नई पुस्तकें >> विपश्यना में प्रेम विपश्यना में प्रेमदयानंद पांडेय
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उपन्यास में कथावस्तु के साथ दो महत्वपूर्ण अवयवों की परख की जाती है वह है भाषा और शैली किसी कहानी। को उपन्यास का रूप देने में यदि विस्तार की भाषा है तो यह सरस नहीं बनी रहती। लेकिन यदि यह भाषा में विस्तृत होता हुआ है और दिलचस्पी सिर्फ कथा-मोड़ के कारण ही नहीं बल्कि शैली यानी शिल्पगत वैशिष्ट्य के कारण भी है तो दिलचस्पी पूरा पढ़ लेने के बाद भी बनी रहती है उत्सुकता का उत्साह भी भाषा के स्तर पर वाग्जाल नहीं है।
कथा के विस्तार में अन्योक्ति नहीं है, और शैली के स्तर पर सामासिक अभिव्यक्ति है, आलंकारिक सौंदर्य की शाब्दिक उपमाएं हैं। देखिए : साधना और साधन में इतना संघर्ष क्या हमारे सारे जीवन ही उथल पुथल नहीं मचाए है ? इस शोर का कोई कुछ नहीं कर सकता था। वह भी नहीं। यह कौन सा शोर है ? शोर है कि विलाप ? कि शोर और विलाप के बीच का कुछ ? विपश्यना तो नहीं ही है तो फिर क्या है ? विराट दुनिया है स्त्री की देह। स्त्री का मन उसकी देह से भी विराट। चंदन है तो वह महकेगा ही वह महक उठता है। बाहर हल्की धूप है, मन में ढेर सारी ठंड। नींद में ध्यान। विपश्यना में वासना का कौन सा संगीत है यह ?
– गौतम चटर्जी
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