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हम प्रवासी

अभिमन्यु अनत

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :171
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1676
आईएसबीएन :81-7315-449-x

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास....

Hum Pravashi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सामने से आती हुई एक स्त्री ने पूछा, ‘‘किसे ढूँढ़ रहे हैं आप लोग ?’’ ‘‘राजू अरमूगम को !’’ अरे राजू ! इधर तीन चार दिनों से दिखाई नहीं पड़ा। कुछ सोचकर फिर बोली, वह सामने दीवार पर 11 नंबर लिखा हुआ है। उसमें जो लोग हैं, राजू उन्हीं के साथ रहता था। आप लोग जाकर उन लोगों से पूछिए, वे जरूर बता देंगे।’’ वे 11 नंबर वाले भाग के पास जा पहुंचे। दो स्त्रियाँ उसमें से बाहर निकलीं।

 एक की गोद में छोटा बच्चा था। मधुवा ने उसी से कहा, ‘‘हम राजू से मिलने आए हैं।’’ चंपा ने जुबेदा की ओर देखा। जुबेदा कुछ बोल पाती कि सामने से प्रवासी आवास के रखवार के साथ जो दो पुलिसवाले इधर को ही आ रहे थे उनमें से एक ने चिल्लाकर दूर से ही कहा, ‘‘जितनी जल्दी हो सके, यहाँ से निकलो, वरना हिरासत में ले लिये जाओगे। तभी कमरे के भीतर से लड़खड़ाती आवाज आई, मधुचंद ! मधुचंद...महावीर...मधु...मधुचंद क्यों नहीं आया ? मधुवा असमंजस में पड़ा सोच उठा, मधुचंद यह नाम तो मेरा है और मेरे पिता के सिवा कभी किसी ने मुझे इस नाम से पुकारा ही नहीं। तो नंबर 11 से मधुचंद का नाम किसने लिया ? कौन है वह ? फिर सोच उठा, पर मधुचंद तो किसी दूसरे व्यक्ति का भी नाम हो सकता है। और तभी एकाएक उसे इस जहाज से आनेवाले हनीफ के पिता के दोस्तवाली बात याद आ गई।

इसी पुस्तक से

भारत से गिरमिटिया मजदूर बनाकर मॉरीशस ले जाए गए भारतवंशियों ने वहाँ जाकर उजाड़ और वीरान पड़े उस टापू को अपने परिश्रम और पुरषार्थ से स्वर्ग बना दिया। किंतु पहले पहल तो उन्हें जैसे नरक ही भोगना पड़ा। नरक से स्वर्ग तक की उनकी उस यात्रा का जीवंत और रोचक वर्णन प्रस्तुत उपन्यास में बखूबी दिया गया है।

वह अनजान आप्रवासी
देश के अंधे इतिहास ने
न तो उसे देखा था
न तो गूँगे इतिहास ने
कभी सुनाई उसकी पूरी कहानी हमें
न ही बहरे इतिहास ने
सुना था उसके चीत्कारों को
जिसकी इस माटी पर बही थीं
पहली बूंदें पसीने की
जिसने चट्टानों के बीच उगाई थी हरियाली
नंगी पीठों पर सहकर बाँसों की बौछारें
बहा-बहाकर लाल पसीना
वह पहला गिरमिटिया इस माटी का बेटा
जो मेरा भी अपना था, तेरा भी अपना।

हम प्रवासी

एक


आज उसने फिर अपने अँगूठे से सुनहले रंग की बाली से मक्की के एक दाने को रिहा किया। उस क्षणिक रिहाई के बाद उसने दाने को अपनी खाली पड़ी तंबाकू की डिबिया में अन्य दानों के साथ बंद कर दिया।
जहाज में सवार होने के पहले ही दिन से उसका यह सिलसिला शुरू हुआ था। अपने गाँव के सूखे पड़े खेत से मक्की की पाँच बालियाँ उसने बिहार छोड़ने से पहले अपनी झोली में रख ली थीं। उसकी पत्नी ने उसके अपनी आँखों और हाथों के इशारे से कहा था, ‘सुखाड़ी के झुलसल खेत के ई दुःखद निशानी परदेस काहे ले जाता बानी ?’

