के लिए देने का फैसला किया था। पर विधि का कुछ ऐसा विधान रहा कि दो चीजें एक साथ हुईं- पहली तो यह कि मैं अगले तीन साल के लिए और सरकारी सेवा में बने रहने के लिए राजी हो गया तथा दूसरी यह कि मेरे युवा सहयोगी अरुण तिवारी ने मुझसे अपने संस्मरण देने का अनुरोध किया, ताकि वे इन्हें लिखकर सुरक्षित कर सकें। वे सन् 1982 से मेरी प्रयोगशाला में काम कर रहे थे। फरवरी 1987 के पहले तक मैं उन्हें ठीक तरह से जानता तक नहीं था। फरवरी 1987 में जब वे हैदराबाद के निजाम चिकित्सा विज्ञान संस्थान के सघन हृदय चिकित्सा कक्ष में भरती थे तब मैं उन्हें देखने गया था। वे उस समय करीब बत्तीस साल के थे और जीवन के लिए संघर्ष कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा, ‘मैं तुम्हारे लिए क्या कुछ कर सकता हूँ ?’ ‘मुझे अपना आशीर्वाद दीजिए कि बस इतना भर जीवन पाऊं की आपके अनेक कामों में से कम-से-कम एक को तो मैं पूरा कर सकूँ।’ अरुण तिवारी ने कहा।
इस नौजवान की कर्म के प्रति समर्पित सोच और जिजीविषा देखकर मैंने उसके जल्दी ठीक हो जाने के लिए सारी रात ईश्वर से दुआ की। ईश्वर ने मेरी प्रार्थना सुनी और अरुण एक महीने में स्वस्थ हो काम पर लौट आए। तीन साल के थोड़े से वक्त में ही ‘आकाश’ मिसाइल के लिए उन्होंने अद्भुत काम किया। इसके बाद उन्होंने मेरे जीवन की कहानी लिखने का काम हाथ में लिया। फिर सालों तक उन्होंने धैर्यपूर्वक मेरे सुनाए अंशों, घटनाओं को लिपिबद्ध किया। वे मेरे निजी पुस्तक संग्रह के नियमित पाठक बन गए। मेरी कविताओं में से कुछ प्रासंगिक अंश भी चुने और इस पुस्तक में उनको शामिल किया। उन्होंने मुझे कहीं भीतर तक उद्वेलित कर दिया।
यह कहानी सिर्फ मेरी विजय और दुःखों की ही नहीं है बल्कि आधुनिक भारत के उन विज्ञान प्रतिष्ठानों की सफलताओ एवं असफलताओं की भी कहानी है, जो तकनीकी मोरचे पर अपने को स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह राष्ट्रीय आकांक्षा तथा सामूहिक प्रयासों और, जैसाकि मैं देखता हूँ, वैज्ञानिक आत्मनिर्भरता एवं प्रौद्योगिकी दक्षता हासिल करने के लिए भारत के प्रयासों की भी कहानी है।
ईश्वर की सृष्टि में प्रत्येक कण का अपना अस्तित्व होता है। प्रत्येक को कुछ-न-कुछ करने के लिए ही परवरदिगार ने बनाया है। उन्हीं में मैं भी हूँ। उसकी मदद से मैंने जो कुछ भी हासिल किया है, वह उसकी इच्छा की अभिव्यक्ति ही तो है। कुछ विलक्षण गुरुओं और साथियों के माध्यम से ईश्वर ने मुझपर यह कृपा की और जब मैं इन सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों के प्रति अपनी श्रद्धा एवं सम्मान व्यक्त करता हूँ तो मैं उसकी महिमा का ही गुणगान कर रहा होता हूँ। ये सब रॉकेट और मिसाइलें उसीके काम हैं, जो ‘कलाम’ नाम के एक छोटे से व्यक्ति के माध्यम से खुदा ने कराए हैं। इसलिए भारत के कई कोटि जनों को कभी भी छोटा या असहाय महसूस नहीं करना चाहिए। हम सब अपने भीतर दैवीय शक्ति लेकर जनमे हैं। हम सबके भीतर ईश्वर का तेज छिपा है। हमारी कोशिश इस तेज-पुंज को पंख देने की रहनी चाहिए, जिससे यह चारों ओर अच्छाइयाँ एवं प्रकाश फैला सके।
