नई पुस्तकें >> इन्द्रधनुष इन्द्रधनुषडॉ. अजय प्रकाश
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कविता एवं ग़ज़ल
अपनी बात
आयु की गोधूलि-बेला पर, पहली बार, काव्य-संग्रह पुस्तक का रूप लेकर सामने आ रहा है।
डी.ए-वी. कॉलेज, कानपुर में हिन्दी विषय के प्रवक्ता और फिर विभागाध्यक्ष के रूप में कई समीक्षालक पुस्तकें प्रकाशित हुईं। पर साहित्य की काव्यात्मक विधा में यह प्रथम प्रयास है।
रचना-प्रक्रिया में मेरी एक आश्चर्यजनक मनःस्थिति रही है। काव्य-सृजन की प्रक्रिया मेरे स्नातक छात्र (लखनऊ विश्वविद्यालय) की अवधि में ही प्रारम्भ हो गई थी। लखनऊ विश्वविद्यालय में, हम कुछ रचनाकर्मी छात्रों ने, एक साहित्यिक मंच बनाया था। सप्ताह में एक विशेष दिवस पर गोष्ठी होती थी। उसमें हर सदस्य को अपनी रचना के साथ उपस्थित होना पड़ता था। अतः रचनात्मक गतिविधि बने रहना स्वाभाविक था।
मैंने ऊपर कहा कि मेरी एक आश्चर्यजनक मनःस्थिति थी। अनुभूतियों का उद्वेलन जब अभिव्यक्ति-आतुर हो जाता था, तब सहज रूप से रचना जन्म ले लेती थी। संभवतः अंग्रेजी के प्रख्यात साहित्यकार Wordsworth ने इसे ही sponteneous overflow कहा है। पर कभी भी गोष्ठियों में, कवि सम्मेलनों में न तो सुनाने की इच्छा हुई न कहीं प्रकाशन की। बस अभिव्यक्ति की छटपटाहट शान्त होते ही, रचना को समेटे वह कागज कहाँ पड़ा होता था, परवाह नहीं थी। इस तरह अनेक रचनाएँ अस्तित्वहीन हो गईं। आसपास के परिवेश से मेरा जुड़ाव-लगाव सदैव रहा। परिणामतः हर वह प्रमुख घटना मुझे प्रभावित करती थी जिसका विशेष सम्बन्ध परिवार, समाज, संस्कृति, साहित्य, राजनीति, देश से होता था। कभी-कभी वही रचना का रूप ले लेती थी। या यूँ कहें, कि आस-पास घटने वाली घटनाओं की इन्द्रधनुषी तितलियाँ आँखों के सामने उड़ती रहती थीं, जिनमें से कुछ मन के हाथों की पकड़ में आ जाती थीं और परिवर्तित रूप लेते हुए रचना का आकार ले लेती थीं।
वे ही भावनाओं, अनुभूतियों की इन्द्रधनुषी तितलियाँ, प्रस्तुत इन्द्रधनुष नामक काव्य-संग्रह में थिरक रहीं हैं।
अधिक क्या कहूँ ! बस मेरा यह प्रयास महाकवि कालिदास के इस श्लोक में निहित भावना के समान है -
क्वचित् सूर्यप्रभवो वंशः क्वचित् चाल्पविषया मतिः।
तितीर्षुदुस्तरं सागरं मोहादुडुपेनास्मि।।
अर्थात् , कहाँ तेजस्वी सूर्य के समान राजा रघु का वंश और कहाँ मेरी अल्प बुद्धि। उस वंश का वर्णन करना वैसे ही है जैसे छोटी नौका से सागर पार करने की इच्छा।
अपनी बात को विराम देने से पूर्व मन की एक बात भी अभिव्यक्ति के लिए मचल रही है। उसका सम्बन्ध इस प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका - लेखक डॉ० सुरेश अवस्थी से है। वे किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि में सतत संलग्न उनकी लेखनी ने नई पीढ़ी के रचनाकारों में उन्हें विशिष्ट स्थान दिलाया है। उन्होंने न केवल देश अपितु विदेश में भी हिन्दी साहित्य का परचम लहराया है। देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्र दैनिक जागरण में उनका स्थाई स्तम्भ 'शहरनामा' आज भी मेरी स्मृतियों की वीथियों में चहलकदमी करता है। कलम की तीखी पर शिष्ट, मर्यादित और अन्तर्मन को गुदगुदाने वाली चुभन, एक परिपक्व व्यंग्यकार का प्रमाण है।
जब मैंने डॉ. सुरेश जी से अपने काव्यसंग्रह की भूमिका लिखने के लिए अनुरोध करने का मन बनाया (जो मेरे अन्तर्मन की इच्छा है) तो मेरे एक शुभचिन्तक ने सावधान किया कि वे बहुत व्यस्त रहते हैं, महीनों लगा देंगे। पर उनका मेरे प्रति जो सहज स्नेह है, उससे मैं आश्वस्त था और वही हुआ। उन्होंने सर्वाधिक व्यस्तता, यात्राओं के बीच भी समय निकालकर मेरी इच्छा पूरी की। डॉ. सुरेश अवस्थी के प्रति मैं हृदय से आभार करत करता हूँ। प्रतिभा में उनसे कनिष्ठ होते हुए भी, आयु में वरिष्ठ होने के नाते, वे यश के उच्च शिखर पर बने रहने के, मेरे आशीष के अधिकारी हैं।
हर रचनाकार की रचनात्मकता, सृजन शक्ति के कई प्रेरक कारक होते हैं। मेरे भी हैं, जो मेरी रचनात्मकता के पौधे को विकसित, पुष्पित, फलित करने वाले हवा, पानी, धूप, खाद बने हैं। इस परिधि में सबसे पहले मुझे संस्कारित करने वाले माता-पिता और गुरुजन, फिर पत्नी, भाई, बहन-बहनोई, बेटे-बहुएँ, बेटियाँ-दामाद, सभी नाती-नातिन, पोती एवं सभी आत्मीय संबंधी जन, मित्रगण आदि आते हैं। ये सब समय-समय पर मुझे प्रेरित, उत्साहित करते रहे। उन सभी को यथायोग्य मेरा प्रणाम, नमस्कार, प्यार और आशीष।
‘अपनी बात’ अधूरी रह जाएगी यदि मैं यहाँ पर इस पुस्तक के प्रकाशक के प्रति आभार न व्यक्त करूँ। श्री अम्बरीष शुक्ल ‘गोपाल’ एक प्रवीण प्रकाशक ही नहीं, हिन्दी साहित्य के सक्षम ज्ञाता भी हैं। प्रस्तुत पुस्तक की कलेवर-संरचना में उन्होंने जिस मनोयोग और कुशलता से अपना सहयोग दिया है। उसके लिए उन्हें हार्दिक धन्यवाद।
प्रस्तुत पुस्तक के संदर्भ में सुधी समालोचकों की परिधि में मधु-तिक्त, मीठा-कड़ुआ सहज भाव से शिरोधार्य !
- अजय प्रकाश
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