महाबीर ने चंपा के मूक प्रश्न का बस एक फीकी मुसकान से उत्तर दिया था। जिस बाली में सबसे अधिक दाने थे उसी से वह दाने छुड़ाकर उन्हें तंबाकू की डिबिया में जमा करता आ रहा था। चंपा ने उस बाली से पहले ही दानों को गिनकर अपनी दोनों मुट्ठियों को चार बार, फिर एक मुट्ठी की चार अँगुलियों को अपने पति को दिखाते हुए अपना पक्ष व्यक्त किया, इसमें चौवालीस दाने बाकी रह गए हैं।’’
महाबीर ने हामी भरते हुए कहा, ‘‘ठीक है, चंपा रानी। तुम बाली के बचे दानों को गिनकर अपनी गिनती रखना और मैं डिबिया के दानों को गिनकर पता लगाऊँगा कि कितने दिनों में इस काला पानी की हमारी यात्रा खत्म होगी।’’

अपने पति के हाथ से लगभग खाली हो चली बाली को लेकर चंपा ने उन्हें गिना और बोली, लगता बा कि बाली के सब दाना छुट जाय फिर भी हमनी जमीन पर नैं पहुँचब जा।’’

मारीच द्वीप के लिए गिरमिटिया मजदूरों के साथ भरती होते समय मॉरीशस से आए दलाल ने उनसे कहा था कि तीस से कम दिनों में यात्रा पूरी हो जाएगी।

महाबीर हर सूर्योदय पर सूर्य नमस्कार के बाद अपना यह पहला काम करना नहीं भूलता। इधर, तीन दिन से सूरज पूर्वी आकाश पर ठीक आँखों के सामने से न उगकर सिर से ऊपर से उगता रहा था। आज भी काली बदली देर से छँटी थी और सूरज देर से उगा था। उसके उगते ही महाबीर ने अपनी डिबिया से दाने निकाले और गिनना शुरू किया।

‘‘चौंतीस दिन।’’ अपने बाली वाले हिसाब को देखकर महाबीर ने बताया। उसके होंठों को पढ़कर चंपा ने सिर हिलाया और हामी भर दी, ‘‘हाँ, आज चौंतीसवाँ दिन है भारत छोड़े।’’
जहाज के ऊपरी फर्श के नीचे और माल-सामान के ऊपरी भाग के बीच में इन मजदूरों को जगह दी गई थी। जहाज के दो छोरों पर एक ओर अविवाहित स्त्रियाँ थीं और दूसरी ओर अविवाहित मर्द। बीचवाले भाग में महाबीर अपनी पत्नी के साथ दूसरे शादीशुदा साठ से अधिक मजदूरों और उनके बच्चों के साथ था।

ऊपरी फर्श पर पीने के पानी की टंकी से दवाखाने तक की जगह भी गिरमिटिया मजदूरों से भरी हुई थी। ऊपर दो ही पाखाने थे और दोनों के सामने औरतों मर्दों एवं बच्चों की कतारें थीं। रात के दाल भात से कई लोगों के पेट में खराबी आ गई थी कुछ डेक की मुँड़ेर के सहारे झुककर समंदर में उलटी कर रहे थे। कई लोग तो अँगुलियों से नाक दबाए इधर से उधर आ जा रहे थे।
फकूरदीन को अस्तीर पाकर महाबीर उसके पास आ गया। पूछने पर फकूरदीन ने उसे बताया कि उसे भी दस्त का शिकार होना पड़ा था। महाबीर सोच उठा-पर ऐसा तो प्रायः ही होता रहता है। बगल में जो दवाखाना था, उसमें तो पहले ही सप्ताह दवाखत्म हो चली थी।’

इन चौंतीस दिनों में महाबीर ने यह आदत बना ली थी कि इससे पहले जागकर वह अपनी सुबह की नित्य क्रियावाली आवश्यकताओं को पूराकर लेता था। पानी की टंकी के पास खड़े होकर महाबीर ने अपने था। जमीन के टुकड़े का कहीं नामोनिशान भी नहीं था।


