नई पुस्तकें >> पंचमुखी हनुमान पंचमुखी हनुमानसुनील गोम्बर
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आमुख
श्री हनुमत् उपासना – का अर्थ ही है सेवा और शरणागति। उपासना में कर्म योग ज्ञानयोग सभी समाहित हैं। किंतु प्रधानता तो सर्वदा भक्तियोग की ही रहती है। भक्ति बिना कर्म और ज्ञान दोनों की ही संपूर्णता सम्भव नहीं है। चिंतन- स्मरण- ध्यान- अखण्ड विश्वास उपासना के मूल तत्व हैं। “आनुकूलस्य संकल्पः प्रतिकूलस्य वर्जनम्” के मूल सूत्र के अनुसार जिस कार्य से अपना, समाज तथा संसार का कल्याण हो वही अनुकूल है – हनुमान जी इसके मौलिक स्वरूप ही हैं – दुःख, निवृत्ति और सुख की प्राप्ति का परम उपाय है – स्वरूप का ध्यान और उपासना। आगम, निगम ग्रंथों में सर्वत्र श्री हनुमान जी का रुद्रावतार स्वीकार्य भी है और अत्यंत उपास्य फलदायी भी। ‘आगम’ ग्रंथ अर्थात् तंत्र-मंत्र पद्धतियों का उद्गम स्वयं आदिदेव महादेव से मान्य है – किंतु वे अवैदिक तंत्र जो कल्याण की सर्जना नहीं करते यथा – अभिसार आदि कृत्य जैसे- मारण- उच्चाटन- शत्रु उत्पीड़न से संपादित की जाने वाली क्रियायें- हानिप्रद तथा अ-कल्याणकारी ही हैं। आगम तो वह साधना पद्धति है जो सर्वकल्याण तथा सर्वसुख प्रदान करती है।
श्री हनुमान जी की तंत्र-मंत्र साधना परम वैष्णवी और सात्विक साधना है – जो अंतःकरण की शुद्धि- निष्काम- कल्याण भावना हेतु की जाती है। संकट- बाधायें- रोग- शोक मानव जीवन की यात्रा के अंग हैं। उनसे निवारण हेतु “संकटमोचक” ही मान्य हैं तो एकमात्र श्री हनुमान जी ! दैवी शक्तियाँ भी आपको ही संकट रक्षा के लिये ध्यान करती हैं। प्रस्तुत पुस्तक में हमने श्री हनुमान जी के मूल तत्व- ‘रुद्र तत्व’ की मीमांसा- साथ ही उनके “पंचमुखी” स्वरूप की उपासना और जिज्ञासाओं का भी संक्षिप्त अन्वेषण करने का लघु प्रयास किया है। परम प्रभु श्री हनुमान जी की प्रेरणा- कृपा से- सुधी हनुमत् भक्तों को पंचमुखी हनुमान जी की अवधारणा- स्वरूप तथा पूजन ध्यान की संक्षिप्त सामग्री इसमें संकलित करने का ही छोटा सा प्रयास हमारा यह रहा है। ‘‘शिव सर्वः परोव्यक्तो व्यक्ताव्यक्तो धराधरः” की पौराणिक वाणी के अनुसार यूँ इन अनंत लीला मूर्ति श्री हनुमान जी की कण-कण में समायी कल्याणकारी सत्ता का आभास तो प्रत्येक को सर्वदा ही होता आया है। अपनी आत्मशक्ति को जो मूलतः प्रभु शक्ति ही है – जाग्रत करने को- श्री हनुमत् कृपा प्राप्त करने को- उनकी शरण में- उनकी उपासना हेतु भक्त साधक सर्वदा ही लालायित रहते हैं- उत्साहित रहते हैं- कलिकाल के बढ़ते दुष्प्रभावों से उत्पन्न मानसिक- शारीरिक संतापों- बाधाओं- रोगों तथा दैनिक जीवन में आने वाले संकटों से मुक्ति हेतु श्री हनुमद् उपासना से बढ़कर और कोई आश्रय- और कोई साधन है ही नहीं।
भक्ति- समर्पण- सेवा के ही पर्याय स्वरूप तथा साक्षात् ‘संकटमोचक’ श्री हनुमान जी ही एकमात्र दैव हैं तो आइये हम उनके श्री चरणों में नमन करते शरणागत हों।
“पुरुषारथ पूरब करम परमेस्वर परधान।
तुलसी पैरत सरित ज्यों सबहिं काज अनुमान।।”
तुलसी ही नहीं स्वयं श्री हनुमान जी का चरित प्राकट्य ही यही सिद्ध करता है –
“बड़े प्रतीति गठिबंध तें बड़ो जोग तें छेम।
बड़ो सुसेवक साँइ तें बड़ो नेम ते प्रेम।।”
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