आपको ईश्वर का आशीर्वाद मिले, ऐसी मेरी कामना है।
पिछले कुछ दशकों में कुछ देश बहुत ही तेजी से प्रौद्योगिकी की दृष्टि से काफी मजबूत होकर उभरे हैं और अपने हितों की पूर्ति के लिए बाकी दुनिया का नियंत्रण लगभग इनके हाथ में चला गया है। इसके चलते ये कुछ एक बड़े देश नए विश्व के स्वयंभू नेता बन गए हैं। ऐसी स्थिति में एक अरब की आबादीवाले भारत जैसे विशाल देश को क्या करना चाहिए ? प्रौद्योगिकी प्रभुता पाने के सिवाय वास्तव में हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। लेकिन क्या प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत अग्रणी हो सकता है ? मेरा जवाब एक निश्चित ‘हाँ’ है। और अपने जीवन की कुछ घटनाओं से मैं अपने इस जवाब की वैधता साबित करने का इस पुस्तक में प्रयत्न करूँगा।
जब इस पुस्तक के लिए मैंने पहली बार अपनी यादों को सहेजना शुरू किया तो मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि मेरी कौन-कौन सी यादें-घटनाएँ सही रूप में प्रासंगिक होंगी। मेरा बचपन मुझे बहुत ही प्रिय है; लेकिन क्या इसमें किसी की रुचि होगी ? क्या एक छोटे से कस्बे के लड़के के दुःख-तकलीफों और उसकी उपलब्धियों के बारे में पढ़ना पाठकों के लायक रहेगा ? स्कूली जीवन की संकटपूर्ण परिस्थितियाँ, स्कूल फीस जमा करने के लिए मेरे द्वारा किए गए काम और आर्थिक संकटों के चलते कॉलेज में किस तरह मैंने शाकाहारी बनने का निश्चय किया-आदि बातें आम आदमी के लिए रुचि का विषय क्योंकर होनी चाहिए ? पर अंततः मैंने यह माना कि ये सब प्रासंगिक हैं! क्योंकि ये बातें कुछ-कुछ आधुनिक भारत के एक आम आदमी की कहानी कहती हैं।
फिर मैंने उन व्यक्तियों के बारे में लिखने का निश्चय किया, जिन्होंने मेरे जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। इस पुस्तक के माध्यम से मैं अपने माता-पिता, परिवार तथा शिक्षकों एवं गुरुओं के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ और उन हुतात्माओं का आदरमय स्मरण करता हूँ, जिनका मुझे अपने छात्र एवं पेशेवर जीवन में सान्निध्य मिला। यह मेरे युवा साथियों के अपार उत्साह और कोशिशों के प्रति भी सम्मान है, जिन्होंने सामूहिक रूप से मेरे सपनों को सँजोया और साकार किया है। प्रो. विक्रम साराभाई, प्रो. सतीश धवन और डॉ. ब्रह्मप्रकाश जैसे वैज्ञानिकों का भी मैं ऋणी हूँ, जिन्होंने हमेशा ज्ञान एवं प्रेरणा से मुझे सराबोर किए रखा। मेरे जीवन और भारतीय विज्ञान की कहानी में इन हस्तियों की बड़ी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।