मॉरीशस के बंदरगाह से लगने वाले हर जहाज की सूचना मधुवा को मिल जाती थी। हनीफ खलासी उसे यह भी बता देता था कि कौन जहाज भारत से आ रहा था और कौन नहीं। मधुवा की दिलचस्पी सिर्फ भारत से आनेवाले जहाजों में थी। वह भी उसके आने से कहीं अधिक उसके भारत लौटने से। साल से अधिक होने को था और इस बीच कोई एक भी जहाज उसकी गैर जानकारी में बंदरगाह नहीं छोड़ पाया था।

करीब एक महीने बाद वह फिर बंदरगाह पहुँचा था। साल भर में वह इसी अंतराल में इधर आता-मन में आशा लिये और लौटता निराशा के साथ।

महीने भर पहले जिस सफेद रंग की फतूही में बंदरगाह के कामगारों ने उसे देखा था, आज भी वह उसी फतूही में था। किसी का यह सोच लेना एकदम गलत होगा कि मधुवा के पास एक ही जोड़ा कपड़ा था। वास्तव में वह सफेद के अलावा किसी भी दूसरे रंग का कपड़ा पहनने का आदी नहीं था घुटनों के ऊपर तक की उसकी लँगोटी उसकी फतही से कहीं अधिक सफेद थी। उसका अगर कोई साथी था तो वह हनीफ खलासी ही था।

हनीफ खलासी ठीक मधुवा की तरह आरा जिले का था। वह मधुवा के पिता के खेतों में मजदूर था। आरा से पटना की पैदल यात्रा दोनों के साथ तय की थी। वहाँ से रेलगाड़ी द्वारा वे कलकत्ता पहुँचे थे। फिर वहाँ से मॉरीशस तक की तीस दिन की जहाज यात्रा दोनों ने साथ–साथ की थी। चार साल दोनों साथ-साथ रहे। सेंतांद्रे कोठी में दोनों एक साथ गन्ना बोते, काटते और लादते रहे थे।

दोनों का अनुबंध चार साल बाद जब समाप्त हो गया तो एक मुक्त कामगार की तरह हनीफ बंदरगाह की नौकरी में लग गया। मधुवा शहर ही में कपड़ों की दुकान के मालिक के यहाँ काम करने लगा। पिछले जहाज से उतरे माल के बोरों के बीच खड़ा हनीफ अपने छोटे दोस्त के बारे में सोचने लगा। पोर्टलुई शहर के उत्तरी प्रांत की कलकत्ता गली में हनीफ खलासी ने विधवा आइसा के घर पनाह पा ली थी और मधुवा ने भी। शुरू में आइसा को मधुवा पसंद नहीं था। वह उसे सनकी, सिरफिरा और न जाने क्या क्या कहती रहती थी। लेकिन हनीफ खलासी के एक ही बार डाँटे जाने के बाद उसे अपना वह रवैया बदल देना पड़ा था।

और फिर बदलती क्यों नहीं। हनीफ खलासी ने एकदम साफ शब्दों में कह दिया था, देखो इस शहर में मैं चाहूँ तो अपने लिए दस बीस औरतें ढूँढ़ लूँ, मगर इस पूरे द्वीप में मुझे मधुवा जैसा दोस्त एक भी नहीं मिलेगा।

कुछ देर चुप रहकर उसने पूछा, ‘आइसा मधुवा के कितने रूपए हमारे यहां जमा हैं ?’
‘देखो, उसने देनिस पीचेन जैसे ठग को जो पेशगी दे रखी है अपने भारत लौटने के किराए के लिए, वह तो उसे मिलने से रहा। अगर वह किराए के लिए तुमसे अपने पैसे की माँग करे तो मत देना। मैं नहीं चाहता कि वह हमसे बिछड़े। हमारे पास उसके इस समय पूरे छह सौ रुपए जमा हैं।’

