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आँख का पानी

दीपाञ्जलि दुबे दीप

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16640
आईएसबीएन :978-1-61301-744-9

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दीप की ग़ज़लें

आँख, पानी और ग़ज़ल

मनजीत शर्मा 'मीरा'
चंडीगढ़
मोबाइल : 6284997355

"विनय माँ सुनो शारदे हम बुलाएँ
यह श्रद्धा सुमन शब्द तुमको सुनाएँ"

माँ शारदे माँ सरस्वती के श्री चरणों में जो साहित्यकार अपने मन के उदगार रखता है, माँ सरस्वती की वंदना कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करता है, उस साहित्यकार की क़लम की धार पैनी होना लाज़िमी है और निसंदेह इस शाइरा की क़लम की धार वाकई में बहुत तेज़ है जिनकी ग़ज़लों को मैं अभी पढ़ रही हूँ। माँ के श्री चरणों में समर्पित मतले से ही उनके ग़ज़ल-संग्रह का आग़ाज़ हो रहा है। माँ की स्तुति पढ़ प्रेम विभोर होकर मेरी आँखों की कोर भी भीग गई हैं। यह नमी आँखों में यूँ ही नहीं आई यह तो बस शब्दों के भावों का तर्जुमा है। शाइरा भी अपनी ग़ज़लों में निहित भावों में गहरे तक उतरी हैं तभी तो संग्रह को नाम दिया है "आँख का पानी"। बहुत सुंदर उन्वान है इस ग़ज़ल-संग्रह का। वो कहते हैं न कि यदि आँख का पानी मर जाए तो इंसान इंसान नहीं रहता। आँख में पानी होना यानि शर्म लिहाज़ होना यानि हया होना यानि जज़्बात का होना बहुत ज़रूरी है। और अगर आँख में पानी नहीं तो यह भी कह सकते हैं कि वह इंसान बहुत कठोर और रूखा है। यानि उसका दिल नहीं है। यानि दिल तो है पर संगदिल है। यह सब बातें मैं इसलिए भी लिख रही हूँ कि हम जान लें कि आख़िर ग़ज़ल है क्या ? ग़ज़ल हमारे एहसासों का, हमारे जज़्बात का एक दरिया है। और यह दरिया इस ग़ज़ल-संग्रह में पूरी रवानगी से बह रहा है। सभी ग़ज़लें बहुत ही ख़ूबसूरत बन पड़ी हैं। कोई भी शे'र जो अपने में कई अर्थ समेटे रहता है उम्दा शे'र कहलाता है और इस संग्रह का तो नाम ही अपने आप में कई अर्थ समेटे हुए है।

ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसमें दो मिसरों में यानि एक शे'र में ही पूरी बात कह देनी होती है और इन दोनों मिसरों का आपस में राब्ता होना भी बेहद ज़रूरी है वरना आपका शे'र शे'र नहीं कहलाएगा। साथ ही जो रदीफ़ आपने चुना है उसके साथ क्या आपका क़ाफ़िया और भाव आपस में मेल खाते हैं या नहीं इस बात का भी पूरा ध्यान रखना होता है ताकि शे'र के हर एक लफ़्ज़ में सही तालमेल बैठ सके। जैसे संगीत के सात सुर होते हैं और गीत में यदि सुर हिल जाएँ तो हम कह देते हैं कि देखो कितना बेसुरा गा रहा है यह शख़्स। उसके गीत को नकार देते हैं। उसी प्रकार ही यदि ग़ज़ल में उसके उरूज़ और 'अरूज़ का ध्यान न रखा जाए, बहर में वज़्न कम या ज़्यादा हो जाए तो ग़ज़ल सिरे से ख़ारिज हो जाती है। यानि छंद शास्त्र की अनुपस्थिति में आपकी ग़ज़ल के कहन को लेकर की गई मेहनत बेकार चली जाती है। शाइरा दीपांजलि दुबे जी स्वयं भी यह मानती हैं इसीलिए उनका कहना है कि....

क़ाफ़िया मिला लेना शाइरी न समझा जाए
गीत बेसुरा गाना नग़्मगी न समझा जाए"
असग़र कलकत्तवी साहब के अनुसार....
"चाहिए रंग-ए-तग़ज़्ज़ुल भी ग़ज़ल में प्यारे
शाइरी नाम नहीं क़ाफ़िया-पैमाई का"

यह बिल्कुल सही है कि सिर्फ़ तुकबंदी कर देना, क़ाफ़िया मिला देना ही ग़ज़ल कह देना नहीं होता है बल्कि इसमें रंग-ए-तग़ज़्ज़ुल का होना भी बहुत ज़रूरी है। और यह काम इतना आसान नहीं है इसीलिए तो जनाब नासिर काज़मी साहब एक प्रकार की चुनौती देते हुए फरमाते हैं कि...