15 अक्टूबर, 1991 को मैंने अपने जीवन के साठ वर्ष पूरे किए। सेवानिवृत्ति के बाद मैंने अपना समय समाजसेवा के लिए देने का फैसला किया था। पर विधि का कुछ ऐसा विधान रहा कि दो चीजें एक साथ हुईं- पहली तो यह कि मैं अगले तीन साल के लिए और सरकारी सेवा में बने रहने के लिए राजी हो गया तथा दूसरी यह कि मेरे युवा सहयोगी अरुण तिवारी ने मुझसे अपने संस्मरण देने का अनुरोध किया, ताकि वे इन्हें लिखकर सुरक्षित कर सकें। वे सन् 1982 से मेरी प्रयोगशाला में काम कर रहे थे। फरवरी 1987 के पहले तक मैं उन्हें ठीक तरह से जानता तक नहीं था। फरवरी 1987 में जब वे हैदराबाद के निजाम चिकित्सा विज्ञान संस्थान के सघन हृदय चिकित्सा कक्ष में भरती थे तब मैं उन्हें देखने गया था। वे उस समय करीब बत्तीस साल के थे और जीवन के लिए संघर्ष कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा, ‘मैं तुम्हारे लिए क्या कुछ कर सकता हूँ ?’ ‘मुझे अपना आशीर्वाद दीजिए कि बस इतना भर जीवन पाऊं की आपके अनेक कामों में से कम-से-कम एक को तो मैं पूरा कर सकूँ।’ अरुण तिवारी ने कहा।
इस नौजवान की कर्म के प्रति समर्पित सोच और जिजीविषा देखकर मैंने उसके जल्दी ठीक हो जाने के लिए सारी रात ईश्वर से दुआ की। ईश्वर ने मेरी प्रार्थना सुनी और अरुण एक महीने में स्वस्थ हो काम पर लौट आए। तीन साल के थोड़े से वक्त में ही ‘आकाश’ मिसाइल के लिए उन्होंने अद्भुत काम किया। इसके बाद उन्होंने मेरे जीवन की कहानी लिखने का काम हाथ में लिया। फिर सालों तक उन्होंने धैर्यपूर्वक मेरे सुनाए अंशों, घटनाओं को लिपिबद्ध किया। वे मेरे निजी पुस्तक संग्रह के नियमित पाठक बन गए। मेरी कविताओं में से कुछ प्रासंगिक अंश भी चुने और इस पुस्तक में उनको शामिल किया। उन्होंने मुझे कहीं भीतर तक उद्वेलित कर दिया।
यह कहानी सिर्फ मेरी विजय और दुःखों की ही नहीं है बल्कि आधुनिक भारत के उन विज्ञान प्रतिष्ठानों की सफलताओ एवं असफलताओं की भी कहानी है, जो तकनीकी मोरचे पर अपने को स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह राष्ट्रीय आकांक्षा तथा सामूहिक प्रयासों और, जैसाकि मैं देखता हूँ, वैज्ञानिक आत्मनिर्भरता एवं प्रौद्योगिकी दक्षता हासिल करने के लिए भारत के प्रयासों की भी कहानी है।
ईश्वर की सृष्टि में प्रत्येक कण का अपना अस्तित्व होता है। प्रत्येक को कुछ-न-कुछ करने के लिए ही परवरदिगार ने बनाया है। उन्हीं में मैं भी हूँ। उसकी मदद से मैंने जो कुछ भी हासिल किया है, वह उसकी इच्छा की अभिव्यक्ति ही तो है। कुछ विलक्षण गुरुओं और साथियों के माध्यम से ईश्वर ने मुझपर यह कृपा की और जब मैं इन सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों के प्रति अपनी श्रद्धा एवं सम्मान व्यक्त करता हूँ तो मैं उसकी महिमा का ही गुणगान कर रहा होता हूँ। ये सब रॉकेट और मिसाइलें उसीके काम हैं, जो ‘कलाम’ नाम के एक छोटे से व्यक्ति के माध्यम से खुदा ने कराए हैं। इसलिए भारत के कई कोटि जनों को कभी भी छोटा या असहाय महसूस नहीं करना चाहिए। हम सब अपने भीतर दैवीय शक्ति लेकर जनमे हैं। हम सबके भीतर ईश्वर का तेज छिपा है। हमारी कोशिश इस तेज-पुंज को पंख देने की रहनी चाहिए, जिससे यह चारों ओर अच्छाइयाँ एवं प्रकाश फैला सके।