मधुवा की उम्र पच्चीस साल की थी। वह हनीफ, खलासी से बीस साल छोटा था, एक दिन खलासी को अच्छी रौ में पाकर आइसा उससे पूछ बैठी थी, ‘ई देसवा में तोके ई पागला ही दोस बनाई के मिलल ?’
‘ई पागला नहीं होवे। इसे पागल बनाने की कोशिश जरूर की गई।’
‘अब यह मत कहना कि इस भोंदे निगोड़े को किसी खूबसूरत लड़की ने धोखा दे दिया।
‘जो बात नहीं है वह क्यों कहूँ।’
‘तो फिर बात क्या है ? आखिर यह सराब के बोतल ओकर हाथ से काहे ना छुटेला ?’
‘यह मधुवा का अपना रहस्य है। मैं नहीं बता सकता।’
‘बुझा ला कि ई त दिन में भी सपना देखत रहेला।’
हनीफ को चुप पाकर आइसा ने पूछा, ‘इसकी इस हालत की वजह क्या है ?’
‘इसकी सौतेली माँ ने इसे इस हालत में पहुँचाया।’

फिर तो हनीफ को मजबूरन वह कहानी सुनानी ही पड़ी। तब मधुवा गाँव का छैल-छबीला था। कुएँ पर की लड़कियाँ उसे देख पानी भरना भूल जाती थीं। लेकिन जब मधुवा का बाप मधुवा की माँ की मृत्यु के बाद अपने से बीस साल छोटी लड़की को ब्याह लाया तो मधुवा की सारी हँसी खुशी जाती रही। एक रात जब मधुवा के बाप को खेत में रखवाली के लिए फसल की निगरानी करनी पड़ी तो घर पर उसकी दूसरी पत्नी महीनों से अपने भीतर धधक रही इच्छा को दबाए नहीं रख सकी। अपनी अधनंगी कमसिन देह के साथ वह मधुवा के कमरे में प्रवेश कर ही गई थी।’
महीनों पहले आइसा को सुनाई कहानी को आज अनायास ही हनीफ खलासी आँखें मूँद करके गोया उसे देखने लगा हो।
उस दिन के बाद मधुवा अपने घर में नहीं रहा। मेरे साथ हमारे घर में रहने लगा। उसकी सौतेली माँ के मन में यह डर घर करता गया कि आज नहीं तो कल, मधुवा अपने बाप को सब कुछ बताकर रहेगा। अपनी नौकरानी की मदद से वह मधुवा के अनजाने में उसे भोजन में न जाने क्या-क्या मिलवाती रहती।

जब मधुवा धीरे-धीरे दिमागी संतुलन खोता सा प्रतीत होने लगा तो उसे जमीन जायदाद से बेदखल रखने और अपनी करतूत को अपने पति के सामने उजागर होने से रोकने के लिए उसने नई चाल चली। उन दिनों आरा जिले में मारीच देसवा का एक दलाल अपने द्वीप के लिए मजदूरों की तलाश कर रहा था। मुझको जब मालूम हुआ कि उस औरत ने रुपए देकर उस दलाल से मधुवा की भरती परदेस के लिए करवा ली तो मैंने अपने बूढ़े बाप से कहा, ‘मधुवा के हम अकेले परदेस नै जाएदेब।’’

यहाँ तक की कहानी सुनने के बाद आइसा ने पूछा था, फिर आगे क्या हुआ ?’
‘फिर तो हम इधर आ गए, उधर पता नहीं क्या होता रहा होगा। बिहार लौटने वाले एक गिरमिटिया मजदूर के हाथ मैंने अपने बाप के नाम एक पत्र भी भेजा, पर महीनों तक कोई जवाब आया ही नहीं। ठीक एक साल बाद मुझे अपने घर से पहला पत्र मिला था, जो हमारे गाँव से आनेवाला एक गिरमिटिया लाया था, साथ में मेरी माँ का भेजा सतुआ।’

झिझकते-झिझकते आइसा यह पूछकर ही रही थी, ‘उस रात मधुवा और उसकी उस कमसिन सौतेली माँ के बीच किसकी जीत हुई थी ?’
‘दोनों की हार हुई थी। अब आगे कुछ मत पूछो।’
और अब जब भारत से आकर लौटने वाले सभी जहाजों में से किसी एक में जगह पाकर मछुवा हिंदुस्तान लौटने का मौका तलाशने लगा था तो हनीफ खलासी उससे यही एक वाक्य कहता, ‘अगर लौटना हुआ तो साथ लौटेंगे, तुम्हें अकेले जाने नहीं दूँगा।’’


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