कहते हैं ग़ज़ल क़ाफ़िया-पैमाई है 'नासिर'
ये क़ाफ़िया-पैमाई ज़रा कर के तो देखो"

कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। एक कहानीकार, ग़ज़लकार, एक व्यंग्यकार और कवि अपने आसपास जो भी घटनाक्रम देखता है उसे ही शब्दों का जामा पहनाकर कथा कहानी, व्यंग्य, कविता या ग़ज़ल के रूप में प्रस्तुत करता है। इसके लिए साहित्यकार की नज़र का पैना होना बहुत ज़रूरी है। साथ ही यह भी कि वह जो भी देखता है, महसूस करता है उन भावों को सही शब्दों में पिरो कर पाठकों के सामने रख सकने की कुव्वत भी रखता है या नहीं। पाठकों को भी पढ़ते वक़्त महसूस हो कि यह तो मेरी ही कहानी है, मेरी ही व्यथा है। उसका दर्द आम-जन का दर्द बन जाए। दूसरों का दर्द महसूस करते हुए शाइरा कहती हैं....

"अमीरी-ग़रीबी में क्या फ़र्क है अब
परेशान दिखता मुझे हर बशर है"

माना कि पहले ग़ज़ल सिर्फ़ और सिर्फ़ औरत के हुस्न-ओ-जिस्म तक केंद्रित थी लेकिन आज ज़माना बदल चुका है। अब ग़ज़ल में हुस्न-ओ-मोहब्बत के साथ-साथ समाज में व्याप्त हर रंग उतारा जा रहा है। फिर चाहे वह सामाजिक रंग हो, मोहब्बत हो, रिश्ते-नाते हों, राजनीति हो या मनोविज्ञान। हाँ, यह शाइर की क़ाबिलियत पर निर्भर करता है कि वह इन रंगों को किस सीमा तक वज़्न में गहरे उतार सकता है। मुझे यह कहते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि शाइरा दीपांजलि दुबे साहिबा ने इन सभी रंगों को ब-ख़ूबी इन ग़ज़लों में उतारा है। इन रंगों में डूबे कुछ अश'आर देखिएगा...

"क्या क्या न ज़माने में सियासत निगल गई
आपस के भाईचारे को नफ़रत निगल गई"
"मार महँगाई की हावी है इस-क़दर घर में
भाई भाई का झगड़ना नहीं देखा जाता"
"ताकीद कर रहा है सदा दूसरों को बस
ख़ुद का सँभालता नहीं परिवार आदमी"

मज़हब के नाम पर आजकल बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जिसे आम नागरिक पसंद नहीं करता। यदि सियासत की बात न करें तो आम नागरिक की धारणा है कि कोई भी धर्म हो, मज़हब हो वह दो दिलों को जोड़ने का ही काम करता है। धर्म और मजहब का अर्थ है ख़ुदा.... ईश्वर। और ईश्वर सबका एक ही है। शाइरा दीपांजली दुबे साहिबा मज़हब को कैसे देखती हैं आइए इसकी बानगी देखते हैं...

"वो बडे भोले हैं शंकर हम मना लेंगे उन्हें
जा रहे शिव धाम हम काँवर चढ़ाने के लिए"

"कृष्ण जैसा हो यहाँ दोस्त निभाने वाला
पाँव हाथों से सुदामा के धुलाने वाला"

दरअसल मज़हब और मोहब्बत अलग-अलग नहीं हैं बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मज़हब यानि जो मोहब्बत करना सिखाए और मोहब्बत यानि जो हर मज़हब सिखाता है कि आपस में मिल जुलकर प्रेम से रहो। शाइरा ने भी यह मुहब्बत ब-ख़ूबी निभाई है और हर तरीके से निभाई है। हर रंग में निभाई है। इसीलिए तो वह कहती हैं...