आपको ईश्वर का आशीर्वाद मिले, ऐसी मेरी कामना है।
ए.पी.जे.अब्दुल कलाम
1
सर्वेक्षण (1931-1963)
ये पृथ्वी ये आकाश ये जल ये आकार सब उसके
हैं, बनाए उसने तीनों लोक समाए
उसमें फिर भी रहता है वह एक छोटे से तालाब तल में।
अथर्ववेद
ग्रंथ4, श्लोक 16
ग्रंथ4, श्लोक 16
एक
मेरा जन्म मद्रास राज्य (अब तमिलनाडु) के
रामेश्वरम् कस्बे में एक मध्यम
वर्गीय तमिल परिवार में हुआ था। मेरे पिता जैनुलाबदीन की कोई बहुत अच्छी
औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी और न ही वे कोई बहुत धनी व्यक्ति थे। इसके
बावजूद वे बुद्धिमान थे और उनमें उदारता की सच्ची भावना थी। मेरी माँ,
आशियम्मा, उनकी आदर्श जीवनसंगिनी थी। मुझे याद नहीं है कि वे रोजाना कितने
लोगों को खाना खिलाती थीं; लेकिन मैं यह पक्के तौर पर कह सकता हूँ कि
हमारे सामूहिक परिवार में जितने लोग थे, उससे कहीं ज्यादा लोग हमारे यहाँ
भोजन करते थे।
मेरे माता-पिता को हमारे समाज में एक आदर्श दंपती के रूप में देखा जाता था। मेरी माँ के खानदान का बड़ा सम्मान था और उनके एक वंशज को अंग्रेजों ने ‘बहादुर’ की पदवी भी दे डाली थी।
मैं कई बच्चों में से एक था, लंबे-चौड़े व सुंदर माता-पिता का छोटी कद-काठी का साधारण सा दिखने वाला बच्चा। हम लोग अपने पुश्तैनी घर में रहते थे। यह घर उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में बना था। रामेश्वरम् की मसजिदवाली गली में बना यह घर चूने-पत्थर व ईंट से बना पक्का और बड़ा था। मेरे पिता आडंबरहीन व्यक्ति थे और सभी अनावश्यक एवं ऐशो-आरामवाली चीजों से दूर रहते थे। पर घर में सभी आवश्यक चीजें समुचित मात्रा में सुलभता से उपलब्ध थीं। वास्तव में, मैं कहूँगा कि मेरा बचपन बहुत ही निश्चितता और सादेपन में बीता-भौतिक एवं भावनात्मक दोनों ही तरह से।
मैं प्रायः अपनी माँ के साथ ही रसोई में नीचे बैठकर खाना खाया करता था। वे मेरे सामने केले का पत्ता बिछातीं और फिर उसपर चावल एवं सुगंधित, स्वादिष्ट साँभर देतीं; साथ में घर का बना अचार और नारियल की ताजा चटनी भी होती।
