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देहरी पर पत्र

निर्मल वर्मा

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :244
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16759
आईएसबीएन :9789350001684

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जब हम किसी व्यक्ति के पत्र पढ़ते हैं (प्रायः किसी ऐसे व्यक्ति के, जो अब नहीं रहा), तो लगता है, जैसे क्षण-भर के लिए दरवाज़े का परदा उठ गया है, दबे पाँव देहरी पार करके हम उसके कमरे के भीतर चले आए हैं-देखो (हम अपने से कहते हैं) देखो- यह वह खिड़की है, जिसके बाहर बाल्टा के समुद्र के देखते हुए चेख़व मास्को के बारे में सोचा करते थे, जहाँ ओल्गा थी, मास्को आर्ट थियेटर था, सुबह-शाम जहाँ गिरजे के घंटे गूँजा करते थे…और देखो (हमारी आँखें समय और स्थान के अन्तराल को पार करती हुई फ्रांस के एक उपेक्षित कस्बे पर ठिठक जाती हैं) यह वह जीर्ण-जर्जरित कुसी है, जहाँ फ्लॉबेर मछुए की समाधिस्थ, एकाग्र मुद्रा में काँटा डाले बैठे रहा करते थे ताकि भाषा की अतल गहराइयों के भीतर से एक ऐसे उपयुक्त शब्द को बाहर निकाल सकें जिसके बिना कोई वाक्य पिछले अनेक दिनों से अधूरा पड़ा है। हम एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते हैं। मेज़ पर रखे काग़ज़ों को छत हैं, कुर्सी को सहलाते हैं, और फिर खिड़की के बाहर फैले उदास उनींदे समुद्र को देखने लगते हैं। हम उन घड़ियों को पुनः जी लेना चाहते हैं, जो इन कमरों में रहने वाले व्यक्तियों की साक्षी (विटनेस) थीं। वे अब नहीं रहे, किन्तु पत्रों में उनकी उपस्थिति आज बरसों बाद भी उतनी ही ठोस, उतनी ही सजीव लगती है, जितना कभी उनका व्यक्तित्व रहा होगा।

निर्मल वर्मा

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