मुहब्बत में नहीं ढूंढीं कभी भी ख़ामियाँ हमने
भुला दीं इश्क़ में उनकी सभी नादानियाँ हमने"

"कैसे कहें कि उनसे मुहब्बत नहीं रही
हाँ रू-ब-रू जताने की आदत नहीं रही"

"हमने निभाये रिश्ते हैं ज़िंदा-दिली के साथ
ख़ुश हैं इसीलिए तो ग़म-ए-ज़िंदगी के साथ"

"प्रेम तो इस हिंद का वरदान है
विश्व भर में एकता की शान है"

शाइरा समाज में फैली कुरीतियों और विसंगतियों से भी ना-वाक़िफ़ नहीं हैं। वह जानती हैं कि एक औरत ही समाज का निर्माण करती है। यदि औरत न हो तो सृष्टि भी न हो। वह अपने अस्तित्व के महत्व को समझती हैं इसीलिए तो चेतावनी स्वरुप लोगों को जागरूक करती हुईं तीखे स्वर में कहती हैं...

"अरे नादान लोगो बेटियों के भ्रूण मत मारो
यही सीता यही राधा हुआ इनसे उजाला है"

अपने देश की माटी और देश की भाषा से भी उन्हें बेहद मोहब्बत है। इसीलिए उनकी क़लम यह कहे बिना नहीं रह सकी कि...

"लिखें हिंदी पढ़ें हिंदी कहें हिंदोस्ताँ हिंदी
अगर हैं हिंद की संतान फिर बोलें यहाँ हिंदी"

"हुई मैं धन्य पावन भूमि में जन्मी पली खेली
बसा मेरी रगों में है मेरा अभिमान है भारत"

निसंदेह अपने मुल्क से उन्हें बेहद मोहब्बत है लेकिन दूसरी तरफ़ एक शिकायत भी है...

"आज गाँधी सा कोई बंदा खरा मिलता नहीं
दर्द सुनने वाला कोई दूसरा मिलता नहीं"

इन ग़ज़लों को पढ़ते वक़्त मैंने महसूस किया कि हर ग़ज़ल में कुछ न कुछ नसीहत, उद्देश्य और भाव है। जज़्बात का हर रंग इनमें मौजूद है। और ऐसा इसलिए भी है कि वह सोशल मीडिया पर "रंग-ए-तग़ज़्ज़ुल" नाम से एक ग्रुप भी चलाती हैं। जिसकी वे अध्यक्षा हैं, एडमिन हैं। यहाँ रोज़ नए कलेवर की ग़ज़लें पढ़ने को मिलती रहती हैं।

कहना कठिन है कि ग़ज़ल एक मुश्किल विधा है या आसान। दरअसल जो ग़ज़ल की व्याकरण समझ गया उसके लिए कोई कठिनाई नहीं है क्योंकि ग़ज़ल में ढेर सारे नियम हैं, ग़ज़ल के दोष हैं, रदीफ़ और क़ाफ़िया का निर्वहन है जो कि अभ्यास से ही आता है। कुछ लोग चुटकी बजाकर ही ग़ज़ल कह देते हैं और कुछ बहुत सा समय लेते हैं फिर भी वह बात नहीं ला पाते। यह भी ज़रूरी नहीं है कि आपकी बहर भी बिल्कुल सही हो, वज़्न भी ठीक हो, क़ाफ़िया भी उम्दा हो तो आपका शे'र अच्छा ही बन जाए। तभी तो कहते हैं कि शाइर बनाए नहीं जाते पैदा होते हैं। ख़ैर, ग़ज़ल हो या साहित्य की कोई भी विधा हो असल मक़सद है समाज में फैली कुरीतियों और विसंगतियों के प्रति आम आदमी को जागरूक करना और मोहब्बत का पैग़ाम पहुँचाना। इस संग्रह में बेशक ग़ज़ल के उरूज़ और अरूज़ संबंधी कमियाँ हो सकती हैं लेकिन शाइरा अपने मक़सद में ज़रूर कामयाब हैं।

मैं शाइरा दीपांजली दुबे साहिबा को उनके इस ग़ज़ल संग्रह "आँख का पानी" पर शुभकामनाएँ और हार्दिक बधाई देती हूँ और आशा करती हूँ कि पाठक भी इन ग़ज़लों का भरपूर लुत्फ़ उठाएंगे। आगे भी उनकी ग़ज़लें हमें पढ़ने को मिलेंगी ऐसी आशा करती हूँ। उनके ही इस शे'र पर अपनी बात को विराम देती हूँ...

"हारना मैंने सीखा नहीं है कभी
चाहे जितनी हो मुश्किल भरी ज़िंदगी"

ई-मेल: manjeet18kaur@gmail.com 


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