प्रतिष्ठित शिव मंदिर, जिसके कारण रामेश्वरम् प्रसिद्ध तीर्थस्थल है, का हमारे घर से दस मिनट का पैदल रास्ता था। जिस इलाके में हम रहते थे, वह मुसलिम बहुल था। लेकिन वहाँ कुछ हिंदू परिवार भी थे, जो अपने मुसलमान पड़ोसियों के साथ मिल-जुलकर रहते थे। हमारे इलाके में एक बहुत ही पुरानी मसजिद थी, जहाँ शाम को नमाज को मेरे पिता जी मुझे अपने साथ ले जाते ते अरबी में जो नमाज अता की जाती थी, उसके बारे मे मुझे कुछ पता तो नहीं था, लेकिन-यह पक्का विश्वास था कि ये बातें ईश्वर तक जरूर पहुँच जाती हैं। नमाज के बाद जब मेरे पिता मसदिज से बाहर आते तो विभिन्न धर्मों के लोग मसजिद के बाहर बैठे उनकी प्रतीक्षा कर रहे होते। उनमें कई लोग पानी के कटोरे मेरे पिताजी के सामने रखते; पिताजी अपनी अँगुलियाँ उस पानी में डुबोते जाते और कुछ पढ़ते जाते। इसके बाद वह पानी बीमार लोगों के लिए घरों में ले जाया जाता। मुझे भी याद है कि लोग ठीक होने के बाद शुक्रिया अदा करने हमारे घर आते। पिताजी हमेशा मुसकराते और शुभचिंतक एवं दयावान अल्लाह को शुक्रिया कहने को कहते।
रामेश्वरम् मंदिर के सबसे बड़े पुजारी पक्षी लक्ष्मण शास्त्री मेरे पिताजी के अभिन्न मित्र थे। अपने शुरुआती बचपन की यादों में इन दो लोगों के बारे में मुझे सबसे अच्छी तरह याद हैं, दोनों अपनी पारंपरिक वेशभूषा में होते और आध्यात्मिक मामलों पर चर्चाएँ करते रहते। जब मैं प्रश्न पूछने लायक बड़ा हुआ तो मैंने पिताजी से नमाज की प्रासंगिकता के बारे में पूछा। पिताजी ने मुझे बताया कि नमाज में रहस्यमय कुछ भी नहीं है। नमाज से लोगों के बीच भाईचारे की भावना संभव हो पाती है। वे कहते-‘जब तुम नमाज पढ़ते हो तो तुम अपने शरीर से इतर ब्रह्मांड का एक हिस्सा बन जाते हो; जिसमें दौलत, आयु या धर्म-पंथ का कोई भेदभाव नहीं होता।’
मेरे पिताजी अध्यात्म की जटिल अवधारणाओं को भी तमिल में बहुत ही सरल ढंग से समझा देते थे। एक बार उन्होंने मुझसे कहा, ‘खुद उनके वक्त में, खुद उनके स्थान पर, जो वे वास्तव में हैं और जिस अवस्था में पहुँचे हैं-अच्छी या बुरी, हर इनसान भी उसी तरह दैवी शक्ति रूपी बह्मांड में उसके एक विशेष हिस्से के रुप में होता है तो हम संकटों, दुःखों या समस्याओं से क्यों घबराएँ ? जब संकट या दुःख आएँ तो उनका कारण जानने की कोशिश करो। विपत्ति हमेशा आत्मविश्लेषण के अवसर प्रदान करती है।’
‘आप उन लोगों को यह बात क्यों नहीं बताते जो आपके पास मदद और सलाह माँगने के लिए आते हैं ?’ मैंने पिताजी से पूछा। उन्होंने अपने हाथ मेरे कंधों पर रखे और मेरी आँखों में देखा। कुछ क्षण वे चुप रहे, जैसे वे मेरी समझ की क्षमता जाँच रहे हों। फिर धीमे और गहरे स्वर में उन्होंने उत्तर दिया। पिताजी के इस जवाब ने मेरे भीतर नई ऊर्जा और अपरिमित उत्साह भर दिया।
जब कभी इनसान अपने को अकेला पाता है तो उसे एक साथी की तलाश होती है, जो स्वाभाविक ही है। जब इनसान संकट मे होता है तो उसे किसी की मदद की जरूरत होती है। जब वह अपने को किसी गतिरोध में फँसा पाता है तो उसे चाहिए होता है ऐसा साथी जो बाहर निकलने का रास्ता दिखा सके। बार-बार तड़पानेवाली हर तीव्र इच्छा एक प्यास की तरह होती है। मगर हर प्यास को बुझानेवाला कोई-न-कोई मिल ही जाता है। जो लोग अपने संकट की घड़ियों में मेरे पास आते हैं, मैं उनके लिए अपनी प्रार्थनाओं के जरिए ईश्वरीय शक्तियों से संबंध स्थापित करने का माध्यम बन जाता हूँ। हालाँकि हर जगह, हर बार यह सही नहीं होता और न ही कभी ऐसा होना चाहिए।’
मुझे याद है, पिताजी की दिनचर्या पौ फटने के पहले ही सुबह चार बजे नमाज पढ़ने के साथ शुरू हो जाती थी। नमाज के बाद वे हमारे नारियल के बाग जाया करते। बाग घर से करीब चार मील दूर था। करीब दर्जन भर नारियल कंधे पर लिये पिजाजी घर लौटते और उसके बाद ही उनका नाश्ता होता। पिताजी की यह दिनचर्या जीवन के छठे दशक के आखिर तक बनी रही।
मैंने अपनी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की सारी जिंदगी में पिताजी की बातों का अनुसरण करने की कोशिश की है। मैंने उन बुनियादी सत्यों को समझने का भरसक प्रयास किया है, जिन्हें पिताजी ने मेरे सामने रखा और मुझे इस संतुष्टि का आभास हुआ कि ऐसी कोई दैवी शक्ति जरूर है जो हमें भ्रम, दुःखों, विषाद और असफलता से छुटकारा दिलाती है तथा सही रास्ता दिखाती है।
जब पिताजी ने लकड़ी की नौकाएँ बनाने का काम शुरू किया, उस समय मैं छह साल का था। ये नौकाएँ तीर्थसात्रियों को रामेश्वरम् से धनुषकोडि (सेथुकाराई भी कहा जाता है) तक लाने-ले जाने के काम आती थीं। एक स्थानीय ठेकेदार अहमद जलालुद्दीन के साथ पिताजी समुद्र तट के पास नौकाएँ बनाने लगे। बाद में अहमद जलालुद्दीन की मेरी बड़ी बहन जोहरा के साथ शादी हो गई थी। नौकाओं को आकार लेते देखते वक्त मैं काफी अच्छे तरीके से गौर करता था। पिताजी का कारोबार काफी अच्छा चल रहा था। एक दिन सौ मील प्रति घंटे की रफ्तार से हवा चली और समुद्र में तूफान आ गया। तूफान में सेथुक्काराई के कुछ लोग और हमारी नावें बह गईं। उसी में पामबान पुल भी टूट गया और यात्रियों से भरी ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो गई। तब तक मैंने सिर्फ समुद्र की खूबसूरती को ही देखा था। उसकी अपार एवं अनियंत्रित ऊर्जा ने मुझे हतप्रभ कर दिया।
मेरे माता-पिता को हमारे समाज में एक आदर्श दंपती के रूप में देखा जाता था। मेरी माँ के खानदान का बड़ा सम्मान था और उनके एक वंशज को अंग्रेजों ने ‘बहादुर’ की पदवी भी दे डाली थी।
मैं कई बच्चों में से एक था, लंबे-चौड़े व सुंदर माता-पिता का छोटी कद-काठी का साधारण सा दिखने वाला बच्चा। हम लोग अपने पुश्तैनी घर में रहते थे। यह घर उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में बना था। रामेश्वरम् की मसजिदवाली गली में बना यह घर चूने-पत्थर व ईंट से बना पक्का और बड़ा था। मेरे पिता आडंबरहीन व्यक्ति थे और सभी अनावश्यक एवं ऐशो-आरामवाली चीजों से दूर रहते थे। पर घर में सभी आवश्यक चीजें समुचित मात्रा में सुलभता से उपलब्ध थीं। वास्तव में, मैं कहूँगा कि मेरा बचपन बहुत ही निश्चितता और सादेपन में बीता-भौतिक एवं भावनात्मक दोनों ही तरह से।
मैं प्रायः अपनी माँ के साथ ही रसोई में नीचे बैठकर खाना खाया करता था। वे मेरे सामने केले का पत्ता बिछातीं और फिर उसपर चावल एवं सुगंधित, स्वादिष्ट साँभर देतीं; साथ में घर का बना अचार और नारियल की ताजा चटनी भी होती।
प्रतिष्ठित शिव मंदिर, जिसके कारण रामेश्वरम् प्रसिद्ध तीर्थस्थल है, का हमारे घर से दस मिनट का पैदल रास्ता था। जिस इलाके में हम रहते थे, वह मुसलिम बहुल था। लेकिन वहाँ कुछ हिंदू परिवार भी थे, जो अपने मुसलमान पड़ोसियों के साथ मिल-जुलकर रहते थे। हमारे इलाके में एक बहुत ही पुरानी मसजिद थी, जहाँ शाम को नमाज को मेरे पिता जी मुझे अपने साथ ले जाते ते अरबी में जो नमाज अता की जाती थी, उसके बारे मे मुझे कुछ पता तो नहीं था, लेकिन-यह पक्का विश्वास था कि ये बातें ईश्वर तक जरूर पहुँच जाती हैं। नमाज के बाद जब मेरे पिता मसदिज से बाहर आते तो विभिन्न धर्मों के लोग मसजिद के बाहर बैठे उनकी प्रतीक्षा कर रहे होते। उनमें कई लोग पानी के कटोरे मेरे पिताजी के सामने रखते; पिताजी अपनी अँगुलियाँ उस पानी में डुबोते जाते और कुछ पढ़ते जाते। इसके बाद वह पानी बीमार लोगों के लिए घरों में ले जाया जाता। मुझे भी याद है कि लोग ठीक होने के बाद शुक्रिया अदा करने हमारे घर आते। पिताजी हमेशा मुसकराते और शुभचिंतक एवं दयावान अल्लाह को शुक्रिया कहने को कहते।
रामेश्वरम् मंदिर के सबसे बड़े पुजारी पक्षी लक्ष्मण शास्त्री मेरे पिताजी के अभिन्न मित्र थे। अपने शुरुआती बचपन की यादों में इन दो लोगों के बारे में मुझे सबसे अच्छी तरह याद हैं, दोनों अपनी पारंपरिक वेशभूषा में होते और आध्यात्मिक मामलों पर चर्चाएँ करते रहते। जब मैं प्रश्न पूछने लायक बड़ा हुआ तो मैंने पिताजी से नमाज की प्रासंगिकता के बारे में पूछा। पिताजी ने मुझे बताया कि नमाज में रहस्यमय कुछ भी नहीं है। नमाज से लोगों के बीच भाईचारे की भावना संभव हो पाती है। वे कहते-‘जब तुम नमाज पढ़ते हो तो तुम अपने शरीर से इतर ब्रह्मांड का एक हिस्सा बन जाते हो; जिसमें दौलत, आयु या धर्म-पंथ का कोई भेदभाव नहीं होता।’
मेरे पिताजी अध्यात्म की जटिल अवधारणाओं को भी तमिल में बहुत ही सरल ढंग से समझा देते थे। एक बार उन्होंने मुझसे कहा, ‘खुद उनके वक्त में, खुद उनके स्थान पर, जो वे वास्तव में हैं और जिस अवस्था में पहुँचे हैं-अच्छी या बुरी, हर इनसान भी उसी तरह दैवी शक्ति रूपी बह्मांड में उसके एक विशेष हिस्से के रुप में होता है तो हम संकटों, दुःखों या समस्याओं से क्यों घबराएँ ? जब संकट या दुःख आएँ तो उनका कारण जानने की कोशिश करो। विपत्ति हमेशा आत्मविश्लेषण के अवसर प्रदान करती है।’
‘आप उन लोगों को यह बात क्यों नहीं बताते जो आपके पास मदद और सलाह माँगने के लिए आते हैं ?’ मैंने पिताजी से पूछा। उन्होंने अपने हाथ मेरे कंधों पर रखे और मेरी आँखों में देखा। कुछ क्षण वे चुप रहे, जैसे वे मेरी समझ की क्षमता जाँच रहे हों। फिर धीमे और गहरे स्वर में उन्होंने उत्तर दिया। पिताजी के इस जवाब ने मेरे भीतर नई ऊर्जा और अपरिमित उत्साह भर दिया।
जब कभी इनसान अपने को अकेला पाता है तो उसे एक साथी की तलाश होती है, जो स्वाभाविक ही है। जब इनसान संकट मे होता है तो उसे किसी की मदद की जरूरत होती है। जब वह अपने को किसी गतिरोध में फँसा पाता है तो उसे चाहिए होता है ऐसा साथी जो बाहर निकलने का रास्ता दिखा सके। बार-बार तड़पानेवाली हर तीव्र इच्छा एक प्यास की तरह होती है। मगर हर प्यास को बुझानेवाला कोई-न-कोई मिल ही जाता है। जो लोग अपने संकट की घड़ियों में मेरे पास आते हैं, मैं उनके लिए अपनी प्रार्थनाओं के जरिए ईश्वरीय शक्तियों से संबंध स्थापित करने का माध्यम बन जाता हूँ। हालाँकि हर जगह, हर बार यह सही नहीं होता और न ही कभी ऐसा होना चाहिए।’
मुझे याद है, पिताजी की दिनचर्या पौ फटने के पहले ही सुबह चार बजे नमाज पढ़ने के साथ शुरू हो जाती थी। नमाज के बाद वे हमारे नारियल के बाग जाया करते। बाग घर से करीब चार मील दूर था। करीब दर्जन भर नारियल कंधे पर लिये पिजाजी घर लौटते और उसके बाद ही उनका नाश्ता होता। पिताजी की यह दिनचर्या जीवन के छठे दशक के आखिर तक बनी रही।
मैंने अपनी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की सारी जिंदगी में पिताजी की बातों का अनुसरण करने की कोशिश की है। मैंने उन बुनियादी सत्यों को समझने का भरसक प्रयास किया है, जिन्हें पिताजी ने मेरे सामने रखा और मुझे इस संतुष्टि का आभास हुआ कि ऐसी कोई दैवी शक्ति जरूर है जो हमें भ्रम, दुःखों, विषाद और असफलता से छुटकारा दिलाती है तथा सही रास्ता दिखाती है।
जब पिताजी ने लकड़ी की नौकाएँ बनाने का काम शुरू किया, उस समय मैं छह साल का था। ये नौकाएँ तीर्थसात्रियों को रामेश्वरम् से धनुषकोडि (सेथुकाराई भी कहा जाता है) तक लाने-ले जाने के काम आती थीं। एक स्थानीय ठेकेदार अहमद जलालुद्दीन के साथ पिताजी समुद्र तट के पास नौकाएँ बनाने लगे। बाद में अहमद जलालुद्दीन की मेरी बड़ी बहन जोहरा के साथ शादी हो गई थी। नौकाओं को आकार लेते देखते वक्त मैं काफी अच्छे तरीके से गौर करता था। पिताजी का कारोबार काफी अच्छा चल रहा था। एक दिन सौ मील प्रति घंटे की रफ्तार से हवा चली और समुद्र में तूफान आ गया। तूफान में सेथुक्काराई के कुछ लोग और हमारी नावें बह गईं। उसी में पामबान पुल भी टूट गया और यात्रियों से भरी ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो गई। तब तक मैंने सिर्फ समुद्र की खूबसूरती को ही देखा था। उसकी अपार एवं अनियंत्रित ऊर्जा ने मुझे हतप्रभ कर दिया।
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